आरुणि ऋषि | Sage Aruni | Rishi Aruni | Rishi Upmanyu | Uddalaka Aruni

ऋषि आरूणि एक योग्य और कर्तव्य निष्ठ महर्षि थे, जिनकी गुरू भक्ति के समक्ष सभी सभी नतमस्तक हुए. ऋषि आरूणि का उल्लेख आरूणकोपनिषद एवं कठउपनिषद में भी देखा गया है. उपनिषद में इनके चरित्र का बहुत विज्ञ रूप प्राप्त होता है. इसलिए अरुणि जी को एक महान उपनिषद् ऋषि भी कहा जाता है. अरुणि ऋषि जी या उद्दालक या उद्दालक अरुणि के नाम से भी जाने जाते हैं इन्हें उपमन्यु के साथ साथ एक और नाम ‘वेद’ अरुणि भी प्राप्त है. यह ऋषि धौम्य के शिष्य थे.

गुरू भक्त आरुणि | Guru Bhakt Aruni

ऋषि धौम्य, वन में आश्रम बनाकर रहा करते थे यह विद्वान वेदों के ज्ञाता और अनेक विद्याओं में कुशल और पारंगत थे. उनके पास बहुत से बालक शिक्षा ग्रहण करने आते थे इन्हीं सभी शिष्यों में से एक आरुणि नाम का एक शिष्य भी था. वह एक आज्ञाकारी शिष्य था तथा सदा अपने गुरु धौम्य के आदेशों का पालन किया करता था. पढने में सामान्य ही था किंतु आज्ञाकारी बहुत था. उसके इसी गुणों के कारण वह अपने गुरु का योग्य शिष्य था.

उसकी गुरू भक्ति के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार जब एक बार घनघोर वर्षा होने लगी तो आश्रम में चारों ओर जल का भराव होने लगा. आश्रम के पास जो खेत थे वह भी जल में डुबने लगे. यह दशा देखकर ऋषि धोम्य को चिन्ता होने लगी की यदि खेतों में अधिक जल भर गया तो फ़सल नष्ट हो जाएंगी इस कारण बहुत नुकसान होगा तब वह अपने शिष्य आरुणि को खेतों में जाने को कहते हैं ताकी वह देख सके की वहां पानी जमा तो नहीं हो रहा या खेतों पर लगाई बाड़ तो नहीं टूट गइ यदि ऐसा हो गया है तो वह उस जाकर बंद कर दे.

ऋषि धौम्य का आदेश पाकर आरुणि खेतों की ओर निकल पड़ते हैं वह चारों ओर नज़र देखते हैं तभी एक जगह वह एक मेंड़ को टूटा देखते हैं जिस कारण पानी बड़े वेग से खेतों में आने लगता है. आरुणि उस नाले या मेंड़ को रोकने का प्रयास करते हैं परंतु बहुत परिश्रम करने पर भी वह नाला ठीक नहीं हो पाता. तब आरुणि को एक उपाय सूझता है और वह स्वंय उस स्थान पर लेट जाते हैं इस कारण जल का बहाव रुक जाता है, धीरे-धीरे वर्षा कम होने लगी.

इस प्रकार वह जल को रोक देता है. रात होने लगती है व शिष्य के न लौटने पर ऋषि धौम्य को चिंता सताने लगती है तब ऋषि धौम्य अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर आरुणि को खोजने के लिए खेतों की ओर चल देते हैं. खेत पर उसे ढूंढने पहुंचे तो देखते हैं कि आरुणि पानी को रोके मेड़ के पास लेटा हुआ है उसे देखते ही गुरुजी भावविभोर हो जाते हैं.

वह उसे उठाकर गले से लगा लेते हैं. वह उसे कहते हैं कि तुम एक आदर्श शिष्य के रूप में सदा याद किए जाओगे तथा मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हुँ कि तुम दिव्य बुद्धि प्राप्त करोगे तथा सभी शास्त्रों में निपुण होगे. आज से तुम्हारा नाम उद्दालक के रूप में प्रसिद्ध होगा जिसका अर्थ है जल से निकला या उत्पन्न हुआ. इस कारण आरुणि ऋषि को उद्दालक के नाम से जाना गया तथा बिना पढ़े ही इन्हें सारी विद्याएं प्राप्त हो गईं.

ऋषि उद्दालक अरुणी संबंधी अन्य तथ्य | Other Information related to Saint Uddalak Aruni

कठ उपनिषद में उद्दालक अरुणि के विषय में बताया गया है कि वह एक महान ऋषि थे जिन्हें  वाजश्रवस के नाम से भी जाना जाता था यह अनेक यज्ञ एवं दान पुण्य किया करते थे. वहीं दूसरी ओर Chāndogya उपनिषद के अनुसार, उद्दालक अरुणि का बेटा था और इसलिए उद्दालक अरुणी के रूप में जाने गए.

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मंगलनाथ मंदिर | Mangalnath Mandir | Shri Mangalnath Mandir | Mangalnath Temple | Mangal Dev

मंगलनाथ मंदिर भारत की प्रमुख धार्मिक नगरी उज्जैन में स्थित है जहाँ के पावन सानिध्य को पाकर सभी धन्य हो जाते हैं जहाँ जाकर सभी के पाप स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं. उज्जैन के प्रमुख मंदिरों में से एक यह मंदिर भक्तों की सभी विपदाओं को हर लेता है पुराणों के अनुसार उज्जैन को मंगल की जननी भी कहा जाता है. इसी कारण इस मंदिर का विशेष महत्व रखता है पूरे भारत से लोग यहां पर आकर मंगल देव की पूजा अराधना करते हैं तथा जिनकी कुंडली में मंगल भारी होता है वह मंगल शांति हेतु यहाँ पहुँचते हैं.

उज्जैन का यह मंगलनाथ मंदिर सभी से अलग है. वैसे तो देश भर में कई मंगल भगवान के अनेकों मंदिर हैं, परंतु यह मंगल नाथ मंदिर अपना एक अलग महत्व रखता है. मंगल का जन्म यहाँ होने के कारण ही इस स्थान को मंगल की जननी कहा गया और इस कारण यहाँ पर आकर मंगल की पूजा का विशेष विधान होता है. सभी लोग जिनके लिए मंगल की शांति की पूजा बताई जाती है उसे इस स्थान में आकर इस पूजा को करना चाहिए जिसका फल की गुना प्राप्त होता है तथा जल्द ही मिलता है.

मंगलनाथ मंदिर उज्जैन की क्षिप्रा नदी के किनारे स्थित है मंगलनाथ मंदिर जो भक्तों के लिए एक पवित्र धाम है यहां आना भक्तों के लिए एक अविस्मर्णीय सुखद यात्रा जैसा है. मत्स्य पुराण तथा स्कंध पुराण आदि में मंगल देव के विषय में विस्तार पूर्वक उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार उज्जैन में ही मंगल भगवान की उत्पत्ति हुई थी तथा मंगल नाथ मंदिर ही वह स्थान है जहाँ देव का जन्म स्थान है जिस कारण से यह मंदिर दैवीय गुणों से युक्त माना जाता है.

मंगल भगवान का स्वरुप | Appearance of Lord Mangal

मंगल भगवान का स्थान नव ग्रहों में आता है यह अंगारका और खुज नाम से भी जाना जाता है. वैदिक पौराणिक कथाओं के अनुसार मंगल ग्रह शक्ति, वीरता और साहस के परिचायक है तथा धर्म रक्षक माने जाते हैं. मंगल देव को चार हाथ वाले त्रिशूल और गदा धारण किए दर्शाया भगवान मंगल की पूजा से मंगल शाँति प्राप्त होती है तथा कर्ज से मुक्ति धन लाभ प्राप्त होता है मंगल के रत्न रूप में मूंगा धारण किया जाता मंगल देव  दक्षिण दिशा के संरक्षक माने जाते हैं.

मंगल भगवान जन्म कथा | Birth Story of Lord Mangal

मंगल देव के जन्म की कथा के बारे में पुराणों उल्लेख मिलता है. जिसके अनुसार अंधकासुर नामक एक राक्षस था उसने भगवान शिव की उपासना की तथा वर्षों तक उनकी तपस्या में लीन रहा भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं अंधकासुर भगवान से वरदान मांगता है कि मेरी रक्त बूंदे जहां भी गिरें वहीं पर मैं फिर से जन्म लेता रहूं.

इस पर भगवान उसे यही वरदान प्रदान करते हैं इस वरदान को पाकर  दैत्य अंधकासुर चारों ओर तबाही फैला देता है शिव के वरदान स्वरूप कोई भी उसे हरा नहीँ पाता जिस कारण सभी लोग प्रभु से पार्थना करते हैं की वो उन्हें इस संकट से आन उबारें तब भगवान शिव अंधकासुर से युद्ध करते हैं इस बीच भयंकर युद्ध होता है दोनों के बीच भीषण युद्ध होता है  भगवान शिव जितनी बार भी अपने त्रिशूल से उसे मारते हैं वह अगले ही पुन: जीवित हो जाता है उसका रक्त गिराते ही अनेक अंधकासुर उत्पन्न हो जाते हैं इस लम्बे युद्ध को करते करते भगवान शिव थक जाते हैं और उनके शरीर से पसीने की कुछ बूंदें उज्जैन की भूमि पर गिरती हैं और उन बुंदों के गिरने से पृथ्वी दो भागों में बंट जाती है जिसमें से मंगल देव का जन्म होता है. और इस बीच दैत्य का सारा रक्त मंगल में समा जाता है जिससे उसका अंत होता है.

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आदि शंकराचार्य जयंती | Adi shankaracharya jayanti | Aadi shankaracharya | Aadi Shankaracharya Jayanti 2025

आदि शंकराचार्य एक महान हिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरु थे. आदि शंकराचार्य जी का जन्म 788 ईसा पूर्व केरल के कालड़ी में एक नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इसी उपलक्ष में वैशाख मास की शुक्ल पंचमी के दिन आदि गुरु शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है. इस वर्ष आद्यगुरू शंकराचार्य जयंती
02 मई 2025 , के दिन मनाई जाएगी. हिन्दू धार्मिक मान्यता अनुसार इन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है यह अद्वैत वेदान्त के संस्थापक और हिन्दू धर्म प्रचारक थे. आदि शंकराचार्य जी जीवनपर्यंत  सनातन धर्म के जीर्णोद्धार में लगे रहे उनके प्रयासों ने हिंदु धर्म को नव चेतना प्रदान की.

आदि शंकराचार्य जयन्ती के पावन अवस्रप पर शंकराचार्य मठों में पूजन हवन का आयोजन किया जाता है. देश भर में आदि शंकराचार्य जी को पूजा जाता है. अनेक प्रवचनों एवं सतसंगों का आयोजन भी होता है. सनातन धर्म के महत्व पर की उपदेश दिए जाते हैं और चर्चा एवं गोष्ठी भी कि जाती है.

मान्यता है कि इस पवित्र समय अद्वैत सिद्धांत का पाठ करने से व्यक्ति को परेशानियों से मुक्ति प्राप्त होती है. इस दिन धर्म यात्राएं एवं शोभा यात्रा भी निकाली जाती है.आदि शंकराचार्य जी ने अद्वैत वाद के सिंद्धांत को प्रतिपादित किया जिस कारण  आदि शंकराचार्य जी को हिंदु धर्म के महान प्रतिनिधि के तौर पर जाना जाता है, आदि शंकराचार्य, जी को जगद्गुरु  एवं शंकर भगवद्पादाचार्य के नाम से भी जाना जाता है.

आदि शंकराचार्य’ जन्म कथा | Adi Shankaracharya Birth Story

असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगदगुरू शंकराचार्य का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी के पावन दिन हुआ था. दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्में शंकर जी आगे चलकर ‘जगद्गुरु आदि शंकराचार्य’ के नाम से विख्यात हुए. इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ जब विवाह के कई वर्षों बाद भी कोई संतान नहीं हुई, तो इन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी सहित संतान प्राप्ति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए से दीर्घकाल तक भगवान शंकर की आराधना की इनकी श्रद्धा पूर्ण कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा.

शिवगुरु ने प्रभु शंकर से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र की इच्छा व्यक्त की. तब भगवान शिव ने कहा कि ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा अत: यह दोनों बातें संभव नहीं हैं तब शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति की प्रार्थना की और भगवान शंकर ने उन्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति का वरदान दिया तथा कहा कि मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ जन्म लूंगा.

इस प्रकार उस ब्राह्मण दंपती को संतान रूप में पुत्र रत्न की प्राप्त हुई और जब बालक का जन्म हुआ तो उसका नाम शंकर रखा गया शंकराचार्य ने शैशव में ही संकेत दे दिया कि वे सामान्य बालक नहीं है. सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने वेदों का पूर्ण अध्ययन कर लिया था, बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र पारंगत हो गए और सोलहवें वर्ष में ब्रह्मसूत्र- भाष्य कि रचना की उन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना शिष्यों को पढ़ाते हुए कर दी अपने इन्हीं महान कार्यों के कारण वह आदि गुरू शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए.

आदि शंकराचार्य जयंती महत्व | Significance of Adi Shankaracharya Jayanti

आदि शंकराचार्य जयन्ती के दिन शंकराचार्य मठों में पूजन हवन किया जाता है और पूरे देश में सनातन धर्म के महत्व पर विशेष कार्यक्रम किए जाते हैं. मान्यता है कि आदि शंकराचार्य जंयती के अवसर पर अद्वैत सिद्धांत का किया जाता है.

इस अवसर पर देश भर में शोभायात्राएं निकली जाती हैं तथा जयन्ती महोत्सव होता है जिसमें बडी संख्या में श्रद्वालु भाग लेते हैं तथा यात्रा करते समय रास्ते भर गुरु वन्दना और भजन-कीर्तनों का दौर रहता है. इस अवसर पर अनेक समारोह आयोजित किए जाते हैं जिसमें वैदिक विद्वानों द्वारा वेदों का सस्वर गान प्रस्तुत किया जाता है और समारोह में शंकराचार्य विरचित गुरु अष्टक का पाठ भी किया जाता है.

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गंगा जयंती 2025 । Ganga Saptami | Ganga Jayanti 2025

गंगा जयंती हिन्दुओं का एक प्रमुख पर्व है. वैशाख शुक्ल सप्तमी के पावन दिन गंगा जी की उत्पत्ति हुई इस कारण इस पवित्र तिथि को गंगा जयंती के रूप में मनाया जाता है. इस वर्ष 2025 में यह जयन्ती 05 मई को मनाई जाएगी.

गंगा जयंती के शुभ अवसर पर गंगा जी में स्नान करने से सात्त्विकता और पुण्यलाभ प्राप्त होता है. वैशाख शुक्ल सप्तमी का दिन संपूर्ण भारत में श्रद्धा व उत्साह के साथ मनाया जाता है यह तिथि पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने का पर्व है गंगा जयंती. स्कन्दपुराण, वाल्मीकि रामायण आदि ग्रंथों में गंगा जन्म की कथा वर्णित है.

भारत की अनेक धार्मिक अवधारणाओं में गंगा नदी को देवी के रूप में दर्शाया गया है. अनेक पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुये हैं. गंगा नदी को भारत की पवित्र नदियों में सबसे पवित्र नदी के रूप में पूजा जाता है. मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश होता है. लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा रखते हैं तथा मृत्यु पश्चात गंगा में अपनी राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक समझते हैं. लोग गंगा घाटों पर पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं.

गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक माना गया है. गंगाजल को अमृत समान माना गया है. अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुंभ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, दान एवं दर्शन करना महत्त्वपूर्ण समझा माना गया है. गंगा पर अनेक प्रसिद्ध मेलों का आयोजन किया जाता है. गंगा तीर्थ स्थल सम्पूर्ण भारत में सांस्कृतिक एकता स्थापित करता है गंगा जी के अनेक भक्ति ग्रंथ लिखे गए हैं जिनमें श्रीगंगासहस्रनामस्तोत्रम एवं गंगा आरती बहुत लोकप्रिय हैं.

गंगा जन्म कथा । Legend of Ganga Birth

गंगा नदी हिंदुओं की आस्था का केंद्र है और अनेक धर्म ग्रंथों में गंगा के महत्व का वर्णन प्राप्त होता है गंगा नदी के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं जो गंगा जी के संपूर्ण अर्थ को परिभाषित करने में सहायक है.  इसमें एक कथा अनुसार गंगा का जन्म भगवान विष्णु के पैर के पसीनों की बूँदों से हुआ गंगा के जन्म की कथाओं में अतिरिक्त अन्य कथाएँ भी हैं. जिसके अनुसार गंगा का जन्म ब्रह्मदेव के कमंडल से हुआ.

एक मान्यता है कि वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु के चरण धोए और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया और एक अन्य कथा अनुसार जब भगवान शिव ने नारद मुनि, ब्रह्मदेव तथा भगवान विष्णु के समक्ष गाना गाया तो इस संगीत के प्रभाव से भगवान विष्णु का पसीना बहकर निकलने लगा जिसे ब्रह्मा जी ने उसे अपने कमंडल में भर लिया और इसी कमंडल के जल से गंगा का जन्म हुआ था.

गंगा जयंती महत्व | Significance Ganga Jayanti

शास्त्रों के अनुसार बैशाख मास शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को ही गंगा स्वर्ग लोक से शिव शंकर की जटाओं में पहुंची थी इसलिए इस दिन को गंगा जयंती और गंगा सप्तमी के रूप में मनाया जाता है.  जिस दिन गंगा जी की उत्पत्ति हुई वह दिन गंगा जयंती (वैशाख शुक्ल सप्तमी) और जिस दिन गंगाजी पृथ्वी पर अवतरित हुई वह दिन ‘गंगा दशहरा’ (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) के नाम से जाना जाता है इस दिन मां गंगा का पूजन किया जाता है.  गंगा जयंती के दिन गंगा पूजन एवं स्नान से रिद्धि-सिद्धि, यश-सम्मान की प्राप्ति होती है तथा समस्त पापों का क्षय होता है. मान्यता है कि इस दिन गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है. विधिविधान से गंगा पूजन करना अमोघ फलदायक होता है.

पुराणों के अनुसा गंगा विष्णु के अँगूठे से निकली हैं, जिसका पृथ्वी पर अवतरण भगीरथ के प्रयास से कपिल मुनि के शाप द्वारा भस्मीकृत हुए राजा सगर के 60,000 पुत्रों की अस्थियों का उद्धार  करने के लिए हुआ था  तब उनके उद्धार के लिए राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर माता गंगा को प्रसन्न किया और धरती पर लेकर आए। गंगा के स्पर्श से ही सगर के 60 हजार पुत्रों का उद्धार संभव हो सका  इसी कारण गंगा का दूसरा नाम भागीरथी पड़ा.

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बगलामुखी जयंती 2025 । Bagalamukhi Jayanti 2025| Baglamukhi Katha

वैशाख शुक्ल अष्टमी को देवी बगलामुखी का अवतरण दिवस कहा जाता है जिस कारण इसे मां बगलामुखी जयंती के रूप में मनाया जाता है. इस वर्ष 2025 में यह जयन्ती 05 मई,  को मनाई जाएगी. इस दिन व्रत एवं पूजा उपासना कि जाती है साधक को माता बगलामुखी की निमित्त पूजा अर्चना एवं व्रत करना चाहिए. बगलामुखी जयंती पर्व देश भर में हर्षोउल्लास व धूमधाम के साथ मनाया जाता है. इस अवसर पर जगह-जगह अनुष्ठान के साथ भजन संध्या एवं विश्व कल्याणार्थ महायज्ञ का आयोजन किया जाता है तथा महोत्सव के दिन शत्रु नाशिनी बगलामुखी माता का विशेष पूजन किया जाता है और रातभर भगवती जागरण होता है.

माँ बगलामुखी स्तंभन शक्ति की अधिष्ठात्री हैं अर्थात यह अपने भक्तों के भय को दूर करके शत्रुओं और उनके बुरी शक्तियों का नाश करती हैं. माँ बगलामुखी का एक नाम पीताम्बरा भी है इन्हें पीला रंग अति प्रिय है इसलिए इनके पूजन में पीले रंग की सामग्री का उपयोग सबसे ज्यादा होता है. देवी बगलामुखी का रंग स्वर्ण के समान पीला होता है अत: साधक को माता बगलामुखी की आराधना करते समय पीले वस्त्र ही धारण करना चाहिए.

देवी बगलामुखी दसमहाविद्या में आठवीं महाविद्या हैं यह स्तम्भन की देवी हैं. संपूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्ति का समावेश हैं माता बगलामुखी शत्रुनाश, वाकसिद्धि, वाद विवाद में विजय के लिए इनकी उपासना की जाती है. इनकी उपासना से शत्रुओं का नाश होता है तथा भक्त का जीवन हर  प्रकार की बाधा से मुक्त हो जाता है. बगला शब्द संस्कृत भाषा के वल्गा का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है दुलहन है अत: मां के अलौकिक सौंदर्य और स्तंभन शक्ति के कारण ही इन्हें यह नाम प्राप्त है.

बगलामुखी देवी रत्नजडित सिहासन पर विराजती होती हैं रत्नमय रथ पर आरूढ़ हो शत्रुओं का नाश करती हैं. देवी के भक्त को तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पाता, वह जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाता है पीले फूल और नारियल चढाने से देवी प्रसन्न होतीं हैं. देवी को पीली हल्दी के ढेर पर दीप-दान करें, देवी की मूर्ति पर पीला वस्त्र चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है, बगलामुखी देवी के मन्त्रों से दुखों का नाश होता है.

बगलामुखी कथा । Baglamukhi Story

देवी बगलामुखी जी के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार सतयुग में महाविनाश उत्पन्न करने वाला ब्रह्मांडीय तूफान उत्पन्न हुआ, जिससे संपूर्ण विश्व नष्ट होने लगा इससे चारों ओर हाहाकार मच जाता है और अनेकों लोक संकट में पड़ गए और संसार की रक्षा करना असंभव हो गया. यह तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, जिसे देख कर भगवान विष्णु जी चिंतित हो गए.

इस समस्या का कोई हल न पा कर वह भगवान शिव को स्मरण करने लगे तब भगवान शिव उनसे कहते हैं कि शक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई इस विनाश को रोक नहीं सकता अत: आप उनकी शरण में जाएँ, तब भगवान विष्णु ने हरिद्रा सरोवर के निकट पहुँच कर कठोर तप करते हैं. भगवान विष्णु ने तप करके महात्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न किया देवी शक्ति उनकी साधना से प्रसन्न हुई और सौराष्ट्र क्षेत्र की हरिद्रा झील में जलक्रीडा करती महापीत देवी के हृदय से दिव्य तेज उत्पन्न हुआ.

उस समय चतुर्दशी की रात्रि को देवी बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई, त्र्येलोक्य स्तम्भिनी महाविद्या भगवती बगलामुखी नें प्रसन्न हो कर विष्णु जी को इच्छित वर दिया और तब सृष्टि का विनाश रूक सका. देवी बगलामुखी को बीर रति भी कहा जाता है क्योंकि देवी स्वम ब्रह्मास्त्र रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र महारुद्र कहा जाता है इसी लिए देवी सिद्ध विद्या हैं. तांत्रिक इन्हें स्तंभन की देवी मानते हैं, गृहस्थों के लिए देवी समस्त प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं.

मां बगलामुखी पूजन | Bagalamukhi puja

माँ बगलामुखी की पूजा हेतु इस दिन प्रात: काल उठकर नित्य कर्मों में निवृत्त होकर, पीले वस्त्र धारण करने चाहिए. साधना अकेले में, मंदिर में या किसी सिद्ध पुरुष के साथ बैठकर की जानी चाहिए. पूजा करने के लुए  पूर्व दिशा की ओर मुख करके पूजा करने के लिए आसन पर बैठें चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर भगवती बगलामुखी का चित्र स्थापित करें.

इसके बाद आचमन कर हाथ धोएं। आसन पवित्रीकरण, स्वस्तिवाचन, दीप प्रज्जवलन के बाद हाथ में पीले चावल, हरिद्रा, पीले फूल और दक्षिणा लेकर संकल्प करें. इस पूजा में  ब्रह्मचर्य का पालन करना आवशयक होता है  मंत्र- सिद्ध करने की साधना में माँ बगलामुखी का पूजन यंत्र चने की दाल से बनाया जाता है और यदि हो सके तो ताम्रपत्र या चाँदी के पत्र पर इसे अंकित करें.

माँ बगलामुखी मंत्र | Bagalamukhi Mantra

श्री ब्रह्मास्त्र-विद्या बगलामुख्या नारद ऋषये नम: शिरसि।
त्रिष्टुप् छन्दसे नमो मुखे। श्री बगलामुखी दैवतायै नमो ह्रदये।
ह्रीं बीजाय नमो गुह्ये। स्वाहा शक्तये नम: पाद्यो:।
ऊँ नम: सर्वांगं श्री बगलामुखी देवता प्रसाद सिद्धयर्थ न्यासे विनियोग:।

इसके पश्चात आवाहन करना चाहिए

ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखी सर्वदृष्टानां मुखं स्तम्भिनि सकल मनोहारिणी अम्बिके इहागच्छ सन्निधि कुरू सर्वार्थ साधय साधय स्वाहा।

अब देवी का ध्यान करें इस प्रकार

सौवर्णामनसंस्थितां त्रिनयनां पीतांशुकोल्लसिनीम्
हेमावांगरूचि शशांक मुकुटां सच्चम्पकस्रग्युताम्
हस्तैर्मुद़गर पाशवज्ररसना सम्बि भ्रति भूषणै
व्याप्तांगी बगलामुखी त्रिजगतां सस्तम्भिनौ चिन्तयेत्।

मंत्र | Mantra

ऊँ ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां
वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्ववां कीलय
बुद्धि विनाशय ह्रीं ओम् स्वाहा।

माँ बगलामुखी की साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है. यह मंत्र विधा अपना कार्य करने में सक्षम हैं. मंत्र का सही विधि द्वारा जाप किया जाए तो निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होती है. बगलामुखी मंत्र के जाप से पूर्व बगलामुखी कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए. देवी बगलामुखी पूजा अर्चना सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने वाली सभी शत्रुओं का शमन करने वाली तथा मुकदमों में विजय दिलाने वाली होती है.

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रविदास जयंती 2025

भारत की मध्ययुगीन संत परंपरा में रविदास या कहें रैदास जी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है. संत रैदास जी कबीर के समसामयिक थे. संत कवि रविदास का जन्म वाराणसी के पास एक गाँव में सन 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था रविवार के दिन जन्म होने के कारण इनका नाम रविदास रखा गया. रविदास जी को रामानन्द का शिष्य माना जाता है. इस वर्ष 2025 में यह रविदास जयन्ती 12 फरवरी के दिन मनाई जाएगी.

संत रविदास का जीवन परिचय । Biography of Sant Ravidas

रैदास जी के जन्म के संबंध में उचित प्रामाणिक जानकारी मौजूद नहीं है कुछ विद्वान काशी में जन्मे रैदास का समय 1482-1527 ई. के बीच मानते हैं तो कुछ के अनुसार रैदास का जन्म काशी में 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ माना जाता है. संत कवि रविदास जी का जन्म चर्मकार कुल में हुआ था.

इनके  पिता का नाम ‘रग्घु’ और माता का नाम ‘घुरविनिया’ बताया जाता है. चर्मकार का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया. अपने कार्य को यह बहुत लगन और मेहनत से किया करते थे. उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण लोग इनसे बहुत प्रसन्न रहते थे.

संत एवं भक्त कवि रविदास । Saint and Poet Ravidas

हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल, भक्तिकाल के नाम से प्रख्यात है. इस काल में अनेक संत एवं भक्त कवि हुए जिन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अनेक कुरूतियों को समाप्त करने का प्रयास किया. इन महान संतों कवियों की श्रेणी में रैदास जी का प्रमुख स्थान रहा है उन्होंने जाति, वर्ग एवं धर्म के मध्य की दूरियों को मिटाने और उन्हें कम करने का भरसक प्रयत्न किया.

रविदास जी भक्त और साधक और कवि थे उनके पदों में प्रभु भक्ति भावना, ध्यान साधना तथा आत्म निवेदन की भावना प्रमुख रूप में देखी जा सकती है. रैदास जी ने भक्ति के मार्ग को अपनाया था सत्संग द्वारा इन्होने अपने विचारों को जनता के मध्य पहुंचाया तथा अपने ज्ञान तथा उच्च विचारों से समाज को लाभान्वित किया.

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।
जाकी अंग अंग वास समानी।।
प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा।
जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।
जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा।
जैसे सोनहि मिलत सुहागा।।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा।
ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

उपर्युक्त पद में रविदास ने अपनी कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक शक्ति तथा अपने चिन्तन को सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त करते हैं. रैदास जी के सहज-सरल भाषा में कहे गये इन उच्च भावों को समझना आम जन के लिए बहुत आसान रहा है.

उनके जीवन की घटनाओं से उनके गुणों का ज्ञान होता है. एक घटना अनुसार गंगा-स्नान के लिए रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, ‘गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य जाता परंतु मैने किसी को आज ही जूते बनाकर देने का वचन दिया है और अगर मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होता है. अत: मन सही है तो इस कठौती के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है. कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि – ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’

रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहों ने भारतीय समाज में समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है. हिन्दू और मुसलिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु रविदास जी ने अथक प्रयास किए थे और इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है. वह कहते हैं कि तीर्थ यात्राएँ न भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में वह पा सकते हो.

का मथुरा का द्वारिका का काशी हरिद्वार।
रैदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार।।

रैदास जयंती महत्व | Significance of Ravidas Jayanti

रविदास राम और कृष्ण भक्त परम्परा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई भजन बने हैं. संत रविदास जयंती देश भर में उत्साह एवं धूम धाम के साथ मनाई जाती है. इस अवसर पर शोभा यात्रा निकाली जाती है तथा शोभायात्रा में बैंड बाजों के साथ भव्य झांकियां भी देखने को मिलती हैं इसके अतिरिक्त रविदास जी के महत्व एवं उनके विचारों पर गोष्ठी और सतसंग का आयोजन भी होता है सभी लोग रविदास जी की पुण्य तिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं.

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नृसिंह जयंती 2025 । Narasimha Jayanti

वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है. भगवान श्री नृसिंह शक्ति तथा पराक्रम के प्रमुख देवता हैं, पौराणिक मान्यता एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था. इस वर्ष 2025 में यह जयन्ती 11 मई को मनाई जाएगी.

हिन्दू पंचांग के अनुसार नरसिंह जयंती का व्रत वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को किया जाता है. पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया तथा दैत्यों का अंत कर धर्म कि रक्षा की. अत: इस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के जयंती रूप में बड़े ही धूमधाम और हर्सोल्लास के साथ संपूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है.

नरसिंह जयंती कथा | Story of Narasimha Jayanti

नृसिंह अवतार भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक है. नरसिंह अवतार में भगवान विष्णु ने आधा मनुष्य व आधा शेर का शरीर धारण करके दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था. धर्म ग्रंथों में भगवान के इस अवतरण के बारे विस्तार पूर्वक विवरण प्राप्त होता है जो इस प्रकार है- प्राचीन काल में कश्यप नामक ऋषि हुए थे उनकी पत्नी का नाम दिति था. उनके दो पुत्र हुए, जिनमें से एक का नाम हरिण्याक्ष तथा दूसरे का हिरण्यकशिपु था.

हिरण्याक्ष को भगवान श्री विष्णु ने पृथ्वी की रक्षा हेतु वाराह रूप धरकर मार दिया था. अपने भाई कि मृत्यु से दुखी और क्रोधित हिरण्यकशिपु ने भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए अजेय होने का संकल्प किया. सहस्त्रों वर्षों तक उसने कठोर तप किया, उसकी तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्माजी ने उसे ‘अजेय’ होने का वरदान दिया. वरदान प्राप्त करके उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया, लोकपालों को मार भगा दिया और स्वत: सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया.

देवता निरूपाय हो गए थे वह असुर को किसी प्रकार वे पराजित नहीं कर सकते थे अहंकार से युक्त वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा. इसी दौरान हिरण्यकशिपु कि पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया एक राक्षस कुल में जन्म लेने पर भी प्रह्लाद में राक्षसों जैसे कोई भी दुर्गुण मौजूद नहीं थे तथा वह भगवान नारायण का भक्त था तथा अपने पिता के अत्याचारों का विरोध करता था.

भगवान-भक्ति से प्रह्लाद का मन हटाने और उसमें अपने जैसे दुर्गुण भरने के लिए हिरण्यकशिपु ने बहुत प्रयास किए, नीति-अनीति सभी का प्रयोग किया किंतु प्रह्लाद अपने मार्ग से विचलित न हुआ तब उसने प्रह्लाद को मारने के षड्यंत्र रचे मगर वह सभी में असफल रहा. भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद हर संकट से उबर आता और बच जाता था.

इस बातों से क्षुब्ध हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर जिन्दा ही जलाने का प्रयास किया. होलिका को वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती परंतु जब प्रल्हाद को होलिका की गोद में बिठा कर अग्नि में डाला गया तो उसमें होलिका तो जलकर राख हो गई किंतु प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ.

इस घटना को देखकर हिरण्यकशिपु क्रोध से भर गया उसकी प्रजा भी अब भगवान विष्णु को पूजने लगी, तब एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि बता, तेरा भगवान कहाँ है? इस पर प्रह्लाद ने विनम्र भाव से कहा कि प्रभु तो सर्वत्र हैं, हर जगह व्याप्त हैं. क्रोधित हिरण्यकशिपु ने कहा कि ‘क्या तेरा भगवान इस स्तम्भ (खंभे) में भी है? प्रह्लाद ने हाँ, में उत्तर दिया.

यह सुनकर क्रोधांध हिरण्यकशिपु ने खंभे पर प्रहार कर दिया तभी खंभे को चीरकर श्री नृसिंह भगवान प्रकट हो गए और हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपनी जाँघों पर रखकर उसकी छाती को नखों से फाड़ डाला और उसका वध कर दिया. श्री नृसिंह ने प्रह्लाद की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि आज के दिन जो भी मेरा व्रत करेगा वह समस्त सुखों का भागी होगा एवं पापों से मुक्त होकर परमधाम को प्राप्त होगा अत: इस कारण से दिन को नृसिंह जयंती-उत्सव के रूप में मनाया जाता है.

भगवान नृसिंह जयंती पूजा | Worship of Lord Narasimha

नृसिंह जयंती के दिन व्रत-उपवास एवं पुजा अर्चना कि जाती है इस दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए तथा भगवान नृसिंह की विधी विधान के साथ पूजा अर्चना करें. भगवान नृसिंह तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करना चाहिए तत्पश्चात वेदमंत्रों से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिभगवान नरसिंह जी की पूजा के लिए फल, पुष्प, पंचमेवा, कुमकुम केसर, नारियल, अक्षत व पीताम्बर रखें. गंगाजल, काले तिल, पञ्च गव्य, व हवन सामग्री का पूजन में उपयोग करें.

भगवान नरसिंह को प्रसन्न करने के लिए उनके नरसिंह गायत्री मंत्र का जाप करें. पूजा पश्चात एकांत में कुश के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से इस नृसिंह भगवान जी के मंत्र का जप करना चाहिए. इस दिन व्रती को सामर्थ्य अनुसार तिल, स्वर्ण तथा वस्त्रादि का दान देना चाहिए. इस व्रत करने वाला व्यक्ति लौकिक दुःखों से मुक्त हो जाता है भगवान नृसिंह अपने भक्त की रक्षा करते हैं व उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं.

नरसिंह मंत्र । Narasimha Mantra

ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् I
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्यु मृत्युं नमाम्यहम् II
ॐ नृम नृम नृम नर सिंहाय नमः ।

इन मंत्रों का जाप करने से समस्त दुखों का निवारण होता है तथा भगवान नृसिंह की कृपा प्राप्त होती है.

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महावीर जयंती | Mahavir Jayanti | Mahavir Jayanti 2025

वर्धमान महावीर का जन्मदिन महावीर जयन्ती के रुप मे मनाया जाता है. महावीर जयंती 10 अप्रैल 2025, के दिन मनाई जाएगी.  वर्धमान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान श्री आदिनाथ की परंपरा में चौबीस वें तीर्थंकर हुए थे. इनका जीवन काल पांच सौ ग्यारह से पांच सौ सत्ताईस ईस्वी ईसा पूर्व तक माना जाता है. वर्धमान महावीर का जन्म एक क्षत्रिय राजकुमार के रूप में एक राज परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम राजा सिद्धार्थ एवं माता का नाम प्रियकारिणी था. उनका जन्म प्राचीन भारत के वैशाली राज्य में  हुआ था.

तीस वर्ष की उम्र में इन्होंने घर-बार छोड़ दिया और कठोर तपस्या द्वारा कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया. महावीर ने पार्श्वनाथ के आरंभ किए तत्वज्ञान को परिभाषित करके जैन दर्शन को स्थायी आधार दिया. महावीर स्वामी जी ने श्रद्धा एवं विश्वास द्वारा जैन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा स्थापित की तथा आधुनिक काल में जैन धर्म की व्यापकता और उसके दर्शन का श्रेय महावीर स्वामी जी को जाता है इन्हें अनेक नामों से पुकारा जाता हैं- अर्हत, जिन, निर्ग्रथ, महावीर, अतिवीर इत्यादि .

महावीर जीवन परिचय | Mahavira Biography

भगवान महवीर का जन्म वैशाली के एक क्षत्रिय परिवार में राजकुमार के रुप में चैत्र शुक्लपक्ष त्रयोदशी को बसोकुंड में हुआ था. इनके बचपन का नाम वर्धमान था यह लिच्छवी कुल के राजा सिद्दार्थ और रानी त्रिशला के पुत्र थे. संसार को ज्ञान का संदेश देने वाले भगवान महावीर जी ने अपने कार्यों सभी का कल्याण करते रहे.

जैन श्रद्धालु इस पावन दिवस को महावीर जयन्ती के रूप में परंपरागत तरीके से हर्षोल्लास और श्रद्धाभक्ति पूर्वक मनाते आ रहे हैं. जैन धर्म के धर्मियों का मानना है कि वर्धमान जी ने घोर तपस्या द्वारा अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी जिस कारण वह विजेता और उनको महावीर कहा गया और उनके अनुयायी जैन कहलाए.

महावीर जयंती पर्व | Mahavir Jayanti Festival

तप से जीवन पर विजय प्राप्त करने का पर्व महावीर जयंती के रूप में मनया जाता है. श्रद्धालु मंदिरों में भगवान महावीर की मूर्ति को विशेष स्नान कराते हैं, जो कि अभिषेक कहलाता है. तदुपरांत भगवान की मूर्ति को सिंहासन या रथ पर बिठा कर उत्साह और हर्षोउल्लास पूर्वक जुलूस निकालते हैं, जिसमें बड़ी संख्यां में जैन धर्मावलम्बी शामिल होते हैं. इस सुअवसर पर जैन श्रद्धालु भगवान को फल, चावल, जल, सुगन्धित द्रव्य आदि वस्तुएं अर्पित करते.

चौबीस ‍तीर्थंकरों के अंतिम तीर्थंकर महावीर के जन्मदिवस प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को मनाया जाता है.  महावीर जयंती के अवसर पर जैन धर्मावलंबी प्रात: काल प्रभातफेरी निकालते हैं तथा भव्य जुलूस के साथ पालकी यात्रा का आयोजन किया जाता है. इसके पश्चात महावीर स्वामी का अभिषेक किया जाता है तथा शिखरों पर ध्वजा चढ़ाई जाती है. जैन समाज द्वारा दिन भर अनेक धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है महावीर का जन्मोत्सव संपूर्ण भारत में धूमधाम से मनाया जाता है.

वर्धमान महावीर जी को 42 वर्ष की अवस्था में जूभिका नामक गांव में ऋजूकूला नदी के किनारे घोर त्पस्या करते हुए जब बहुत समय व्यतीत हुआ तब उन्हें मनोहर वन में साल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी की पावन तिथि के दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई जिसके पश्चात वह महावीर स्वामी बने.

महावीर जी के समय समाज व धर्म की स्थिति में अनेक विषमताएं मौजूद थी धर्म अनेक आडंबरों से घिरा हुआ था और समाज में अत्याचारों का बोलबाल था अत: ऐसी स्थिति में भगवान महावीर जी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया उन्होंने देश भर में भर्मण करके लोगों के मध्य व्याप्त कुरूतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करने का प्रयास किया उन्होंने धर्म की वास्तविकता को स्थापित किया सत्य एवं अहिंसा पर बल दिया.

महावीर जी के उपदेश | Mahavira’s Teachings

महावीर जी ने अपने उपदेशों द्वारा समाज का कल्याण किया उनकी शिक्षाओं में मुख्य बाते थी कि सत्य का पालन करो, अहिंसा को अपनाओ, जिओ और जीने दो. इसके अतिरिक्त उन्होंने  पांच महाव्रत, पांच अणुव्रत, पांच समिति, तथा छ: आवश्यक नियमों का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया. जो जैन धर्म के प्रमुख आधार हुए और पावापुर में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को महावीर जी ने देह त्याग करके निर्वाण प्राप्त किया.

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गुरू नानक जयंती | Guru Nanak Jayanti | Guru Nanak Jayanti 2025

गुरू नानक देव जी के जन्म दिवस को गुरू नानक जयंती के रूप में मनाया जाता है. गुरू नानक देव सिखों के प्रथम गुरू थे. इनका जन्म तलवंडी रायभोय (ननकाना साहब) नामक स्थान पर हुआ था.  इनके जन्म दिवस को प्रकाश उत्सव (प्रकाशोत्सव ) भी कहते हैं, जो कार्तिक पूर्णिमा के शुभ दिन मनाया जाता है. कार्तिक पूर्णिमा को सिख श्रद्धालु गुरु नानक जी के प्रकटोत्सव के रूप में धूम-धाम से मनाते हैं. गुरु नानकदेव एक समन्वयवादी संत थे. गुरु ग्रंथ साहब में सभी संतों एवं धर्मो की उक्तियों को सम्मिलित कर उन्होंने  समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया. वह आजीवन परोपकार एवं दीन-दुखियों की सेवा में लगे रहे.

जीवन परिचय | Biography

गुरु नानकदेवजी का प्रकाश ऐसे समय में हुआ था जब देश इतिहास के सबसे अँधेरे युगों में था. उस समय अंधविश्वास एवं आडंबरों का बोलबाला था और धार्मिक कट्टरता तेजी से बढ़ रही थी. श्री गुरु नानकदेव संत, कवि और महान समाज सुधारक थे. नानक देवजी के पिता बाबा कालूचंद्र बेदी और माता तृप्ता जी थी. बचपन से ही नानक जी का मन आध्यात्मिक भावों से जुडा़ रहता था. पंडित और मौलवी सभी नानकदेवजी की विद्वता से प्रभावित हुए बिना न रह सके. पत्नी  सुखमणि (सुलक्षणा) से उन्हे दो पुत्र भी हुए थे, परंतु उनका मन गृहस्थी में कभी नहीं लगा और वह मानव सेवा में लगे रहे.

ईश्वर एक है. सदैव उसकी उपासना करो, वह सब जगह और सभी में मौजूद है, उस ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं होता, मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके जरूरतमंद को भी कुछ दो, सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं,

लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है, जैसी शिक्षाओं को उन्होंने सभी के मध्य पहुँचाने का प्रयास किया. जीवनभर धार्मिक यात्राओं के माध्यम से लोगों को मानवता का उपदेश देते रहे और 70 वर्ष की साधना के पश्चात सन्‌ 1539 ई. में परम ज्योति में विलीन हो गए.

गुरू नानक जी के विचार सिद्धांत | Consider the Principle of Guru Nanak

गुरूनानक देव जी के उपदेश एवं शिक्षाएं आज भी उनके अनु‍यायियों के लिए जीवन का आधार हैं. उनके दिए गए सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं. उन्होंने लोगों को समझाया कि सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं. ईश्वर सभी का है.

अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे एक नूर तेसब जग उपज्या, कौन भले को मंदे.  एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंचे-नीचे कैसे हो सकते है. पाँच सौ वर्षों पूर्व दिए उनके उपदेशों का प्रकाश आज भी मानवता को आलोकित कर रहा है. नानक देव जी सिख धर्म के संस्थापक रहे, मानव धर्म के उत्थापक तथा सिखों के आदि गुरु थे. नानकदेव जी ने अपनी शिक्षा से लोगों में एकता और प्रेम को बढ़ावा दिया.

गुरू नानक जयंती महत्व | Importance of Guru Nanak Jayanti

गुरु नानक जयंती बहुत श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाई जाती है. गुरु पर्व के अवसर पर  सभी तरफ महोत्सव जैसा माहौल बना रहता है.  गुरुद्वारों में विशेष आयोजन होता है, पूजा-अर्चना की जाती है. जलूस एवं शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं. इस जुलूस में हाथी, घोड़ों आदि के साथ नानकदेव के जीवन से संबंधित सुसज्जित झांकियां बैंड-बाजों के साथ निकाली जाती हैं.  गुरुद्वारों में भजन, कीर्तन, सत्संग, प्रवचन के साथ-साथ लंगर का आयोजन होता है जिसमें बड़ी संख्या में लोग भाग लेते हैं.

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वाराह अवतार | Varaha Avatar | Varaha Jayanti 2025 | Varaha Jayanti Festival

वाराह अवतार भगवान विष्णु का ही एक अवतार है. भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया में वराह जयंती मनाई जाती है. भगवान के इस अवतार में श्री हरि पापियों का अंत करके धर्म की रक्षा करते हैं. वाराह अवतार जयंती भगवान के इसी अवतरण को प्रकट करती है इस जयंती के अवसर पर भक्त लोग भगवान का भजन किर्तन व उपवास एवं व्रत इत्यादि का पालन करते हैं. इस वर्ष वाराह जयंती 26  अगस्त  2025 के दिन मनाई जाएगी.

जगत के कल्याण हेतु जो लीलाधारी भगवान अनेकानेक अवतार लेते हैं. वराह भगवान का यह व्रत सुख, सम्पत्ति दायक एवं कल्याणकारी है. जो श्रद्धालु भक्त वराह भगवान के नाम से माघ शुक्ल द्वादशी के दिन व्रत रखते हैं उनके सोये हुए भाग्य जागृत होते हैं.

वराह जयंती कथा | Varaha Jayanti Katha

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां बच्चों रूप में जन्म लिया, इनके जन्म से पृथ्वी कांप उठी, आकाश में नक्षत्र एवं लोक डोलने लगे, समुद्र में भयंकर लहरें उठने लगीं ऐसा ज्ञात हुआ, मानो जैसे प्रलय का आगमन हो गया हो. इतना भयान का इन दोनों का जन्म लेना.

यह दोनों दैत्य जन्म उपरांत ही बड़े हो गए.  इनका शरीर वज्र के समान कठोर और विशाल हो गया, दोनों बलवान थे, और संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे इसलिए हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया इनकी तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने इन्हें दर्शन दिए वरदान मांगने को कहा, दोनों भाइयों ने यह वर मांगा कि हे प्रभु कोई भी युद्ध में हमें पराजित न कर सके और न कोई मार सके. ब्रह्माजी ने उन्हें यही वरदान देकर अपने लोक चले जाते हैं. ब्रह्मा जी से वरदान पाकर हिरण्याक्ष और भी अधिक उद्दंड और निरंकुश बन गया, तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए अनेक अत्याचार करने लगा और

तीनों लोकों को जीतने निकल पडा़ वह इन्द्रलोक में पहुंचा देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार हो गया इसके बाद दैत्य हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में पहुंचा और वरुण देव को युद्ध के लिए ललकारा, हिरण्याक्ष के वचन सुनकर वरुण देव क्रोद्धित हुए परंतु अपने क्रोद्ध को हृदय में दबाकर शांत भाव मुस्कुराते हुए बोले कि हो सकता है की तुम महान योद्धा और शूरवीर हो

परंतु श्री विष्णु से अधिक नहीं तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो महान हो अतः उन्हीं के पास जाओ वही तुम्हारे साथ युद्ध कर सकते हैं और तुम्हें पराजित करेंगे. वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष अत्यधिक क्रोद्धित होकर भगवान विष्णु की खोज में निकल पड़ता है, देवर्षि नारद से उसे ज्ञात होता है कि भगवान विष्णु इस समय वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिये गये हैं. तब हिरण्याक्ष समुद्र के नीचे रसातल में जा पहुँचा. वहाँ उसने देखा कि वाराह अपने दांतों पर पृथ्वी को उठाते हुए जा रहा है. दैत्य,  वाराह को असभ्य भाषा मे अभद्र वचन कहते हुए पृ्थ्वी को ले जाने से रोकता है

हिरण्याक्ष की कटु वाणी को अनसुना करते हुए भगवान विष्णु शांत हो वराह के रूप में दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहते हैं. दैत्य भगवान वराह का पीछे नहीं छोड़ता वह उन्हें निर्लज्ज, कायर, पशु, अधम पापी कहता है किंतु भगवान वाराह पृथ्वी को रसातल से बाहर निकलकर समुद्र के ऊपर स्थापित कर देते हैं.

वाराह पर अपनी बातों का असर न होता देख हिरण्याक्ष हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर प्रहार करता है तब भगवान हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर उसे दूर फेंक देते हैं वह त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु को मारने का प्रयास करता है लेकिन शीघ्र ही भगवान वाराह सुदर्शन चक्र द्वारा हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं भगवान वाराह और हिरण्याक्ष मे मध्य भयंकर युद्ध होता है और अन्त में भगवान वाराह के हाथों से हिरण्याक्ष का वध होता है.

वाराह जयंती (द्वादशी) व्रत विधान | Rituals to observe fast of Varaha Jayanti

जो भगवत् भक्त वराह जयंती का व्रत रखते हैं उन्हें जयंती तिथि को संकल्प करके एक कलश में भगवान वराह की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. भगवान की स्थापना करने के पश्चात विधि विधान सहित षोडषोपचार से भगवान वराह की पूजा करनी चाहिए. पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में जगारण करके भगवान विष्णु के अवतारों की कथा कहनी और सुननी चाहिए. त्रयोदशी के दिन कलश मे स्थित वराह भगवान की पूजा करने के बाद, विसर्जन करना चाहिए. विसर्जन के पश्चात प्रतिमा को ब्राह्मण या आचार्य को दान देना चाहिए.

वराह मंत्र | Varaha Mantra

ॐ वराहाय नमः
ॐ सूकराय नमः
ॐ  धृतसूकररूपकेशवाय नमः

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