योगिनी एकादशी उपाय : जानें इस दिन किए जाने वाले राशि उपायों का प्रभाव

हिंदू धर्म में एकादशी व्रतों का विशेष महत्व है, और योगिनी एकादशी उनमें से एक अत्यंत पुण्यदायिनी एकादशी मानी जाती है. यह व्रत आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को आता है. योगिनी एकादशी का नाम सुनते ही मन में यह भाव आता है कि यह दिन योग और साधना से जुड़ा है, और सच भी यही है. यह व्रत न केवल व्यक्ति के पापों का क्षय करता है, बल्कि जीवन में आध्यात्मिक और मानसिक शुद्धि का मार्ग भी प्रशस्त करता है. इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है और उपवास रखा जाता है.

पुराणों के अनुसार, इस व्रत को करने से मनुष्य को रोग, कष्ट, और दरिद्रता से मुक्ति मिलती है. खासकर वे लोग जो अपने जीवन में मानसिक तनाव, पारिवारिक कलह, व्यवसाय में अड़चन या बार-बार असफलता जैसी समस्याओं से ग्रसित हैं, उनके लिए यह व्रत अत्यंत लाभकारी माना गया है. योगिनी एकादशी का व्रत आत्म-संयम, तप और ध्यान का प्रतीक है. इस दिन उपवास करने से मन और आत्मा की शुद्धि होती है, और व्यक्ति ईश्वर के अधिक निकट पहुंचता है.

व्रत की विधि बहुत सरल है लेकिन नियमों से बंधी हुई है. दशमी की रात से ही संयमित आहार लेना आरंभ कर दिया जाता है और एकादशी को उपवास रखा जाता है. व्रती को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, तथा दिनभर भगवान विष्णु की पूजा, भजन, और नामस्मरण करना चाहिए. रात्रि को जागरण कर भगवान का कीर्तन करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है. अगले दिन द्वादशी को व्रत का पारण करने से व्रत की पूर्णता होती है.

अब बात करते हैं कि इस विशेष दिन पर अलग-अलग राशियों के जातकों को कौन-से उपाय करने चाहिए जो उनके जीवन में सुख, समृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करें.

राशियों के अनुसार योगिनी एकादशी के प्रभावशाली उपाय

इस दिन ग्रहों की स्थिति बहुत विशेष मानी जाती है और राशियों पर उसका विशेष प्रभाव पड़ता है. यदि व्यक्ति अपनी राशि के अनुसार उपाय करे तो वह अनेक प्रकार की समस्याओं से मुक्त हो सकता है. उपायों में तुलसी, विष्णु भगवान, दान, मंत्रजप, और ध्यान को विशेष महत्व दिया गया है.

सिंह राशि मेष राशि के लिए उपाय 

मेष राशि के लोगों के लिए यह एक ऐसा दिन होता है जब उन्हें अपने क्रोध और अधीरता पर नियंत्रण करना चाहिए. इस दिन उन्हें भगवान विष्णु को केसर मिश्रित दूध से स्नान कराना चाहिए और संकल्प लेकर पूरे दिन ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करना चाहिए. इससे उनका मन शांत होता है और जीवन में स्थिरता आती है.

वृषभ राशि के लिए उपाय

वृषभ राशि के जातकों को इस दिन श्रीहरि को पीले फूल अर्पित करने चाहिए और पीले वस्त्र धारण कर विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए. इससे धन संबंधित समस्याएं दूर होती हैं और आर्थिक उन्नति का मार्ग खुलता है.

मिथुन राशि के लिए उपाय

मिथुन राशि के लोगों को मानसिक रूप से बहुत अधिक तनाव होता है. योगिनी एकादशी के दिन उन्हें तुलसी दल के साथ घी और मिश्री का भोग लगाना चाहिए और दिनभर भगवान विष्णु के सामने बैठकर दीपक जलाते रहना चाहिए. इससे उन्हें मानसिक शांति मिलती है और पारिवारिक जीवन में सामंजस्य आता है.

कर्क राशि के लिए उपाय

कर्क राशि के जातकों को जल तत्व से संबंधित परेशानियां अधिक होती हैं. ऐसे में इस दिन वे पवित्र जल में गंगाजल मिलाकर स्नान करें और जल से विष्णु भगवान को अभिषेक करें. इस दिन यदि वे चावल, दूध और दही का दान करें तो रोगों से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य लाभ होता है.

सिंह राशि के लिए उपाय

सिंह राशि वाले जातक शक्ति और प्रतिष्ठा के लिए प्रयासरत रहते हैं. इस दिन वे गीता का पाठ करें और दीपक में सरसों का तेल जलाकर विष्णु भगवान के चरणों में रखें. साथ ही जरूरतमंदों को तांबे के बर्तन में जल दान करें. इससे मान-सम्मान बढ़ता है और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है.

कन्या राशि के लिए उपाय 

कन्या राशि के लोग स्वभाव से विश्लेषणात्मक होते हैं, परंतु कई बार अतिविचार से पीड़ित रहते हैं. इस दिन वे हरे रंग के वस्त्र पहनें और तुलसी के पौधे के चारों ओर 11 बार परिक्रमा करें. भगवान विष्णु को केले का भोग अर्पित करें और माता लक्ष्मी से सुख-शांति की प्रार्थना करें. इससे वैवाहिक जीवन और नौकरी में संतुलन आता है.

तुला राशि के लिए उपाय

तुला राशि के जातकों को संतुलन और सौंदर्य प्रिय होता है, परंतु संबंधों में खींचतान रहती है. इस दिन वे अपने पुराने दोषों की क्षमा माँगते हुए विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें और जरूरतमंदों को सफेद वस्त्र और मिठाई का दान करें. इससे उनके संबंध सुधरते हैं और मानसिक तनाव दूर होता है.

वृश्चिक राशि के लिए उपाय

वृश्चिक राशि वाले जातकों में संघर्ष और साहस होता है लेकिन वे अक्सर मानसिक रूप से अशांत रहते हैं. इस दिन उन्हें गंगाजल से स्नान कर काले तिल और गुड़ का दान करना चाहिए. विष्णु भगवान को पंचामृत से स्नान कराने से सभी प्रकार की बाधाएं दूर होती हैं.

धनु राशि के लिए उपाय

धनु राशि के लोग आध्यात्मिक और धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं. योगिनी एकादशी के दिन वे पीले फल, पीले वस्त्र, और चने की दाल का दान करें. गीता का पाठ करें और अगर संभव हो तो किसी तीर्थस्थल पर स्नान करें. इससे उनका भाग्य जाग्रत होता है और लंबी यात्राएं सफल होती हैं.

मकर राशि के लिए उपाय

मकर राशि के जातकों को अपने जीवन में स्थायित्व चाहिए होता है. इस दिन वे नीम के पत्ते और तुलसी के साथ भगवान विष्णु की पूजा करें, और ‘ॐ नमो नारायणाय’ मंत्र का जाप करें. इस दिन अगर वे लोहे की वस्तु का दान करें तो शनि की पीड़ा भी शांत होती है.

कुंभ राशि के लिए उपाय

कुंभ राशि के जातकों को मानसिक स्वतंत्रता चाहिए होती है, परंतु वे कई बार निर्णय लेने में संकोच करते हैं. योगिनी एकादशी को वे सफेद वस्त्र पहनकर किसी मंदिर में जाकर झाड़ू दान करें और जरूरतमंदों को दूध पिलाएं. इससे चंद्र और शुक्र के दोष शांत होते हैं और निर्णय क्षमता बढ़ती है.

मीन राशि के लिए उपाय 

मीन राशि के जातक कोमल हृदय वाले होते हैं और आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक रहते हैं. इस दिन उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करना चाहिए और चंदन से भगवान विष्णु का पूजन कर मंदिर में जल अर्पित करना चाहिए. इस दिन वे तुलसी की माला से ‘ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्’ का जाप करें, जिससे उन्हें दिव्य ऊर्जा की प्राप्ति होती है.

योगिनी एकादशी केवल एक व्रत नहीं बल्कि आत्म-चेतना, पवित्रता और आध्यात्मिक जागरण का अवसर है. यदि इस दिन श्रद्धा और नियमपूर्वक व्रत किया जाए तथा राशिनुसार उपाय किए जाएं तो जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान सहज ही संभव हो सकता है. यह दिन आत्मशुद्धि, भक्ति, और विश्राम का प्रतीक है जो व्यक्ति को न केवल इस जन्म में सुख प्रदान करता है बल्कि आने वाले जन्मों के लिए भी मोक्ष का मार्ग खोलता है. इस एकादशी का पालन करना, ईश्वर से जुड़ने का एक सशक्त साधन है.

Posted in Ekadashi, Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals | Leave a comment

श्री नारायण कवच : जानें नारायण कवच पाठ का लाभ और प्रभाव

नारायण कवच पाठ एक शक्तिशाली वैदिक स्तोत्र है, जो “विष्णु पुराण” और “भगवतम पुराण” में वर्णित है. यह श्री विष्णु भगवान के विभिन्न रूपों और नामों का आवाहन करता है, जो साधक की रक्षा के लिए कवच के रूप में कार्य करते हैं. यह पाठ मुख्य रूप से श्री नारायण के दिव्य रूपों का स्मरण करके स्वयं की सुरक्षा, स्वास्थ्य, मानसिक शांति, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए किया जाता है.

यह पाठ एक अदृश्य रक्षा कवच की तरह कार्य करता है, जो साधक को नकारात्मक शक्तियों, बुरी नजर, तंत्र-मंत्र, और बुरे स्वप्नों से बचाता है. जिन लोगों को भय, चिंता, या असुरक्षा की भावना सताती है, उन्हें इसका नित्य पाठ अवश्य करना चाहिए. जब व्यक्ति नारायण कवच का नियमित पाठ करता है, तो उसे मानसिक शांति का अनुभव होता है. इसका उच्चारण चित्त को स्थिर करता है और ध्यान की स्थिति को सशक्त बनाता है. नारायण कवच का पाठ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है और रोगों से बचाव करता है. विशेषकर मानसिक रोग, भय, और अनिद्रा जैसे विकारों में यह बहुत लाभकारी है.

व्यक्ति जीवन में कठिनाइयों, शत्रुओं, कानूनी समस्याओं या किसी अनिष्ट के भय से ग्रस्त है, तो नारायण कवच एक रक्षा कवच बनकर उन्हें संकट से उबार सकता है. इसे संकट काल में विशेष रूप से किया जाना चाहिए. यह पाठ न केवल सांसारिक लाभ देता है बल्कि साधक की आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है. नारायण के विभिन्न स्वरूपों का ध्यान साधक के भीतर भक्ति, श्रद्धा और आध्यात्मिक शक्ति का संचार करता है.

नारायण कवच के प्रभाव

इसका पाठ करते समय उच्चारण से सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है जिससे साधक का आभामंडल शक्तिशाली बनता है. जिन घरों में नकारात्मकता या वास्तु दोष होते हैं वहां अगर नियमित रूप से नारायण कवच का पाठ किया जाए, तो घर का वातावरण पवित्र और शांत हो जाता है. माता-पिता अपने बच्चों की सुरक्षा हेतु यह पाठ करते हैं तो इसका सकारात्मक प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है.

नारायण कवच पाठ केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक कवच है, जो व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक, और आत्मिक रूप से सशक्त बनाता है. इसका नित्य अभ्यास साधक को नकारात्मकता से दूर रखता है और ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव कराता है. श्रद्धा, नियम, और शुद्ध हृदय से किया गया नारायण कवच पाठ जीवन में चमत्कारी परिवर्तन ला सकता है.

श्री नारायण कवच भगवद पुराण के छठे स्कंद के अध्याय आठ में आता है. श्री नारायण कवच एक संक्षिप्त स्तोत्र है जिसमें केवल 42 श्लोक हैं. श्री नारायण कवच का पाठ करने से असफलता दूर होती है तथा इस श्री नारायण कवच का पाठ करने से विपत्तियों सेछुटकारा मिल जाता है. इसका जाप करने से सारे दुःख दर्द खत्म हो जाते हैं. यह देखा और अनदेखी हमारे दुश्मनों से खुद को बचाने केलिए एक कवच है.

नारायणकवचम्

ॐ श्रीगणेशाय नमः ।

ॐ नमो नारायणाय ।

अङ्गन्यासः

ॐ ॐ नमः पादयोः ।

ॐ नं नमः जानुनोः ।

ॐ मों नमः ऊर्वोः ।

ॐ नां नमः उदरे ।

ॐ रां नमः हृदि ।

ॐ यं नमः उरसि ।

ॐ णां नमः मुखे ।

ॐ यं नमः शिरसि ॥

करन्यासः

ॐ ॐ नमः दक्षिणतर्जन्याम् ।

ॐ नं नमः दक्षिणमध्यमायाम् ।

ॐ मों नमः दक्षिणानामिकायाम् ।

ॐ भं नमः दक्षिणकनिष्ठिकायाम् ।

ॐ गं नमः वामकनिष्ठिकायाम् ।

ॐ वं नमः वामानामिकायाम् ।

ॐ तें नमः वाममध्यमायाम् ।

ॐ वां नमः वामतर्जन्याम् ।

ॐ सुं नमः दक्षिणांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि ।

ॐ दें नमः दक्षिणांगुष्ठाय पर्वणि ।

ॐ वां नमः वामांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि ।

ॐ यं नमः वामांगुष्ठाय पर्वणि ॥

विष्णुषडक्षरन्यासः

ॐ ॐ नमः हृदये ।

ॐ विं नमः मूर्धनि ।

ॐ षं नमः भ्रुवोर्मध्ये ।

ॐ णं नमः शिखायाम् ।

ॐ वें नमः नेत्रयोः ।

ॐ नं नमः सर्वसन्धिषु ।

ॐ मः अस्त्राय फट् प्राच्याम् ।

ॐ मः अस्त्राय फट् आग्नेयाम् ।

ॐ मः अस्त्राय फट् दक्षिणस्याम् ।

ॐ मः अस्त्राय फट् नैरृत्ये ।

ॐ मः अस्त्राय फट् प्रतीच्याम् ।

ॐ मः अस्त्राय फट् वायव्ये ।

ॐ मः अस्त्राय फट् उदीच्याम् ।

ॐ मः अस्त्राय फट् ऐशान्याम् ।

ॐ मः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वायाम् ।

ॐ मः अस्त्राय फट् अधरायाम् ॥

अथ श्रीनारायणकवचम् ।

राजोवाच ।

यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान् ।

क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ॥ १॥

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम् ।

यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे ॥ २॥

श्रीशुक उवाच ।

वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते ।

नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ॥ ३॥

विश्वरूप उवाच ।

धौताण्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदण्मुखः ।

कृतस्वाण्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ॥ ४॥

नारायणमयं वर्म सन्नह्येद्भय आगते ।

पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ॥ ५॥

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत् ।

ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ॥ ६॥

करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया ।

प्रणवादियकारान्तमण्गुल्यण्गुष्ठपर्वसु ॥ ७॥

न्यसेद्धृदय ॐकारं विकारमनु मूर्धनि ।

षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् ॥ ८॥

वेकारं नेत्रयोर्युJण्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु ।

मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः ॥ ९॥

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् ।

ॐ विष्णवे नम इति ॥ १०॥

आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम् ।

विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ॥ ११॥

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां

न्यस्ताण्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे ।

दरारिचर्मासिगदेषुचाप-

पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ॥ १२॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-

र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात् ।

स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्

त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ॥ १३॥

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः

पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः ।

विमुJण्चतो यस्य महाट्टहासं

दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥ १४॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः

स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः ।

रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे

सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान् ॥ १५॥

मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादा-

न्नारायणः पातु नरश्च हासात् ।

दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः

पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥ १६॥

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-

द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् ।

देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्

कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ॥ १७॥

धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्या-

द्द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा ।

यज्ञश्च लोकादवताJण्जनान्ता-

द्बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः ॥ १८॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधा-

द्बुद्धस्तु पाखण्डगणप्रमादात् ।

कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु

धर्मावनायोरुकृतावतारः ॥ १९॥

मां केशवो गदया प्रातरव्या-

द्गोविन्द आसण्गवमात्तवेणुः ।

नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-

र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥ २०॥

देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा

सायं त्रिधामावतु माधवो माम् ।

दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे

निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ॥ २१॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः

प्रत्युष ईशोऽसिधरो जनार्दनः ।

दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते

विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥ २२॥

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि

भ्रमत्समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम् ।

दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु

कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥ २३॥

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिण्गे

निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि ।

कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-

भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥ २४॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ-

पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् ।

दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो

भीमस्वनोऽरेहृ।र्दयानि कम्पयन् ॥ २५॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य-

मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।

चक्षूंषि चर्मJण्छतचन्द्र छादय

द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥ २६॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च ।

सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य वा ॥ २७ ॥

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् ।

प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपकाः ॥ २८॥

गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः ।

रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥ २९ ॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः ।

बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान्पान्तु पार्षदभूषणाः ॥ ३०॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् ।

सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ॥ ३१॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् ।

भूषणायुधलिण्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥ ३२॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः ।

पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥ ३३॥

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता-

दन्तर्बहिर्भगवान्नारसिंहः ।

प्रहापयं।cलोकभयं स्वनेन

स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥ ३४॥

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम् ।

विजेष्यस्यJण्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ॥ ३५॥

एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा ।

पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसात्स विमुच्यते ॥ ३६॥

न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् ।

राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ॥ ३७॥

इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन् द्विजः ।

योगधारणया स्वाण्गं जहौ स मरुधन्वनि ॥ ३८॥

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा ।

ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ॥ ३९ ॥

गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्षिराः ।

स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ।

प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ॥ ४०॥

श्रीशुक उवाच ।

य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः ।

तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ॥ ४१॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः ।

त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ॥ ४२॥

॥ इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥

Posted in Hindu Gods, Hindu Rituals, Mantra, Puja and Rituals, Remedies, Stotra | Tagged , , , | Leave a comment

आषाढ़ माह की कालाष्टमी जानें पूजा विधि और महत्व

आषाढ़ माह की कालाष्टमी

भारतीय संस्कृति में व्रत और त्योहारों का विशेष महत्व है. इन्हीं धार्मिक अनुष्ठानों में से एक है कालाष्टमी व्रत, जो भगवान भैरव की पूजा के लिए समर्पित है. कालाष्टमी हर माह कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को आती है, लेकिन आषाढ़ माह की कालाष्टमी का विशेष महत्व माना जाता है क्योंकि यह वर्षा ऋतु की शुरुआत का प्रतीक होती है और इसे तांत्रिक साधनाओं के लिए भी अत्यंत शुभ माना जाता है.

कालाष्टमी का व्रत न केवल भगवान काल भैरव की कृपा प्राप्त करने का माध्यम है, बल्कि नकारात्मक शक्तियों से रक्षा, भयमुक्त जीवन, स्वास्थ्य और समृद्धि की प्राप्ति हेतु भी किया जाता है. यहां हम आषाढ़ माह की कालाष्टमी पूजा की सम्पूर्ण जानकारी, महत्व, पूजा विधि, कथा और नियमों के बारे में जानेंगे.

काल भैरव कौन हैं

काल भैरव भगवान शिव के रौद्र रूप माने जाते हैं. उन्हें “भय का नाश करने वाला” कहा जाता है. शास्त्रों के अनुसार, जब ब्रह्मा जी ने अहंकारवश शिव का अपमान किया, तब शिव के क्रोध से काल भैरव का प्राकट्य हुआ जिन्होंने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था. इस कारण उन्हें ‘ब्रह्महत्या दोष’ से मुक्ति पाने के लिए काशी में वास करना पड़ा. आज भी काशी में काल भैरव का मंदिर विशेष प्रसिद्ध है.

आषाढ़ माह की कालाष्टमी का विशेष महत्व

आषाढ़ का महीना हिंदू पंचांग के अनुसार चौथा महीना होता है, जो ज्येष्ठ के बाद आता है. यह माह वर्षा ऋतु का आरंभ करता है और यह समय अध्यात्म व साधना के लिए अत्यंत उपयुक्त माना जाता है. इस माह की कालाष्टमी में की गई पूजा का फल कई गुना बढ़ जाता है. विशेष रूप से जो लोग जीवन में भय, आर्थिक संकट, रोग या कोर्ट-कचहरी के मामलों से जूझ रहे होते हैं, उनके लिए यह व्रत अत्यंत लाभकारी माना गया है.

कालाष्टमी की पूजा विधि

पूजा की तैयारी के लिए सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लेना चाहिए. शुद्ध वस्त्र धारण करें और पूजा स्थान को साफ सुथरा करें. एक चौकी पर लाल या काले कपड़े को बिछाकर उस पर काल भैरव की मूर्ति या चित्र स्थापित करें.

पूजा सामग्री के लिए फूल, धूप-दीप, सरसों का तेल, काला तिल, भोग खीर, हलवा, पूड़ी आदि अर्पित करें. पूजा समय भगवान भैरव का ध्यान कर निम्न मंत्र का उच्चारण करें “ॐ कालभैरवाय नमः” भैरव जी को तिल, तेल और काले फूल अर्पित करें. दीपक में सरसों का तेल भरकर भैरव जी के सामने जलाएं. भैरव चालीसा और कालभैरव अष्टक का पाठ करें. रात्रि के समय भैरव जी की विशेष आरती की जाती है. कालाष्टमी की रात को जागरण करना अत्यंत पुण्यदायी माना गया है. इसमें भैरव भजन, मंत्रजाप, कथा और ध्यान किया जाता है.

व्रत के नियम

व्रती को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए. व्रत के दिन मांस-मदिरा का सेवन वर्जित होता है. दिनभर फलाहार पर रहकर शाम को भगवान भैरव की पूजा करें. इस दिन कुत्तों को भोजन कराना शुभ माना जाता है, क्योंकि कुत्ता काल भैरव का वाहन है. मानसिक और शारीरिक शुद्धता बनाए रखना आवश्यक होता है. भारत में कई ऐसे स्थल हैं जो काल भैरव की पूजा के लिए प्रसिद्ध हैं, विशेष रूप से कालाष्टमी के दिन जहां भक्तों की भीड़ उमड़ती है. 

भैरव अष्टमी कथा 

एक समय की बात है कि ब्रह्मा जी ने कहा कि वे सृष्टि के रचयिता और सबसे बड़े देव हैं. यह सुनकर भगवान शिव ने उन्हें समझाया कि यह अहंकार उचित नहीं है. परन्तु ब्रह्मा जी नहीं माने. क्रोधित होकर भगवान शिव ने अपनी जटा से एक तेजस्वी रूप प्रकट किया, जो काल भैरव के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

काल भैरव ने ब्रह्मा जी के पांचवें सिर को काट दिया, जो कि उनके अहंकार का प्रतीक था. इससे ब्रह्मा जी का घमंड चूर हुआ, लेकिन काल भैरव को ब्रह्महत्या का दोष लग गया. इस दोष से मुक्त होने के लिए वे कई स्थानों पर भटकते रहे, अंततः काशी में उन्हें मुक्ति मिली. तभी से उन्हें काशी का कोतवाल भी कहा जाता है.

कालाष्टमी पूजा लाभ 

काल भैरव की पूजा करने से व्यक्ति निडर और साहसी बनता है. जो लोग कोर्ट-कचहरी या किसी झूठे आरोप में फंसे होते हैं, उन्हें भैरव जी की आराधना से न्याय मिलता है. भैरव को स्वास्थ्य का रक्षक भी माना जाता है. तांत्रिक दृष्टिकोण से यह पूजा नकारात्मक शक्तियों को दूर करने में सहायक है.

आषाढ़ मास की कालाष्टमी का धार्मिक, आध्यात्मिक महत्व अत्यंत गहरा है. यह न केवल भगवान भैरव की कृपा प्राप्त करने का माध्यम है, बल्कि जीवन के भय, संकट और समस्याओं से छुटकारा पाने का सरल उपाय भी है. जो भी भक्त श्रद्धा और नियमपूर्वक इस व्रत को करता है, उसे मानसिक शांति, साहस, सुरक्षा और सफलता प्राप्त होती है.  

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals, Remedies | Tagged , , , | Leave a comment

ललिता महाविद्या : गुप्त नवरात्रि पर ललिता सहस्त्रनाम स्त्रोत पाठ

गुप्त नवरात्रि के दौरान देवी पूजन का विशेष प्रभाव हर दिन के साथ बढ़ता चला जाता है। गुप्त नवरात्रि के दौरान भक्ति पूजा में शक्ति की साधना व्यक्ति को आध्यात्मिक बल देने में सहायक होती है। देवी ललिता के पूजन के दौरान साधक को शक्ति और सिद्धि की प्राप्ति का समय भी होता है। आर्थिक सुद्ध समृद्धि के मामले में ये समय व्यक्ति के आज्ञा चक्र को प्रभावित होता है। 

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार देवी का स्वरूप ब्रह्मांड को संतुलन और स्थिरता प्रदान करता है। मां का तेज इतना अद्भुत है कि मां को त्रिपुर सुंदरी कहा जाता है और वे सोलह कलाएं प्रदान करने वाली षोडशी हैं। मां का हर नाम उनके स्वरूप और गुणों को दर्शाता है। दस महाविद्याओं में से एक देवी ललिता की पूजा तंत्र शास्त्र में चंडी के रूप में भी की जाती है। मां ललिता की पूजा करने से धन, समृद्धि और सिद्धियों की प्राप्ति होती है। देवी के मंत्र सोलह अक्षरों का रहस्य भी बताते हैं। तांत्रिक अनुष्ठानों में जब देवी का आह्वान किया जाता है तो यह स्थिति भक्त के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है और कार्य की सफलता का आशीर्वाद प्राप्त होता है। जीवन चक्र को देवी के आधार पर केंद्रित किया गया है, इसलिए देवी ललिता की पूजा करने से भक्त जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।

देवी ललिता का तांत्रिक पार्वती से गहरा संबंध है क्योंकि दोनों एक ही रूप हैं। आगम शास्त्रों में देवी पार्वती और भगवान शिव के बीच संवाद है जिसमें देवी जीवन-मरण के कष्ट से मुक्ति का उपाय पूछती हैं और तभी देवी ललिता का आगमन होता है, इसलिए देवी ललिता को तांत्रिक पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र शास्त्रों में देवी मां पार्वती का स्वरूप तांत्रिक रूप में भी विद्यमान है और देवी का यह स्वरूप भक्त को मोक्ष का आशीर्वाद देने के साथ ही कष्टों से मुक्ति भी प्रदान करता है। आगम शास्त्रों के अनुसार जब देवी पार्वती ने भगवान शिव से मोक्ष और गर्भधारण का रहस्य जानना चाहा तो भगवान आशुतोष ने महाविद्याओं में से एक ललिता को प्रकट किया। इसीलिए ललिता जयंती के दिन पूजा से संबंधित अनुष्ठान करने से कर्म शुभ होते हैं, जो कर्म सुधार का भी काम करते हैं। देवी की पूजा करने से व्यक्ति को किसी भी प्रकार के नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति मिलती है।

 श्रीललितासहस्रनामस्तोत्रम् 

      ॥ न्यासः ॥

अस्य श्रीललितासहस्रनामस्तोत्रमालामन्त्रस्य ।

वशिन्यादिवाग्देवता ऋषयः ।

अनुष्टुप्छन्दः ।

श्रीललितापरमेश्वरी देवता ।

श्रीमद्वाग्भवकूटेति बीजम् ।

मध्यकूटेति शक्तिः ।

शक्तिकूटेति कीलकम् ।

श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरी-प्रसादसिद्धिद्वारा

चिन्तितफलावाप्त्यर्थे जपे विनियोगः ।

      ॥ ध्यानम् ॥

सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्

तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम् ।

पाणिभ्यामलिपूर्णरत्नचषकं रक्तोत्पलं विभ्रतीं

सौम्यां रत्नघटस्थरक्तचरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥

अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं

धृतपाशाङ्कुशपुष्पबाणचापाम् ।

अणिमादिभिरावृतां मयुखैः

अहमित्येव विभावये भवानीम् ॥

ध्यायेत्पद्मासनस्थां विकसितवदनां पद्मपत्रायताक्षीं

हेमाभां पीतवस्त्रां करकलितलसद्धेमपद्मां वराङ्गीम् ।

सर्वालङ्कारयुक्तां सततमभयदां भक्तनम्रां भवानीं

श्रीविद्यां शान्तमूर्तिं सकलसुरनुतां सर्वसम्पत्प्रदात्रीम् ॥

सकुङ्कुमविलेपनामलिकचुम्बिकस्तूरिकां

समन्दहसितेक्षणां सशरचापपाशाङ्कुशाम् ।

अशेषजनमोहिनीमरुणमाल्यभूषाम्बरां

जपाकुसुमभासुरां जपविधौ स्मरेदम्बिकाम् ॥

॥ अथ श्रीललितासहस्रनामस्तोत्रम् ॥

ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्-सिंहासनेश्वरी ।

चिदग्नि-कुण्ड-सम्भूता देवकार्य-समुद्यता ॥ १॥

उद्यद्भानु-सहस्राभा चतुर्बाहु-समन्विता ।

रागस्वरूप-पाशाढ्या क्रोधाकाराङ्कुशोज्ज्वला ॥ २॥

मनोरूपेक्षु-कोदण्डा पञ्चतन्मात्र-सायका ।

निजारुण-प्रभापूर-मज्जद्ब्रह्माण्ड-मण्डला ॥ ३॥

चम्पकाशोक-पुन्नाग-सौगन्धिक-लसत्कचा ।

कुरुविन्दमणि-श्रेणी-कनत्कोटीर-मण्डिता ॥ ४॥

अष्टमीचन्द्र-विभ्राज-दलिकस्थल-शोभिता ।

मुखचन्द्र-कलङ्काभ-मृगनाभि-विशेषका ॥ ५॥

वदनस्मर-माङ्गल्य-गृहतोरण-चिल्लिका ।

वक्त्रलक्ष्मी-परीवाह-चलन्मीनाभ-लोचना ॥ ६॥

नवचम्पक-पुष्पाभ-नासादण्ड-विराजिता ।

ताराकान्ति-तिरस्कारि-नासाभरण-भासुरा ॥ ७॥

कदम्बमञ्जरी-कॢप्त-कर्णपूर-मनोहरा ।

ताटङ्क-युगली-भूत-तपनोडुप-मण्डला ॥ ८॥

पद्मराग-शिलादर्श-परिभावि-कपोलभूः ।

नवविद्रुम-बिम्बश्री-न्यक्कारि-रदनच्छदा ॥ ९॥ 

शुद्ध-विद्याङ्कुराकार-द्विजपङ्क्ति-द्वयोज्ज्वला ।

कर्पूर-वीटिकामोद-समाकर्षि-दिगन्तरा ॥ १०॥

निज-सल्लाप-माधुर्य-विनिर्भर्त्सित-कच्छपी । 

मन्दस्मित-प्रभापूर-मज्जत्कामेश-मानसा ॥ ११॥

अनाकलित-सादृश्य-चिबुकश्री-विराजिता । 

कामेश-बद्ध-माङ्गल्य-सूत्र-शोभित-कन्धरा ॥ १२॥

कनकाङ्गद-केयूर-कमनीय-भुजान्विता ।

रत्नग्रैवेय-चिन्ताक-लोल-मुक्ता-फलान्विता ॥ १३॥

कामेश्वर-प्रेमरत्न-मणि-प्रतिपण-स्तनी ।

नाभ्यालवाल-रोमालि-लता-फल-कुचद्वयी ॥ १४॥

लक्ष्यरोम-लताधारता-समुन्नेय-मध्यमा ।

स्तनभार-दलन्मध्य-पट्टबन्ध-वलित्रया ॥ १५॥

अरुणारुण-कौसुम्भ-वस्त्र-भास्वत्-कटीतटी ।

रत्न-किङ्किणिका-रम्य-रशना-दाम-भूषिता ॥ १६॥

कामेश-ज्ञात-सौभाग्य-मार्दवोरु-द्वयान्विता ।

माणिक्य-मुकुटाकार-जानुद्वय-विराजिता ॥ १७॥

इन्द्रगोप-परिक्षिप्त-स्मरतूणाभ-जङ्घिका ।

गूढगुल्फा कूर्मपृष्ठ-जयिष्णु-प्रपदान्विता ॥ १८॥

नख-दीधिति-संछन्न-नमज्जन-तमोगुणा ।

पदद्वय-प्रभाजाल-पराकृत-सरोरुहा ॥ १९॥

सिञ्जान-मणिमञ्जीर-मण्डित-श्री-पदाम्बुजा ।

मराली-मन्दगमना महालावण्य-शेवधिः ॥ २०॥

सर्वारुणाऽनवद्याङ्गी सर्वाभरण-भूषिता ।

शिव-कामेश्वराङ्कस्था शिवा स्वाधीन-वल्लभा ॥ २१॥

सुमेरु-मध्य-श‍ृङ्गस्था श्रीमन्नगर-नायिका ।

चिन्तामणि-गृहान्तस्था पञ्च-ब्रह्मासन-स्थिता ॥ २२॥

महापद्माटवी-संस्था कदम्बवन-वासिनी ।

सुधासागर-मध्यस्था कामाक्षी कामदायिनी ॥ २३॥

देवर्षि-गण-संघात-स्तूयमानात्म-वैभवा ।

भण्डासुर-वधोद्युक्त-शक्तिसेना-समन्विता ॥ २४॥

सम्पत्करी-समारूढ-सिन्धुर-व्रज-सेविता ।

अश्वारूढाधिष्ठिताश्व-कोटि-कोटिभिरावृता ॥ २५॥

चक्रराज-रथारूढ-सर्वायुध-परिष्कृता ।

गेयचक्र-रथारूढ-मन्त्रिणी-परिसेविता ॥ २६॥

किरिचक्र-रथारूढ-दण्डनाथा-पुरस्कृता ।

ज्वाला-मालिनिकाक्षिप्त-वह्निप्राकार-मध्यगा ॥ २७॥

भण्डसैन्य-वधोद्युक्त-शक्ति-विक्रम-हर्षिता ।

नित्या-पराक्रमाटोप-निरीक्षण-समुत्सुका ॥ २८॥

भण्डपुत्र-वधोद्युक्त-बाला-विक्रम-नन्दिता ।

मन्त्रिण्यम्बा-विरचित-विषङ्ग-वध-तोषिता ॥ २९॥

विशुक्र-प्राणहरण-वाराही-वीर्य-नन्दिता ।

कामेश्वर-मुखालोक-कल्पित-श्रीगणेश्वरा ॥ ३०॥

महागणेश-निर्भिन्न-विघ्नयन्त्र-प्रहर्षिता ।

भण्डासुरेन्द्र-निर्मुक्त-शस्त्र-प्रत्यस्त्र-वर्षिणी ॥ ३१॥

कराङ्गुलि-नखोत्पन्न-नारायण-दशाकृतिः ।

महा-पाशुपतास्त्राग्नि-निर्दग्धासुर-सैनिका ॥ ३२॥

कामेश्वरास्त्र-निर्दग्ध-सभण्डासुर-शून्यका ।

ब्रह्मोपेन्द्र-महेन्द्रादि-देव-संस्तुत-वैभवा ॥ ३३॥

हर-नेत्राग्नि-संदग्ध-काम-सञ्जीवनौषधिः ।

श्रीमद्वाग्भव-कूटैक-स्वरूप-मुख-पङ्कजा ॥ ३४॥

कण्ठाधः-कटि-पर्यन्त-मध्यकूट-स्वरूपिणी ।

शक्ति-कूटैकतापन्न-कट्यधोभाग-धारिणी ॥ ३५॥

मूल-मन्त्रात्मिका मूलकूटत्रय-कलेवरा ।

कुलामृतैक-रसिका कुलसंकेत-पालिनी ॥ ३६॥

कुलाङ्गना कुलान्तस्था कौलिनी कुलयोगिनी ।

अकुला समयान्तस्था समयाचार-तत्परा ॥ ३७॥

मूलाधारैक-निलया ब्रह्मग्रन्थि-विभेदिनी ।

मणि-पूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि-विभेदिनी ॥ ३८॥

आज्ञा-चक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि-विभेदिनी ।

सहस्राराम्बुजारूढा सुधा-साराभिवर्षिणी ॥ ३९॥

तडिल्लता-समरुचिः षट्चक्रोपरि-संस्थिता ।

महासक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तु-तनीयसी ॥ ४०॥

भवानी भावनागम्या भवारण्य-कुठारिका ।

भद्रप्रिया भद्रमूर्तिर् भक्त-सौभाग्यदायिनी ॥ ४१॥

भक्तिप्रिया भक्तिगम्या भक्तिवश्या भयापहा ।

शाम्भवी शारदाराध्या शर्वाणी शर्मदायिनी ॥ ४२॥

शाङ्करी श्रीकरी साध्वी शरच्चन्द्र-निभानना ।

शातोदरी शान्तिमती निराधारा निरञ्जना ॥ ४३॥

निर्लेपा निर्मला नित्या निराकारा निराकुला ।

निर्गुणा निष्कला शान्ता निष्कामा निरुपप्लवा ॥ ४४॥

नित्यमुक्ता निर्विकारा निष्प्रपञ्चा निराश्रया ।

नित्यशुद्धा नित्यबुद्धा निरवद्या निरन्तरा ॥ ४५॥

निष्कारणा निष्कलङ्का निरुपाधिर् निरीश्वरा ।

नीरागा रागमथनी निर्मदा मदनाशिनी ॥ ४६॥

निश्चिन्ता निरहंकारा निर्मोहा मोहनाशिनी ।

निर्ममा ममताहन्त्री निष्पापा पापनाशिनी ॥ ४७॥

निष्क्रोधा क्रोधशमनी निर्लोभा लोभनाशिनी ।

निःसंशया संशयघ्नी निर्भवा भवनाशिनी ॥ ४८॥ 

निर्विकल्पा निराबाधा निर्भेदा भेदनाशिनी ।

निर्नाशा मृत्युमथनी निष्क्रिया निष्परिग्रहा ॥ ४९॥

निस्तुला नीलचिकुरा निरपाया निरत्यया ।

दुर्लभा दुर्गमा दुर्गा दुःखहन्त्री सुखप्रदा ॥ ५०॥

दुष्टदूरा दुराचार-शमनी दोषवर्जिता ।

सर्वज्ञा सान्द्रकरुणा समानाधिक-वर्जिता ॥ ५१॥

सर्वशक्तिमयी सर्व-मङ्गला सद्गतिप्रदा ।

सर्वेश्वरी सर्वमयी सर्वमन्त्र-स्वरूपिणी ॥ ५२॥

सर्व-यन्त्रात्मिका सर्व-तन्त्ररूपा मनोन्मनी ।

माहेश्वरी महादेवी महालक्ष्मीर् मृडप्रिया ॥ ५३॥

महारूपा महापूज्या महापातक-नाशिनी ।

महामाया महासत्त्वा महाशक्तिर् महारतिः ॥ ५४॥

महाभोगा महैश्वर्या महावीर्या महाबला ।

महाबुद्धिर् महासिद्धिर् महायोगेश्वरेश्वरी ॥ ५५॥

महातन्त्रा महामन्त्रा महायन्त्रा महासना ।

महायाग-क्रमाराध्या महाभैरव-पूजिता ॥ ५६॥

महेश्वर-महाकल्प-महाताण्डव-साक्षिणी ।

महाकामेश-महिषी महात्रिपुर-सुन्दरी ॥ ५७॥

चतुःषष्ट्युपचाराढ्या चतुःषष्टिकलामयी ।

महाचतुः-षष्टिकोटि-योगिनी-गणसेविता ॥ ५८॥

मनुविद्या चन्द्रविद्या चन्द्रमण्डल-मध्यगा ।

चारुरूपा चारुहासा चारुचन्द्र-कलाधरा ॥ ५९॥

चराचर-जगन्नाथा चक्रराज-निकेतना ।

पार्वती पद्मनयना पद्मराग-समप्रभा ॥ ६०॥

पञ्च-प्रेतासनासीना पञ्चब्रह्म-स्वरूपिणी ।

चिन्मयी परमानन्दा विज्ञान-घनरूपिणी ॥ ६१॥

ध्यान-ध्यातृ-ध्येयरूपा धर्माधर्म-विवर्जिता ।

विश्वरूपा जागरिणी स्वपन्ती तैजसात्मिका ॥ ६२॥

सुप्ता प्राज्ञात्मिका तुर्या सर्वावस्था-विवर्जिता ।

सृष्टिकर्त्री ब्रह्मरूपा गोप्त्री गोविन्दरूपिणी ॥ ६३॥

संहारिणी रुद्ररूपा तिरोधान-करीश्वरी ।

सदाशिवाऽनुग्रहदा पञ्चकृत्य-परायणा ॥ ६४॥

भानुमण्डल-मध्यस्था भैरवी भगमालिनी ।

पद्मासना भगवती पद्मनाभ-सहोदरी ॥ ६५॥

उन्मेष-निमिषोत्पन्न-विपन्न-भुवनावली ।

सहस्र-शीर्षवदना सहस्राक्षी सहस्रपात् ॥ ६६॥

आब्रह्म-कीट-जननी वर्णाश्रम-विधायिनी ।

निजाज्ञारूप-निगमा पुण्यापुण्य-फलप्रदा ॥ ६७॥

श्रुति-सीमन्त-सिन्दूरी-कृत-पादाब्ज-धूलिका ।

सकलागम-सन्दोह-शुक्ति-सम्पुट-मौक्तिका ॥ ६८॥

पुरुषार्थप्रदा पूर्णा भोगिनी भुवनेश्वरी ।

अम्बिकाऽनादि-निधना हरिब्रह्मेन्द्र-सेविता ॥ ६९॥

नारायणी नादरूपा नामरूप-विवर्जिता ।

ह्रींकारी ह्रीमती हृद्या हेयोपादेय-वर्जिता ॥ ७०॥

राजराजार्चिता राज्ञी रम्या राजीवलोचना ।

रञ्जनी रमणी रस्या रणत्किङ्किणि-मेखला ॥ ७१॥

रमा राकेन्दुवदना रतिरूपा रतिप्रिया ।

रक्षाकरी राक्षसघ्नी रामा रमणलम्पटा ॥ ७२॥

काम्या कामकलारूपा कदम्ब-कुसुम-प्रिया ।

कल्याणी जगतीकन्दा करुणा-रस-सागरा ॥ ७३॥

कलावती कलालापा कान्ता कादम्बरीप्रिया ।

वरदा वामनयना वारुणी-मद-विह्वला ॥ ७४॥

विश्वाधिका वेदवेद्या विन्ध्याचल-निवासिनी ।

विधात्री वेदजननी विष्णुमाया विलासिनी ॥ ७५॥

क्षेत्रस्वरूपा क्षेत्रेशी क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-पालिनी ।

क्षयवृद्धि-विनिर्मुक्ता क्षेत्रपाल-समर्चिता ॥ ७६॥

विजया विमला वन्द्या वन्दारु-जन-वत्सला ।

वाग्वादिनी वामकेशी वह्निमण्डल-वासिनी ॥ ७७॥

भक्तिमत्-कल्पलतिका पशुपाश-विमोचिनी ।

संहृताशेष-पाषण्डा सदाचार-प्रवर्तिका ॥ ७८॥ 

तापत्रयाग्नि-सन्तप्त-समाह्लादन-चन्द्रिका ।

तरुणी तापसाराध्या तनुमध्या तमोऽपहा ॥ ७९॥

चितिस्तत्पद-लक्ष्यार्था चिदेकरस-रूपिणी ।

स्वात्मानन्द-लवीभूत-ब्रह्माद्यानन्द-सन्ततिः ॥ ८०॥

परा प्रत्यक्चितीरूपा पश्यन्ती परदेवता ।

मध्यमा वैखरीरूपा भक्त-मानस-हंसिका ॥ ८१॥

कामेश्वर-प्राणनाडी कृतज्ञा कामपूजिता ।

श‍ृङ्गार-रस-सम्पूर्णा जया जालन्धर-स्थिता ॥ ८२॥

ओड्याणपीठ-निलया बिन्दु-मण्डलवासिनी ।

रहोयाग-क्रमाराध्या रहस्तर्पण-तर्पिता ॥ ८३॥

सद्यःप्रसादिनी विश्व-साक्षिणी साक्षिवर्जिता ।

षडङ्गदेवता-युक्ता षाड्गुण्य-परिपूरिता ॥ ८४॥

नित्यक्लिन्ना निरुपमा निर्वाण-सुख-दायिनी ।

नित्या-षोडशिका-रूपा श्रीकण्ठार्ध-शरीरिणी ॥ ८५॥

प्रभावती प्रभारूपा प्रसिद्धा परमेश्वरी ।

मूलप्रकृतिर् अव्यक्ता व्यक्ताव्यक्त-स्वरूपिणी ॥ ८६॥

व्यापिनी विविधाकारा विद्याविद्या-स्वरूपिणी ।

महाकामेश-नयन-कुमुदाह्लाद-कौमुदी ॥ ८७॥

भक्त-हार्द-तमोभेद-भानुमद्भानु-सन्ततिः ।

शिवदूती शिवाराध्या शिवमूर्तिः शिवङ्करी ॥ ८८॥

शिवप्रिया शिवपरा शिष्टेष्टा शिष्टपूजिता ।

अप्रमेया स्वप्रकाशा मनोवाचामगोचरा ॥ ८९॥

चिच्छक्तिश् चेतनारूपा जडशक्तिर् जडात्मिका ।

गायत्री व्याहृतिः सन्ध्या द्विजवृन्द-निषेविता ॥ ९०॥

तत्त्वासना तत्त्वमयी पञ्च-कोशान्तर-स्थिता ।

निःसीम-महिमा नित्य-यौवना मदशालिनी ॥ ९१॥ 

मदघूर्णित-रक्ताक्षी मदपाटल-गण्डभूः ।

चन्दन-द्रव-दिग्धाङ्गी चाम्पेय-कुसुम-प्रिया ॥ ९२॥

कुशला कोमलाकारा कुरुकुल्ला कुलेश्वरी ।

कुलकुण्डालया कौल-मार्ग-तत्पर-सेविता ॥ ९३॥

कुमार-गणनाथाम्बा तुष्टिः पुष्टिर् मतिर् धृतिः ।

शान्तिः स्वस्तिमती कान्तिर् नन्दिनी विघ्ननाशिनी ॥ ९४॥

तेजोवती त्रिनयना लोलाक्षी-कामरूपिणी ।

मालिनी हंसिनी माता मलयाचल-वासिनी ॥ ९५॥

सुमुखी नलिनी सुभ्रूः शोभना सुरनायिका ।

कालकण्ठी कान्तिमती क्षोभिणी सूक्ष्मरूपिणी ॥ ९६॥

वज्रेश्वरी वामदेवी वयोऽवस्था-विवर्जिता ।

सिद्धेश्वरी सिद्धविद्या सिद्धमाता यशस्विनी ॥ ९७॥

विशुद्धिचक्र-निलयाऽऽरक्तवर्णा त्रिलोचना ।

खट्वाङ्गादि-प्रहरणा वदनैक-समन्विता ॥ ९८॥

पायसान्नप्रिया त्वक्स्था पशुलोक-भयङ्करी ।

अमृतादि-महाशक्ति-संवृता डाकिनीश्वरी ॥ ९९॥

अनाहताब्ज-निलया श्यामाभा वदनद्वया ।

दंष्ट्रोज्ज्वलाऽक्ष-मालादि-धरा रुधिरसंस्थिता ॥ १००॥

कालरात्र्यादि-शक्त्यौघ-वृता स्निग्धौदनप्रिया ।

महावीरेन्द्र-वरदा राकिण्यम्बा-स्वरूपिणी ॥ १०१॥

मणिपूराब्ज-निलया वदनत्रय-संयुता ।

वज्रादिकायुधोपेता डामर्यादिभिरावृता ॥ १०२॥

रक्तवर्णा मांसनिष्ठा गुडान्न-प्रीत-मानसा ।

समस्तभक्त-सुखदा लाकिन्यम्बा-स्वरूपिणी ॥ १०३॥

स्वाधिष्ठानाम्बुज-गता चतुर्वक्त्र-मनोहरा ।

शूलाद्यायुध-सम्पन्ना पीतवर्णाऽतिगर्विता ॥ १०४॥

मेदोनिष्ठा मधुप्रीता बन्धिन्यादि-समन्विता ।

दध्यन्नासक्त-हृदया काकिनी-रूप-धारिणी ॥ १०५॥

मूलाधाराम्बुजारूढा पञ्च-वक्त्राऽस्थि-संस्थिता ।

अङ्कुशादि-प्रहरणा वरदादि-निषेविता ॥ १०६॥

मुद्गौदनासक्त-चित्ता साकिन्यम्बा-स्वरूपिणी ।

आज्ञा-चक्राब्ज-निलया शुक्लवर्णा षडानना ॥ १०७॥

मज्जासंस्था हंसवती-मुख्य-शक्ति-समन्विता ।

हरिद्रान्नैक-रसिका हाकिनी-रूप-धारिणी ॥ १०८॥

सहस्रदल-पद्मस्था सर्व-वर्णोप-शोभिता ।

सर्वायुधधरा शुक्ल-संस्थिता सर्वतोमुखी ॥ १०९॥

सर्वौदन-प्रीतचित्ता याकिन्यम्बा-स्वरूपिणी ।

स्वाहा स्वधाऽमतिर् मेधा श्रुतिः स्मृतिर् अनुत्तमा ॥ ११०॥

पुण्यकीर्तिः पुण्यलभ्या पुण्यश्रवण-कीर्तना ।

पुलोमजार्चिता बन्ध-मोचनी बन्धुरालका ॥ १११॥ 

विमर्शरूपिणी विद्या वियदादि-जगत्प्रसूः ।

सर्वव्याधि-प्रशमनी सर्वमृत्यु-निवारिणी ॥ ११२॥

अग्रगण्याऽचिन्त्यरूपा कलिकल्मष-नाशिनी ।

कात्यायनी कालहन्त्री कमलाक्ष-निषेविता ॥ ११३॥

ताम्बूल-पूरित-मुखी दाडिमी-कुसुम-प्रभा ।

मृगाक्षी मोहिनी मुख्या मृडानी मित्ररूपिणी ॥ ११४॥

नित्यतृप्ता भक्तनिधिर् नियन्त्री निखिलेश्वरी ।

मैत्र्यादि-वासनालभ्या महाप्रलय-साक्षिणी ॥ ११५॥

परा शक्तिः परा निष्ठा प्रज्ञानघन-रूपिणी ।

माध्वीपानालसा मत्ता मातृका-वर्ण-रूपिणी ॥ ११६॥

महाकैलास-निलया मृणाल-मृदु-दोर्लता ।

महनीया दयामूर्तिर् महासाम्राज्य-शालिनी ॥ ११७॥

आत्मविद्या महाविद्या श्रीविद्या कामसेविता ।

श्री-षोडशाक्षरी-विद्या त्रिकूटा कामकोटिका ॥ ११८॥

कटाक्ष-किङ्करी-भूत-कमला-कोटि-सेविता ।

शिरःस्थिता चन्द्रनिभा भालस्थेन्द्र-धनुःप्रभा ॥ ११९॥

हृदयस्था रविप्रख्या त्रिकोणान्तर-दीपिका ।

दाक्षायणी दैत्यहन्त्री दक्षयज्ञ-विनाशिनी ॥ १२०॥

दरान्दोलित-दीर्घाक्षी दर-हासोज्ज्वलन्-मुखी ।

गुरुमूर्तिर् गुणनिधिर् गोमाता गुहजन्मभूः ॥ १२१॥

देवेशी दण्डनीतिस्था दहराकाश-रूपिणी ।

प्रतिपन्मुख्य-राकान्त-तिथि-मण्डल-पूजिता ॥ १२२॥

कलात्मिका कलानाथा काव्यालाप-विनोदिनी । विमोदिनी

सचामर-रमा-वाणी-सव्य-दक्षिण-सेविता ॥ १२३॥

आदिशक्तिर् अमेयाऽऽत्मा परमा पावनाकृतिः ।

अनेककोटि-ब्रह्माण्ड-जननी दिव्यविग्रहा ॥ १२४॥

क्लींकारी केवला गुह्या कैवल्य-पददायिनी ।

त्रिपुरा त्रिजगद्वन्द्या त्रिमूर्तिस् त्रिदशेश्वरी ॥ १२५॥

त्र्यक्षरी दिव्य-गन्धाढ्या सिन्दूर-तिलकाञ्चिता ।

उमा शैलेन्द्रतनया गौरी गन्धर्व-सेविता ॥ १२६॥

विश्वगर्भा स्वर्णगर्भाऽवरदा वागधीश्वरी ।

ध्यानगम्याऽपरिच्छेद्या ज्ञानदा ज्ञानविग्रहा ॥ १२७॥

सर्ववेदान्त-संवेद्या सत्यानन्द-स्वरूपिणी ।

लोपामुद्रार्चिता लीला-कॢप्त-ब्रह्माण्ड-मण्डला ॥ १२८॥

अदृश्या दृश्यरहिता विज्ञात्री वेद्यवर्जिता ।

योगिनी योगदा योग्या योगानन्दा युगन्धरा ॥ १२९॥

इच्छाशक्ति-ज्ञानशक्ति-क्रियाशक्ति-स्वरूपिणी ।

सर्वाधारा सुप्रतिष्ठा सदसद्रूप-धारिणी ॥ १३०॥

अष्टमूर्तिर् अजाजैत्री लोकयात्रा-विधायिनी । अजाजेत्री

एकाकिनी भूमरूपा निर्द्वैता द्वैतवर्जिता ॥ १३१॥

अन्नदा वसुदा वृद्धा ब्रह्मात्मैक्य-स्वरूपिणी ।

बृहती ब्राह्मणी ब्राह्मी ब्रह्मानन्दा बलिप्रिया ॥ १३२॥

भाषारूपा बृहत्सेना भावाभाव-विवर्जिता ।

सुखाराध्या शुभकरी शोभना सुलभा गतिः ॥ १३३॥

राज-राजेश्वरी राज्य-दायिनी राज्य-वल्लभा ।

राजत्कृपा राजपीठ-निवेशित-निजाश्रिता ॥ १३४॥

राज्यलक्ष्मीः कोशनाथा चतुरङ्ग-बलेश्वरी ।

साम्राज्य-दायिनी सत्यसन्धा सागरमेखला ॥ १३५॥

दीक्षिता दैत्यशमनी सर्वलोक-वशङ्करी ।

सर्वार्थदात्री सावित्री सच्चिदानन्द-रूपिणी ॥ १३६॥

देश-कालापरिच्छिन्ना सर्वगा सर्वमोहिनी ।

सरस्वती शास्त्रमयी गुहाम्बा गुह्यरूपिणी ॥ १३७॥

सर्वोपाधि-विनिर्मुक्ता सदाशिव-पतिव्रता ।

सम्प्रदायेश्वरी साध्वी गुरुमण्डल-रूपिणी ॥ १३८॥

कुलोत्तीर्णा भगाराध्या माया मधुमती मही ।

गणाम्बा गुह्यकाराध्या कोमलाङ्गी गुरुप्रिया ॥ १३९॥

स्वतन्त्रा सर्वतन्त्रेशी दक्षिणामूर्ति-रूपिणी ।

सनकादि-समाराध्या शिवज्ञान-प्रदायिनी ॥ १४०॥

चित्कलाऽऽनन्द-कलिका प्रेमरूपा प्रियङ्करी ।

नामपारायण-प्रीता नन्दिविद्या नटेश्वरी ॥ १४१॥

मिथ्या-जगदधिष्ठाना मुक्तिदा मुक्तिरूपिणी ।

लास्यप्रिया लयकरी लज्जा रम्भादिवन्दिता ॥ १४२॥

भवदाव-सुधावृष्टिः पापारण्य-दवानला ।

दौर्भाग्य-तूलवातूला जराध्वान्त-रविप्रभा ॥ १४३॥

भाग्याब्धि-चन्द्रिका भक्त-चित्तकेकि-घनाघना ।

रोगपर्वत-दम्भोलिर् मृत्युदारु-कुठारिका ॥ १४४॥

महेश्वरी महाकाली महाग्रासा महाशना ।

अपर्णा चण्डिका चण्डमुण्डासुर-निषूदिनी ॥ १४५॥

क्षराक्षरात्मिका सर्व-लोकेशी विश्वधारिणी ।

त्रिवर्गदात्री सुभगा त्र्यम्बका त्रिगुणात्मिका ॥ १४६॥

स्वर्गापवर्गदा शुद्धा जपापुष्प-निभाकृतिः ।

ओजोवती द्युतिधरा यज्ञरूपा प्रियव्रता ॥ १४७॥

दुराराध्या दुराधर्षा पाटली-कुसुम-प्रिया ।

महती मेरुनिलया मन्दार-कुसुम-प्रिया ॥ १४८॥

वीराराध्या विराड्रूपा विरजा विश्वतोमुखी ।

प्रत्यग्रूपा पराकाशा प्राणदा प्राणरूपिणी ॥ १४९॥

मार्ताण्ड-भैरवाराध्या मन्त्रिणीन्यस्त-राज्यधूः । var. मार्तण्ड

त्रिपुरेशी जयत्सेना निस्त्रैगुण्या परापरा ॥ १५०॥

सत्य-ज्ञानानन्द-रूपा सामरस्य-परायणा ।

कपर्दिनी कलामाला कामधुक् कामरूपिणी ॥ १५१॥

कलानिधिः काव्यकला रसज्ञा रसशेवधिः ।

पुष्टा पुरातना पूज्या पुष्करा पुष्करेक्षणा ॥ १५२॥

परंज्योतिः परंधाम परमाणुः परात्परा ।

पाशहस्ता पाशहन्त्री परमन्त्र-विभेदिनी ॥ १५३॥

मूर्ताऽमूर्ताऽनित्यतृप्ता मुनिमानस-हंसिका ।

सत्यव्रता सत्यरूपा सर्वान्तर्यामिनी सती ॥ १५४॥

ब्रह्माणी ब्रह्मजननी बहुरूपा बुधार्चिता ।

प्रसवित्री प्रचण्डाऽऽज्ञा प्रतिष्ठा प्रकटाकृतिः ॥ १५५॥

प्राणेश्वरी प्राणदात्री पञ्चाशत्पीठ-रूपिणी ।

विश‍ृङ्खला विविक्तस्था वीरमाता वियत्प्रसूः ॥ १५६॥

मुकुन्दा मुक्तिनिलया मूलविग्रह-रूपिणी ।

भावज्ञा भवरोगघ्नी भवचक्र-प्रवर्तिनी ॥ १५७॥

छन्दःसारा शास्त्रसारा मन्त्रसारा तलोदरी ।

उदारकीर्तिर् उद्दामवैभवा वर्णरूपिणी ॥ १५८॥

जन्ममृत्यु-जरातप्त-जनविश्रान्ति-दायिनी ।

सर्वोपनिष-दुद्-घुष्टा शान्त्यतीत-कलात्मिका ॥ १५९॥

गम्भीरा गगनान्तस्था गर्विता गानलोलुपा ।

कल्पना-रहिता काष्ठाऽकान्ता कान्तार्ध-विग्रहा ॥ १६०॥

कार्यकारण-निर्मुक्ता कामकेलि-तरङ्गिता ।

कनत्कनकता-टङ्का लीला-विग्रह-धारिणी ॥ १६१॥

अजा क्षयविनिर्मुक्ता मुग्धा क्षिप्र-प्रसादिनी ।

अन्तर्मुख-समाराध्या बहिर्मुख-सुदुर्लभा ॥ १६२॥

त्रयी त्रिवर्गनिलया त्रिस्था त्रिपुरमालिनी ।

निरामया निरालम्बा स्वात्मारामा सुधासृतिः ॥ १६३॥ सुधास्रुतिः

संसारपङ्क-निर्मग्न-समुद्धरण-पण्डिता ।

यज्ञप्रिया यज्ञकर्त्री यजमान-स्वरूपिणी ॥ १६४॥

धर्माधारा धनाध्यक्षा धनधान्य-विवर्धिनी ।

विप्रप्रिया विप्ररूपा विश्वभ्रमण-कारिणी ॥ १६५॥

विश्वग्रासा विद्रुमाभा वैष्णवी विष्णुरूपिणी ।

अयोनिर् योनिनिलया कूटस्था कुलरूपिणी ॥ १६६॥

वीरगोष्ठीप्रिया वीरा नैष्कर्म्या नादरूपिणी ।

विज्ञानकलना कल्या विदग्धा बैन्दवासना ॥ १६७॥

तत्त्वाधिका तत्त्वमयी तत्त्वमर्थ-स्वरूपिणी ।

सामगानप्रिया सौम्या सदाशिव-कुटुम्बिनी ॥ १६८॥ सोम्या

सव्यापसव्य-मार्गस्था सर्वापद्विनिवारिणी ।

स्वस्था स्वभावमधुरा धीरा धीरसमर्चिता ॥ १६९॥

चैतन्यार्घ्य-समाराध्या चैतन्य-कुसुमप्रिया ।

सदोदिता सदातुष्टा तरुणादित्य-पाटला ॥ १७०॥

दक्षिणा-दक्षिणाराध्या दरस्मेर-मुखाम्बुजा ।

कौलिनी-केवलाऽनर्घ्य-कैवल्य-पददायिनी ॥ १७१॥

स्तोत्रप्रिया स्तुतिमती श्रुति-संस्तुत-वैभवा ।

मनस्विनी मानवती महेशी मङ्गलाकृतिः ॥ १७२॥

विश्वमाता जगद्धात्री विशालाक्षी विरागिणी ।

प्रगल्भा परमोदारा परामोदा मनोमयी ॥ १७३॥

व्योमकेशी विमानस्था वज्रिणी वामकेश्वरी ।

पञ्चयज्ञ-प्रिया पञ्च-प्रेत-मञ्चाधिशायिनी ॥ १७४॥

पञ्चमी पञ्चभूतेशी पञ्च-संख्योपचारिणी ।

शाश्वती शाश्वतैश्वर्या शर्मदा शम्भुमोहिनी ॥ १७५॥

धराधरसुता धन्या धर्मिणी धर्मवर्धिनी ।

लोकातीता गुणातीता सर्वातीता शमात्मिका ॥ १७६॥

बन्धूक-कुसुमप्रख्या बाला लीलाविनोदिनी ।

सुमङ्गली सुखकरी सुवेषाढ्या सुवासिनी ॥ १७७॥

सुवासिन्यर्चन-प्रीताऽऽशोभना शुद्धमानसा ।

बिन्दु-तर्पण-सन्तुष्टा पूर्वजा त्रिपुराम्बिका ॥ १७८॥

दशमुद्रा-समाराध्या त्रिपुराश्री-वशङ्करी ।

ज्ञानमुद्रा ज्ञानगम्या ज्ञानज्ञेय-स्वरूपिणी ॥ १७९॥

योनिमुद्रा त्रिखण्डेशी त्रिगुणाम्बा त्रिकोणगा ।

अनघाऽद्भुत-चारित्रा वाञ्छितार्थ-प्रदायिनी ॥ १८०॥

अभ्यासातिशय-ज्ञाता षडध्वातीत-रूपिणी ।

अव्याज-करुणा-मूर्तिर् अज्ञान-ध्वान्त-दीपिका ॥ १८१॥

आबाल-गोप-विदिता सर्वानुल्लङ्घ्य-शासना ।

श्रीचक्रराज-निलया श्रीमत्-त्रिपुरसुन्दरी ॥ १८२॥

श्रीशिवा शिव-शक्त्यैक्य-रूपिणी ललिताम्बिका ।

एवं श्रीललिता देव्या नाम्नां साहस्रकं जगुः ॥

॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे उत्तरखण्डे श्रीहयग्रीवागस्त्यसंवादे

श्रीललिता सहस्रनाम स्तोत्र कथनं सम्पूर्णम् ॥

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals, Stotra | Tagged , , , , | Leave a comment

आषाढ़ संकष्टी चतुर्थी : जानें शुभ मुहूर्त और पूजा विधि

संकष्टी चतुर्थी एक महत्वपूर्ण हिन्दू पर्व है, जो हर माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाई जाती है। यह दिन विशेष रूप से भगवान गणेश को समर्पित होता है। आषाढ़ मास में पड़ने वाली संकष्टी चतुर्थी का धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व होता है। इस दिन भगवान श्रीगणेश की आराधना करने से जीवन के कष्ट और विघ्न दूर होते हैं। “संकष्टी” शब्द का अर्थ होता है संकट को हरने वाला और चतुर्थी भगवान गणेश की प्रिय तिथि मानी जाती है। 

चतुर्थी के दिन उपवास और प्रार्थना से श्रीगणेश की कृपा से सुख, समृद्धि, बुद्धि और सफलता की प्राप्ति होती है। आषाढ़ मास की संकष्टी चतुर्थी मानसून के आरंभ के समय आती है, जो नई ऊर्जा और आरंभ का प्रतीक है। इस समय की गई उपासना का फल विशेष रूप से शुभ होता है।

आषाढ़ संकष्टी पूजन विधि

आषाढ़ संकष्टी के दिन  प्रातः स्नान कर व्रत का संकल्प लें। दिनभर निराहार व्रत रखें, केवल फलाहार कर सकते हैं। इस दिन भक्तगण प्रातःकाल स्नान कर व्रत का संकल्प लेते हैं। पूरे दिन व्रत रखकर वे भगवान गणेश का स्मरण करते हैं, जिससे उन्हें हर प्रकार के विघ्नों से मुक्ति मिले। गणपति बप्पा को दूर्वा, लड्डू, मोदक, लाल पुष्प अर्पित किए जाते हैं और विशेष मंत्रों से पूजा की जाती है। संकष्टी चतुर्थी की संध्या में जब चंद्रमा उदित होता है, तब उसका दर्शन कर विधिवत अर्घ्य अर्पित किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चंद्रमा के दर्शन के बिना यह व्रत पूर्ण नहीं होता।

संकष्टी चतुर्थी का पूजन चंद्रमा उदय के बाद ही पूर्ण माना जाता है। गणेश जी की प्रतिमा को स्थापित कर विधिवत पूजन करते हुए दूर्वा, शुद्ध जल, लाल फूल, मोदक आदि अर्पित करते हैं।

इस दिन एक विशेष कथा भी सुनी जाती है, जिसे संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा कहा जाता है। यह कथा भक्तों को धर्म, भक्ति और विश्वास का महत्व सिखाती है। भगवान गणेश, जो विघ्नहर्ता और बुद्धिदाता हैं, इस दिन अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। जो व्यक्ति सच्चे मन से यह व्रत करता है, उसके जीवन में आने वाली कठिनाइयां दूर होती हैं और जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है। संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा का पाठ या श्रवण करें। यह कथा व्रत के महत्व को समझाने के साथ साथ श्रद्धा को भी दृढ़ करती है।

आषाढ़ संकष्टी चतुर्थी पूजा लाभ 

हर संकष्टी चतुर्थी का नाम विशेष होता है और एक विशिष्ट कथा से जुड़ा होता है। आषाढ़ मास की संकष्टी चतुर्थी को कृष्ण पक्ष चतुर्थी भी कहा जाता है और यह दिन विशेष पुण्य प्रदान करने वाला माना जाता है।

आषाढ़ मास की संकष्टी चतुर्थी का पर्व आत्मशुद्धि, संयम और श्रद्धा का प्रतीक है। यह दिन हमारे जीवन से नकारात्मकता को हटाकर सकारात्मकता और सौभाग्य को आकर्षित करने का शुभ अवसर प्रदान करता है। जो भक्त सच्चे मन से व्रत और पूजन करते हैं, उनके जीवन में निश्चित ही सुख, समृद्धि और शांति का वास होता है।

आषाढ़ मास की संकष्टी चतुर्थी एक अत्यंत पावन और श्रद्धा से भरा हुआ पर्व है, जो भगवान गणेश की कृपा प्राप्ति हेतु मनाया जाता है। यह पर्व हर माह कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को आता है, लेकिन आषाढ़ मास की संकष्टी विशेष मानी जाती है क्योंकि यह वर्षा ऋतु के प्रारंभिक समय में आती है, जब प्रकृति भी एक नई ऊर्जा से भर जाती है। इसी प्रकार यह पर्व भी भक्तों के जीवन में नई शुरुआत, नवशक्ति और संकटों से मुक्ति का संकेत देता है।

आषाढ़ संकष्टी चतुर्थी महत्व 

आषाढ़ की यह संकष्टी चतुर्थी विशेष रूप से उन लोगों के लिए फलदायी मानी जाती है जो अपने जीवन में किसी बाधा या मानसिक उलझन से जूझ रहे हों। यह दिन केवल पूजा का नहीं, बल्कि आत्मनियंत्रण, संयम और साधना का भी प्रतीक है। व्रत करते हुए जब मन प्रभु में स्थिर होता है, तब भीतर की शक्ति जाग्रत होती है। यही शक्ति हमें हर संकट से लड़ने की हिम्मत देती है।

गणेश जी के चरणों में समर्पण का यह पर्व संकटों को हरता है व्यक्ति के जीवन में आस्था, धैर्य और सकारात्मकता लाता है। इस दिन की गई सच्चे मन से उपासना जीवन को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाती है। ऐसे ही श्रद्धा और भक्ति के साथ जब हम भगवान गणेश की आराधना करते हैं, तब वे निश्चित ही हमारे जीवन को संकटों से मुक्त कर देते हैं और हमें अपने आशीर्वाद से परिपूर्ण करते हैं।

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals | Tagged , , , , | Leave a comment

आषाढ़ माह : जानें इस माह से संबंधित विशेष बातें

ज्येष्ठ माह को वैदिक पंचांग के चतुर्थ माह के रुप में देखा जाता है जिसे आद्यात्मिक धार्मिक कार्यों के लिए उत्तम समय माना गया है. ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा के बाद ही आषाढ़ माह की शुरुआत होती है. यह महीना अपने खास दिनों और व्यवस्था के कारण प्रसिद्ध रहा है. आषाढ़ का महीना शुरू होने पर प्रकृति में भी बदलाव होने लगते हैं और ग्रह नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार भी बड़े असर इस दौरान दिखाई देते हैं. इस महीने को आध्यात्मिक और ज्योतिषीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. आइए जानें कि आषाढ़ का महीना कब से शुरू हो रहा है और इस महीने में कौन-कौन से त्योहार और व्रत पड़ेंगे

आषाढ़ महीना और उसका महत्व
आषाढ़ का महीना शुरू होने पर कई महत्वपूर्ण व्रत और त्योहार मनाए जाएंगे. आषाढ़ का महीना आध्यात्मिक और ज्योतिषीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आषाढ़ महीने में भगवान विष्णु की विशेष पूजा करने की परंपरा है. इस महीने में गुप्त नवरात्रि का व्रत भी रखा जाता है, जो देवी दुर्गा को समर्पित है. आइए जानें कब से शुरू होगा आषाढ़ मास और इस माह से जुड़े नियम क्या हैं.

आषाढ़ मास प्रारंभ तिथि
वैदिक पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि अनुसार आषाढ़ मास शुरू होता है. आषाढ़ मास को वह महीना माना जाता है जिसमें व्यक्ति अपनी सभी मनोकामनाएं पूरी कर सकता है. इसलिए इस महीने में पौराणिक महत्व वाले मंदिरों और प्राचीन तीर्थों के दर्शन करने चाहिए.

आषाढ़ मास की देवशयनी एकादशी पर भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं. श्री हरि की पूजा करने से व्यक्ति की विचार प्रक्रिया शुद्ध होती है और उसका जीवन खुशियों से भर जाता है. वहीं, आषाढ़ माह में गुप्त नवरात्रि के दौरान देवी दुर्गा की पूजा करने से लोगों को उनकी समस्याओं से राहत मिलती है. आषाढ़ माह में क्या करें? – “ॐ नमः शिवाय, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ रामदूताय नमः, क्रीं कृष्णाय नमः और ॐ रां रामाय नमः” मंत्र का जाप करें और प्रतिदिन सुबह पूजा करते समय ध्यान करें.

आषाढ़ माह में प्रतिदिन सूर्योदय से पहले उठकर सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए. धन-धान्य के साथ-साथ जरूरतमंद लोगों को वस्त्र और छाते का भी दान करना चाहिए. इस माह में तीर्थ यात्रा करने से न केवल पुण्य मिलता है, बल्कि अच्छा स्वास्थ्य और आध्यात्मिक शांति भी मिलती है.

आषाढ़ मास व्रत त्योहार सूची
आषाढ़ माह में आने वाले व्रत और त्यौहार भक्ति के साथ साथ जीवन को शुभता प्रदान करने वाले होते हैं. इस समय पर भगवान श्री हरि का पूजन एवं शक्ति पूजन विशेष होता है. इस माह आने वाले कुछ खास त्यौहार इस प्रकार हैं :

कृष्णपिंगल संकष्टी चतुर्थी व्रत
कालाष्टमी व्रत
योगिनी एकादशी व्रत
प्रदोष व्रत
मासिक शिवरात्रि व्रत
आषाढ़ अमावस्या व्रत, आषाढ़ गुप्त नवरात्रि प्रारम्भ
जगन्नाथ रथ यात्रा
विनायक चतुर्थी व्रत
स्कंद षष्ठी व्रत
मासिक दुर्गाष्टमी, कर्क संक्रांति
देवशयनी एकादशी, गौरी व्रत प्रारम्भ
प्रदोष व्रत
गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ पूर्णिमा व्रत

आषाढ़ मास से चतुर्मास की शुरुआत होती है, जब भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं और चार महीनों तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है, इसलिए इसे शून्य मास और चतुर्मास के नाम से भी जाना जाता है. हालाँकि इस महीने में कोई भी शुभ कार्य निर्धारित नहीं है, लेकिन आषाढ़ को तीर्थयात्राओं के लिए साल का सबसे अच्छा समय माना जाता है

कबीर जयंती महत्व और अनुष्ठान
आषाढ़ चौथा हिंदू चंद्र महीना है जो आज, 23 जून 2024 को शुरू हुआ. आषाढ़ का हिंदू महीना मानसून की शुरुआत का प्रतीक है. कुछ प्रतिकूल मान्यताओं के कारण, आषाढ़ माह को शून्य मास के रूप में मनाया जाता है. आषाढ़ माह को विवाह, गृह प्रवेश और पवित्र धागा समारोह जैसे अन्य शुभ कार्यों के लिए अशुभ माना जाता है. आषाढ़ महीने में दक्षिणायन की शुरुआत होती है और इस अवधि के दौरान भक्तों को सप्तमातृका शक्ति देवी, भगवान भैरव, भगवान नरसिंह और महिषासुर की पूजा करनी चाहिए. आषाढ़ महीने में और भी कई मान्यताएँ उजागर होती हैं.

आषाढ़ महीने को शून्य मास और चातुर्मास के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह चातुर्मास की शुरुआत का प्रतीक है, एक ऐसा समय जब भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं और चार महीने तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है.

भले ही इस महीने के दौरान कोई शुभ काम की योजना नहीं बनाई जाती है, लेकिन आषाढ़ को भक्ति साधना की यात्रा पर जाने के लिए सबसे बढ़िया समय माना जाता है. यह महीना विशेष रूप से प्रार्थना और अनुष्ठानों के लिए महत्वपूर्ण है और भक्त की हर इच्छा पूरी होती है. इस महीने, भगवान जगन्नाथ के सम्मान में एक शानदार यात्रा होती है जो चारों ओर से दर्शकों को आकर्षित करती है. विशेष रूप से चातुर्मास के दौरान शुभ और मांगलिक कार्यों से परहेज करने की सलाह दी जाती है इसलिए इस महीने में प्रार्थना और अनुष्ठानों पर अधिक ध्यान देना चाहिए.

आषाढ़ माह से चातुर्मास की शुरुआत भी होती है, जो एक महत्वपूर्ण अवधि है जब भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं.

आषाढ़ मास के दौरान करने योग्य कार्य
आषाढ़ के दौरान, भगवान विष्णु और भगवान शिव के अलावा देवी लक्ष्मी और भगवान सूर्य की पूजा करने की सलाह दी जाती है. इस महीने के दौरान, हर सुबह सूर्य को जल देने की सलाह दी जाती है. इस क्रिया के परिणामस्वरूप धन, सफलता और सम्मान अर्जित होता है. आषाढ़ के दौरान, जो लोग सूर्य देव की पूजा करते हैं और उनके सम्मान में अनुष्ठान करते हैं, वे अक्सर बीमारियों और कमियों से ठीक होने का अनुभव करते हैं.

इस दौरान, कमल, लाल या कनेर के फूलों से भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की पूजा करने को प्रोत्साहित किया जाता है. भले ही बहुत ज़्यादा सौभाग्यपूर्ण घटनाएं न हों, लेकिन आषाढ़ का धार्मिक और रीति-रिवाज़ों में बहुत महत्व है. इस समय यज्ञ और दान का भी बहुत महत्व है. आषाढ़ के दौरान यज्ञ और हवन करने वालों को देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु विशेष लाभ प्रदान करते हैं.

Posted in Fast | Leave a comment

मंगलवारी अमावस्या जानें पूजा विधि और महत्व

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, मंगलवार को पड़ने वाली अमावस्या को मंगलवारी अमावस्या कहते हैं. इस दिन पितृ संबंधी सभी तरह के कार्य किए जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि मंगलवारी अमावस्या पर पितृ दान और तर्पण करने वाले को पितरों का आशीर्वाद मिलता है.

मंगलवारी अमावस्या के दिन दान, स्नान आदि करने का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है. महर्षि व्यास के अनुसार इस दिन स्नान और दान करने से एक हजार गायों के दान के बराबर फल मिलता है. मंगलवारी अमावस्या के दिन पीपल के पेड़ और भगवान विष्णु की पूजा करने की परंपरा है. दुनिया भर से लोग पवित्र नदियों में स्नान करने के लिए हरिद्वार, काशी आदि तीर्थ स्थानों पर जाते हैं.

इस दिन कुरुक्षेत्र के ब्रह्म सरोवर में स्नान करने का विशेष महत्व है और इसे बहुत शुभ माना जाता है. इस स्थान पर दान-पुण्य और पवित्र स्नान करने वाले व्यक्ति को पुण्य फल की प्राप्ति होती है. सूर्योदय से सूर्यास्त तक पवित्र नदियों में स्नान करने वाले हजारों भक्तों को देखा जा सकता है. जो भक्त ये सभी कार्य करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

मंगलवारी अमावस्या का महत्व

चंद्र कैलेंडर के प्रत्येक माह में अमावस्या आती है. चंद्रमा के दो चरण होते हैं: शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष. कृष्ण पक्ष का अंत अमावस्या से होता है, जबकि शुक्ल पक्ष का अंत पूर्णिमा से होता है.

ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मृत पूर्वजों के निमित्त दान, स्नान, व्रत, तर्पण, होम आदि करना शुभ माना जाता है. ज्येष्ठ मास की अमावस्या का महत्व अन्य अमावस्याओं की अपेक्षा अधिक होता है. प्राचीन शास्त्रों में वर्णित अनुष्ठानों के अनुसार, ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर भगवान की पूजा करनी चाहिए.

मंगलवारी अमावस्या तिथि पर परिवार के मृत पूर्वजों की मुक्ति के लिए सभी कार्य किए जाते हैं. शास्त्रों के अनुसार अमावस्या के स्वामी पितृ देव हैं, इसलिए इस तिथि पर तर्पण, होम, पितृदान का विशेष महत्व है. अनुराधा, विशाखा या स्वाति नक्षत्र में सोमवार, मंगलवार और गुरुवार को पड़ने वाली अमावस्या बहुत शुभ मानी जाती है. इसी प्रकार शनिवार और चतुर्दशी को बनने वाले अमावस्या के योग भी अच्छे परिणाम देते हैं.

जो लोग इन योगों में तर्पण, होम, दान, तीर्थ स्नान करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं और अंत में मोक्ष प्राप्त करते हैं. विभिन्न हिंदू शास्त्रों में कुछ व्रत-उपवासों का वर्णन किया गया है, जिन्हें जीवन के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्टों से मुक्ति पाने के लिए श्रद्धा और भक्ति के साथ किया जाना चाहिए.

मंगलवारी अमावस्या का लाभ 

मंगलवारी अमावस्या एक विशेष तिथि होती है, जो उस समय आती है जब अमावस्या मंगलवार के दिन पड़ती है. यह संयोजन अत्यंत शुभ और फलदायक माना जाता है, विशेषकर धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से. हिन्दू पंचांग के अनुसार, यह दिन पितरों को तर्पण, दान-पुण्य, उपवास और विशेष पूजा के लिए अत्यंत उत्तम होता है.

इस दिन का मुख्य लाभ पितृ दोष निवारण, ग्रह बाधा मुक्ति और रोग शमन में माना जाता है. विशेषकर जो लोग अपने जीवन में आर्थिक समस्याओं, वैवाहिक बाधाओं, या संतान संबंधी कष्टों से परेशान हैं, उनके लिए भोमवती अमावस्या अत्यंत शुभ अवसर होता है. ऐसी मान्यता है कि इस दिन किए गए पुण्य कर्मों का फल कई गुना बढ़कर प्राप्त होता है.

अमावस्या पर गंगा स्नान, तर्पण और ब्राह्मण भोज का विशेष महत्व है. यह कार्य करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है. इसके अलावा, हनुमान जी और भैरव बाबा की पूजा करने से मंगल दोष और अन्य ग्रह बाधाओं से मुक्ति मिलती है.

इस दिन व्रत और ध्यान करने से आत्मशुद्धि होती है और मन को शांति मिलती है. अनेक साधक इस दिन मौन व्रत और ध्यान करते हैं, जिससे उन्हें आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है. यह दिन साधना और तंत्र सिद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है.

मंगलवार में आने वाली अमावस्या पर दान करने से मानसिक संतुलन, करुणा और परोपकार की भावना विकसित होती है. अन्न, वस्त्र, धन और ज़रूरतमंदों की सहायता करने से आत्मिक संतोष मिलता है और समाज में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है.

उपाय

पीपल के पेड़ की पूजा करें और सात बार परिक्रमा करें.

जल में काले तिल डालकर सूर्य को अर्घ्य दें.

हनुमान चालीसा का पाठ करें और हनुमान मंदिर में सिंदूर चढ़ाएं.

ताम्र पात्र में जल, तिल और चावल डालकर पितरों के नाम से बहते जल में अर्पण करें.

इस प्रकार, भोमवती अमावस्या न केवल एक पवित्र तिथि है, बल्कि एक अवसर भी है अपने जीवन के आध्यात्मिक, मानसिक और सांसारिक पक्ष को संतुलित और सशक्त बनाने का.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Religious Places, Hindu Rituals, Muhurta, Puja and Rituals | Tagged , , , | Leave a comment

गुप्त नवरात्रि काली पूजा : श्री काली सहस्त्रनाम पाठ पूर्ण होगी साधना

गुप्त नवरात्रि का समय दस महाविद्याओं की शक्ति साधना होती है। काली महाविद्या का समय भक्तों के लिए विशेष होता है। काली साधना में भक्त माघ नवरात्रि और आषाढ़ गुप्त नवरात्रि का समय विशेष माना गया है। इस दौरान शक्ति साधना बहुत विशेष मानी जाती है।   

श्री काली सहस्त्रनाम

श्मशान-कालिका काली भद्रकाली कपालिनी ।

गुह्य-काली महाकाली कुरु-कुल्ला विरोधिनी ।।1।।

कालिका काल-रात्रिश्च महा-काल-नितम्बिनी ।

काल-भैरव-भार्या च कुल-वत्र्म-प्रकाशिनी ।।2।।

कामदा कामिनीया कन्या कमनीय-स्वरूपिणी ।

कस्तूरी-रस-लिप्ताङ्गी कुञ्जरेश्वर-गामिनी ।।3।।

ककार-वर्ण-सर्वाङ्गी कामिनी काम-सुन्दरी ।

कामात्र्ता काम-रूपा च काम-धेनुु: कलावती ।।4।।

कान्ता काम-स्वरूपा च कामाख्या कुल-कामिनी ।

कुलीना कुल-वत्यम्बा दुर्गा दुर्गति-नाशिनी ।।5।।

कौमारी कुलजा कृष्णा कृष्ण-देहा कृशोदरी ।

कृशाङ्गी कुलाशाङ्गी च क्रीज्ररी कमला कला ।।6।।

करालास्य कराली च कुल-कांतापराजिता ।

उग्रा उग्र-प्रभा दीप्ता विप्र-चित्ता महा-बला ।।7।।

नीला घना मेघ-नाद्रा मात्रा मुद्रा मिताऽमिता ।

ब्राह्मी नारायणी भद्रा सुभद्रा भक्त-वत्सला ।।8।।

माहेश्वरी च चामुण्डा वाराही नारसिंहिका ।

वङ्कांगी वङ्का-कंकाली नृ-मुण्ड-स्रग्विणी शिवा ।।9।।

मालिनी नर-मुण्डाली-गलद्रक्त-विभूषणा ।

रक्त-चन्दन-सिक्ताङ्गी सिंदूरारुण-मस्तका ।।10।।

घोर-रूपा घोर-दंष्ट्रा घोरा घोर-तरा शुभा ।

महा-दंष्ट्रा महा-माया सुदन्ती युग-दन्तुरा ।।11।।

सुलोचना विरूपाक्षी विशालाक्षी त्रिलोचना ।

शारदेन्दु-प्रसन्नस्या स्पुरत्-स्मेराम्बुजेक्षणा ।।12।।

अट्टहासा प्रफुल्लास्या स्मेर-वक्त्रा सुभाषिणी ।

प्रफुल्ल-पद्म-वदना स्मितास्या प्रिय-भाषिणी ।।13।।

कोटराक्षी कुल-श्रेष्ठा महती बहु-भाषिणी ।

सुमति: मतिश्चण्डा चण्ड-मुण्डाति-वेगिनी ।।14।।

प्रचण्डा चण्डिका चण्डी चर्चिका चण्ड-वेगिनी ।

सुकेशी मुक्त-केशी च दीर्घ-केशी महा-कचा ।।15।।

पे्रत-देही-कर्ण-पूरा प्रेत-पाणि-सुमेखला ।

प्रेतासना प्रिय-प्रेता प्रेत-भूमि-कृतालया ।।16।।

श्मशान-वासिनी पुण्या पुण्यदा कुल-पण्डिता ।

पुण्यालया पुण्य-देहा पुण्य-श्लोका च पावनी ।।17।।

पूता पवित्रा परमा परा पुण्य-विभूषणा ।

पुण्य-नाम्नी भीति-हरा वरदा खङ्ग-पाशिनी ।।18।।

नृ-मुण्ड-हस्ता शस्त्रा च छिन्नमस्ता सुनासिका ।

दक्षिणा श्यामला श्यामा शांता पीनोन्नत-स्तनी ।।19।।

दिगम्बरा घोर-रावा सृक्कान्ता-रक्त-वाहिनी ।

महा-रावा शिवा संज्ञा नि:संगा मदनातुरा ।।20।।

मत्ता प्रमत्ता मदना सुधा-सिन्धु-निवासिनी ।

अति-मत्ता महा-मत्ता सर्वाकर्षण-कारिणी ।।21।।

गीत-प्रिया वाद्य-रता प्रेत-नृत्य-परायणा ।

चतुर्भुजा दश-भुजा अष्टादश-भुजा तथा ।।22।।

कात्यायनी जगन्माता जगती-परमेश्वरी ।

जगद्-बन्धुर्जगद्धात्री जगदानन्द-कारिणी ।।23।।

जगज्जीव-मयी हेम-वती महामाया महा-लया ।

नाग-यज्ञोपवीताङ्गी नागिनी नाग-शायनी ।।24।।

नाग-कन्या देव-कन्या गान्धारी किन्नरेश्वरी ।

मोह-रात्री महा-रात्री दरुणाभा सुरासुरी ।।25।।

विद्या-धरी वसु-मती यक्षिणी योगिनी जरा ।

राक्षसी डाकिनी वेद-मयी वेद-विभूषणा ।।26।।

श्रुति-स्मृतिर्महा-विद्या गुह्य-विद्या पुरातनी ।

चिंताऽचिंता स्वधा स्वाहा निद्रा तन्द्रा च पार्वती ।।27।।

अर्पणा निश्चला लीला सर्व-विद्या-तपस्विनी ।

गङ्गा काशी शची सीता सती सत्य-परायणा ।।28।।

नीति: सुनीति: सुरुचिस्तुष्टि: पुष्टिर्धृति: क्षमा ।

वाणी बुद्धिर्महा-लक्ष्मी लक्ष्मीर्नील-सरस्वती ।।29।।

स्रोतस्वती स्रोत-वती मातङ्गी विजया जया ।

नदी सिन्धु: सर्व-मयी तारा शून्य निवासिनी ।।30।।

शुद्धा तरंगिणी मेधा शाकिनी बहु-रूपिणी ।

सदानन्द-मयी सत्या सर्वानन्द-स्वरूपणि ।।31।।

स्थूला सूक्ष्मा सूक्ष्म-तरा भगवत्यनुरूपिणी ।

परमार्थ-स्वरूपा च चिदानन्द-स्वरूपिणी ।।32।।

सुनन्दा नन्दिनी स्तुत्या स्तवनीया स्वभाविनी ।

रंकिणी टंकिणी चित्रा विचित्रा चित्र-रूपिणी ।।33।।

पद्मा पद्मालया पद्म-मुखी पद्म-विभूषणा ।

शाकिनी हाकिनी क्षान्ता राकिणी रुधिर-प्रिया ।।34।।

भ्रान्तिर्भवानी रुद्राणी मृडानी शत्रु-मर्दिनी ।

उपेन्द्राणी महेशानी ज्योत्स्ना चन्द्र-स्वरूपिणी ।।35।।

सूय्र्यात्मिका रुद्र-पत्नी रौद्री स्त्री प्रकृति: पुमान् ।

शक्ति: सूक्तिर्मति-मती भक्तिर्मुक्ति: पति-व्रता ।।36।।

सर्वेश्वरी सर्व-माता सर्वाणी हर-वल्लभा ।

सर्वज्ञा सिद्धिदा सिद्धा भाव्या भव्या भयापहा ।।37।।

कर्त्री हर्त्री पालयित्री शर्वरी तामसी दया ।

तमिस्रा यामिनीस्था न स्थिरा धीरा तपस्विनी ।।38।।

चार्वङ्गी चंचला लोल-जिह्वा चारु-चरित्रिणी ।

त्रपा त्रपा-वती लज्जा निर्लज्जा ह्नीं रजोवती ।।39।।

सत्व-वती धर्म-निष्ठा श्रेष्ठा निष्ठुर-वादिनी ।

गरिष्ठा दुष्ट-संहत्री विशिष्टा श्रेयसी घृणा ।।40।।

भीमा भयानका भीमा-नादिनी भी: प्रभावती ।

वागीश्वरी श्रीर्यमुना यज्ञ-कत्र्री यजु:-प्रिया ।।41।।

ऋक्-सामाथर्व-निलया रागिणी शोभन-स्वरा ।

कल-कण्ठी कम्बु-कण्ठी वेणु-वीणा-परायणा ।।42।।

वशिनी वैष्णवी स्वच्छा धात्री त्रि-जगदीश्वरी ।

मधुमती कुण्डलिनी शक्ति: ऋद्धि: सिद्धि: शुचि-स्मिता ।।43।।

रम्भोवैशी रती रामा रोहिणी रेवती मघा ।

शङ्खिनी चक्रिणी कृष्णा गदिनी पद्मनी तथा ।।44।।

शूलिनी परिघास्त्रा च पाशिनी शाङ्र्ग-पाणिनी ।

पिनाक-धारिणी धूम्रा सुरभि वन-मालिनी ।।45।।

रथिनी समर-प्रीता च वेगिनी रण-पण्डिता ।

जटिनी वङ्किाणी नीला लावण्याम्बुधि-चन्द्रिका ।।46।।

बलि-प्रिया महा-पूज्या पूर्णा दैत्येन्द्र-मन्थिनी ।

महिषासुर-संहन्त्री वासिनी रक्त-दन्तिका ।।47।।

रक्तपा रुधिराक्ताङ्गी रक्त-खर्पर-हस्तिनी ।

रक्त-प्रिया माँस – रुधिरासवासक्त-मानसा ।।48।।

गलच्छोेणित-मुण्डालि-कण्ठ-माला-विभूषणा ।

शवासना चितान्त:स्था माहेशी वृष-वाहिनी ।।49।।

व्याघ्र-त्वगम्बरा चीर-चेलिनी सिंह-वाहिनी ।

वाम-देवी महा-देवी गौरी सर्वज्ञ-भाविनी ।।50।।

बालिका तरुणी वृद्धा वृद्ध-माता जरातुरा ।

सुभ्रुर्विलासिनी ब्रह्म-वादिनि ब्रह्माणी मही ।।51।।

स्वप्नावती चित्र-लेखा लोपा-मुद्रा सुरेश्वरी ।

अमोघाऽरुन्धती तीक्ष्णा भोगवत्यनुवादिनी ।।52।।

मन्दाकिनी मन्द-हासा ज्वालामुख्यसुरान्तका ।

मानदा मानिनी मान्या माननीया मदोद्धता ।।53।।

मदिरा मदिरोन्मादा मेध्या नव्या प्रसादिनी ।

सुमध्यानन्त-गुणिनी सर्व-लोकोत्तमोत्तमा ।।54।।

जयदा जित्वरा जेत्री जयश्रीर्जय-शालिनी ।

सुखदा शुभदा सत्या सभा-संक्षोभ-कारिणी ।।55।।

शिव-दूती भूति-मती विभूतिर्भीषणानना ।

कौमारी कुलजा कुन्ती कुल-स्त्री कुल-पालिका ।।56।।

कीर्तिर्यशस्विनी भूषां भूष्या भूत-पति-प्रिया ।

सगुणा-निर्गुणा धृष्ठा कला-काष्ठा प्रतिष्ठिता ।।57।।

धनिष्ठा धनदा धन्या वसुधा स्व-प्रकाशिनी ।

उर्वी गुर्वी गुरु-श्रेष्ठा सगुणा त्रिगुणात्मिका ।।58।।

महा-कुलीना निष्कामा सकामा काम-जीवना ।

काम-देव-कला रामाभिरामा शिव-नर्तकी ।।59।।

चिन्तामणि: कल्पलता जाग्रती दीन-वत्सला ।

कार्तिकी कृत्तिका कृत्या अयोेध्या विषमा समा ।।60।।

सुमंत्रा मंत्रिणी घूर्णा ह्लादिनी क्लेश-नाशिनी ।

त्रैलोक्य-जननी हृष्टा निर्मांसा मनोरूपिणी ।।61।।

तडाग-निम्न-जठरा शुष्क-मांसास्थि-मालिनी ।

अवन्ती मथुरा माया त्रैलोक्य-पावनीश्वरी ।।62।।

व्यक्ताव्यक्तानेक-मूर्ति: शर्वरी भीम-नादिनी ।

क्षेमज्र्री शंकरी च सर्व- सम्मोह-कारिणी ।।63।।

ऊध्र्व-तेजस्विनी क्लिन्न महा-तेजस्विनी तथा ।

अद्वैत भोगिनी पूज्या युवती सर्व-मङ्गला ।।64।।

सर्व-प्रियंकरी भोग्या धरणी पिशिताशना ।

भयंकरी पाप-हरा निष्कलंका वशंकरी ।।65।।

आशा तृष्णा चन्द्र-कला निद्रिका वायु-वेगिनी ।

सहस्र-सूर्य संकाशा चन्द्र-कोटि-सम-प्रभा ।।66।।

वह्नि-मण्डल-मध्यस्था सर्व-तत्त्व-प्रतिष्ठिता ।

सर्वाचार-वती सर्व-देव – कन्याधिदेवता ।।67।।

दक्ष-कन्या दक्ष-यज्ञ नाशिनी दुर्ग तारिणी ।

इज्या पूज्या विभीर्भूति: सत्कीर्तिब्र्रह्म-रूपिणी ।।68।।

रम्भीश्चतुरा राका जयन्ती करुणा कुहु: ।

मनस्विनी देव-माता यशस्या ब्रह्म-चारिणी ।।69।।

ऋद्धिदा वृद्धिदा वृद्धि: सर्वाद्या सर्व-दायिनी ।

आधार-रूपिणी ध्येया मूलाधार-निवासिनी ।।70।।

आज्ञा प्रज्ञा-पूर्ण-मनाश्चन्द्र-मुख्यानुवूलिनी ।

वावदूका निम्न-नाभि: सत्या सन्ध्या दृढ़-व्रता ।।71।।

आन्वीक्षिकी दंड-नीतिस्त्रयी त्रि-दिव-सुन्दरी ।

ज्वलिनी ज्वालिनी शैल-तनया विन्ध्य-वासिनी ।।72।।

अमेया खेचरी धैर्या तुरीया विमलातुरा ।

प्रगल्भा वारुणीच्छाया शशिनी विस्पुलिङ्गिनी ।।73।।

भुक्ति सिद्धि सदा प्राप्ति: प्राकम्या महिमाणिमा ।

इच्छा-सिद्धिर्विसिद्धा च वशित्वीध्र्व-निवासिनी ।।74।।

लघिमा चैव गायित्री सावित्री भुवनेश्वरी ।

मनोहरा चिता दिव्या देव्युदारा मनोरमा ।।75।।

पिंगला कपिला जिह्वा-रसज्ञा रसिका रसा ।

सुषुम्नेडा भोगवती गान्धारी नरकान्तका ।।76।।

पाञ्चाली रुक्मिणी राधाराध्या भीमाधिराधिका ।

अमृता तुलसी वृन्दा वैटभी कपटेश्वरी ।।77।।

उग्र-चण्डेश्वरी वीर-जननी वीर-सुन्दरी ।

उग्र-तारा यशोदाख्या देवकी देव-मानिता ।।78।।

निरन्जना चित्र-देवी क्रोधिनी कुल-दीपिका ।

कुल-वागीश्वरी वाणी मातृका द्राविणी द्रवा ।।79।।

योगेश्वरी-महा-मारी भ्रामरी विन्दु-रूपिणी ।

दूती प्राणेश्वरी गुप्ता बहुला चामरी-प्रभा ।।80।।

कुब्जिका ज्ञानिनी ज्येष्ठा भुशुंडी प्रकटा तिथि: ।

द्रविणी गोपिनी माया काम-बीजेश्वरी क्रिया ।।81।।

शांभवी केकरा मेना मूषलास्त्रा तिलोत्तमा ।

अमेय-विक्रमा व्रूâरा सम्पत्-शाला त्रिलोचना ।।82।।

सुस्थी हव्य-वहा प्रीतिरुष्मा धूम्रार्चिरङ्गदा ।

तपिनी तापिनी विश्वा भोगदा धारिणी धरा ।।83।।

त्रिखंडा बोधिनी वश्या सकला शब्द-रूपिणी ।

बीज-रूपा महा-मुद्रा योगिनी योनि-रूपिणी ।।84।।

अनङ्ग – मदनानङ्ग – लेखनङ्ग – कुशेश्वरी ।

अनङ्ग-मालिनि-कामेशी देवि सर्वार्थ-साधिका ।।85।।

सर्व-मन्त्र-मयी मोहिन्यरुणानङ्ग-मोहिनी ।

अनङ्ग-कुसुमानङ्ग-मेखलानङ्ग – रूपिणी ।।86।।

वङ्कोश्वरी च जयिनी सर्व-द्वन्द्व-क्षयज्र्री ।

षडङ्ग-युवती योग-युक्ता ज्वालांशु-मालिनी ।।87।।

दुराशया दुराधारा दुर्जया दुर्ग-रूपिणी ।

दुरन्ता दुष्कृति-हरा दुध्र्येया दुरतिक्रमा ।।88।।

हंसेश्वरी त्रिकोणस्था शाकम्भर्यनुकम्पिनी ।

त्रिकोण-निलया नित्या परमामृत-रञ्जिता ।।89।।

महा-विद्येश्वरी श्वेता भेरुण्डा कुल-सुन्दरी ।

त्वरिता भक्त-संसक्ता भक्ति-वश्या सनातनी ।।90।।

भक्तानन्द-मयी भक्ति-भाविका भक्ति-शज्र्री ।

सर्व-सौन्दर्य-निलया सर्व-सौभाग्य-शालिनी ।।91।।

सर्व-सौभाग्य-भवना सर्व सौख्य-निरूपिणी ।

कुमारी-पूजन-रता कुमारी-व्रत-चारिणी ।।92।।

कुमारी-भक्ति-सुखिनी कुमारी-रूप-धारिणी ।

कुमारी-पूजक-प्रीता कुमारी प्रीतिदा प्रिया ।।93।।

कुमारी-सेवकासंगा कुमारी-सेवकालया ।

आनन्द-भैरवी बाला भैरवी वटुक-भैरवी ।।94।।

श्मशान-भैरवी काल-भैरवी पुर-भैरवी ।

महा-भैरव-पत्नी च परमानन्द-भैरवी ।।95।।

सुधानन्द-भैरवी च उन्मादानन्द-भैरवी ।

मुक्तानन्द-भैरवी च तथा तरुण-भैरवी ।।96।।

ज्ञानानन्द-भैरवी च अमृतानन्द-भैरवी ।

महा-भयज्र्री तीव्रा तीव्र-वेगा तपस्विनी ।।97।।

त्रिपुरा परमेशानी सुन्दरी पुर-सुन्दरी ।

त्रिपुरेशी पञ्च-दशी पञ्चमी पुर-वासिनी ।।98।।

महा-सप्त-दशी चैव षोडशी त्रिपुरेश्वरी ।

महांकुश-स्वरूपा च महा-चव्रेश्वरी तथा ।।99।।

नव-चव्रेâश्वरी चक्र-ईश्वरी त्रिपुर-मालिनी ।

राज-राजेश्वरी धीरा महा-त्रिपुर-सुन्दरी ।।100।।

सिन्दूर-पूर-रुचिरा श्रीमत्त्रिपुर-सुन्दरी ।

सर्वांग-सुन्दरी रक्ता रक्त-वस्त्रोत्तरीयिणी ।।101।।

जवा-यावक-सिन्दूर -रक्त-चन्दन-धारिणी ।

त्रिकूटस्था पञ्च-कूटा सर्व-वूट-शरीरिणी ।।102।।

चामरी बाल-कुटिल-निर्मल-श्याम-केशिनी ।

वङ्का-मौक्तिक-रत्नाढ्या-किरीट-मुकुटोज्ज्वला ।।103।।

रत्न-कुण्डल-संसक्त-स्फुरद्-गण्ड-मनोरमा ।

कुञ्जरेश्वर-कुम्भोत्थ-मुक्ता-रञ्जित-नासिका ।।104।।

मुक्ता-विद्रुम-माणिक्य-हाराढ्य-स्तन-मण्डला ।

सूर्य-कान्तेन्दु-कान्ताढ्य-कान्ता-कण्ठ-भूषणा ।।105।।

वीजपूर-स्फुरद्-वीज -दन्त – पंक्तिरनुत्तमा ।

काम-कोदण्डकाभुग्न-भ्रू-कटाक्ष-प्रवर्षिणी ।।106।।

मातंग-कुम्भ-वक्षोजा लसत्कोक-नदेक्षणा ।

मनोज्ञ-शुष्कुली-कर्णा हंसी-गति-विडम्बिनी ।।107।।

पद्म-रागांगदा-ज्योतिर्दोश्चतुष्क-प्रकाशिनी ।

नाना-मणि-परिस्फूर्जच्दृद्ध-कांचन-वंकणा ।।108।।

नागेन्द्र-दन्त-निर्माण-वलयांचित-पाणिनी ।

अंगुरीयक-चित्रांगी विचित्र-क्षुद्र-घण्टिका ।।109।।

पट्टाम्बर-परीधाना कल-मञ्जीर-शिंजिनी ।

कर्पूरागरु-कस्तूरी-कुंकुम-द्रव-लेपिता ।।110।।

विचित्र-रत्न-पृथिवी-कल्प-शाखि-तल-स्थिता ।

रत्न-द्वीप-स्पुâरद्-रक्त-सिंहासन-विलासिनी ।।111।।

षट्-चक्र-भेदन-करी परमानन्द-रूपिणी ।

सहस्र-दल – पद्यान्तश्चन्द्र – मण्डल-वर्तिनी ।।112।।

ब्रह्म-रूप-शिव-क्रोड-नाना-सुख-विलासिनी ।

हर-विष्णु-विरंचीन्द्र-ग्रह – नायक-सेविता ।।113।।

शिवा शैवा च रुद्राणी तथैव शिव-वादिनी ।

मातंगिनी श्रीमती च तथैवानन्द-मेखला ।।114।।

डाकिनी योगिनी चैव तथोपयोगिनी मता ।

माहेश्वरी वैष्णवी च भ्रामरी शिव-रूपिणी ।।115।।

अलम्बुषा वेग-वती क्रोध-रूपा सु-मेखला ।

गान्धारी हस्ति-जिह्वा च इडा चैव शुभज्र्री ।।116।।

पिंगला ब्रह्म-सूत्री च सुषुम्णा चैव गन्धिनी ।

आत्म-योनिब्र्रह्म-योनिर्जगद-योनिरयोनिजा ।।117।।

भग-रूपा भग-स्थात्री भगनी भग-रूपिणी ।

भगात्मिका भगाधार-रूपिणी भग-मालिनी ।।118।।

लिंगाख्या चैव लिंगेशी त्रिपुरा-भैरवी तथा ।

लिंग-गीति: सुगीतिश्च लिंगस्था लिंग-रूप-धृव् ।।119।।

लिंग-माना लिंग-भवा लिंग-लिंगा च पार्वती ।

भगवती कौशिकी च प्रेमा चैव प्रियंवदा ।।120।।

गृध्र-रूपा शिवा-रूपा चक्रिणी चक्र-रूप-धृव् ।

लिंगाभिधायिनी लिंग-प्रिया लिंग-निवासिनी ।।121।।

लिंगस्था लिंगनी लिंग-रूपिणी लिंग-सुन्दरी ।

लिंग-गीतिमहा-प्रीता भग-गीतिर्महा-सुखा ।।122।।

लिंग-नाम-सदानंदा भग-नाम सदा-रति: ।

लिंग-माला-वंâठ-भूषा भग-माला-विभूषणा ।।123।।

भग-लिंगामृत-प्रीता भग-लिंगामृतात्मिका ।

भग-लिंगार्चन-प्रीता भग-लिंग-स्वरूपिणी ।।124।।

भग-लिंग-स्वरूपा च भग-लिंग-सुखावहा ।

स्वयम्भू-कुसुम-प्रीता स्वयम्भू-कुसुमार्चिता ।।125।।

स्वयम्भू-पुष्प-प्राणा स्वयम्भू-कुसुमोत्थिता ।

स्वयम्भू-कुसुम-स्नाता स्वयम्भू-पुष्प-तर्पिता ।।126।।

स्वयम्भू-पुष्प-घटिता स्वयम्भू-पुष्प-धारिणी ।

स्वयम्भू-पुष्प-तिलका स्वयम्भू-पुष्प-चर्चिता ।।127।।

स्वयम्भू-पुष्प-निरता स्वयम्भू-कुसुम-ग्रहा ।

स्वयम्भू-पुष्प-यज्ञांगा स्वयम्भूकुसुमात्मिका ।।128।।

स्वयम्भू-पुष्प-निचिता स्वयम्भू-कुसुम-प्रिया ।

स्वयम्भू-कुसुमादान-लालसोन्मत्त – मानसा ।।129।।

स्वयम्भू-कुसुमानन्द-लहरी-स्निग्ध देहिनी ।

स्वयम्भू-कुसुमाधारा स्वयम्भू-वुुसुमा-कला ।।130।।

स्वयम्भू-पुष्प-निलया स्वयम्भू-पुष्प-वासिनी ।

स्वयम्भू-कुसुम-स्निग्धा स्वयम्भू-कुसुमात्मिका ।।131।।

स्वयम्भू-पुष्प-कारिणी स्वयम्भू-पुष्प-पाणिका ।

स्वयम्भू-कुसुम-ध्याना स्वयम्भू-कुसुम-प्रभा ।।132।।

स्वयम्भू-कुसुम-ज्ञाना स्वयम्भू-पुष्प-भोगिनी ।

स्वयम्भू-कुसुमोल्लास स्वयम्भू-पुष्प-वर्षिणी ।।133।।

स्वयम्भू-कुसुमोत्साहा स्वयम्भू-पुष्प-रूपिणी ।

स्वयम्भू-कुसुमोन्मादा स्वयम्भू पुष्प-सुन्दरी ।।134।।

स्वयम्भू-कुसुमाराध्या स्वयम्भू-कुसुमोद्भवा ।

स्वयम्भू-कुसुम-व्यग्रा स्वयम्भू-पुष्प-पूर्णिता ।।135।।

स्वयम्भू-पूजक-प्रज्ञा स्वयम्भू-होतृ-मातृका ।

स्वयम्भू-दातृ-रक्षित्री स्वयम्भू-रक्त-तारिका ।।136।।

स्वयम्भू-पूजक-ग्रस्ता स्वयम्भू-पूजक-प्रिया ।

स्वयम्भू-वन्दकाधारा स्वयम्भू-निन्दकान्तका ।।137।।

स्वयम्भू-प्रद-सर्वस्वा स्वयम्भू-प्रद-पुत्रिणी ।

स्वम्भू-प्रद-सस्मेरा स्वयम्भू-प्रद-शरीरिणी ।।138।।

सर्व-कालोद्भव-प्रीता सर्व-कालोद्भवात्मिका ।

सर्व-कालोद्भवोद्भावा सर्व-कालोद्भवोद्भवा ।।139।।

कुण्ड-पुष्प-सदा-प्रीतिर्गोल-पुष्प-सदा-रति: ।

कुण्ड-गोलोद्भव-प्राणा कुण्ड-गोलोद्भवात्मिका ।।140।।

स्वयम्भुवा शिवा धात्री पावनी लोक-पावनी ।

कीर्तिर्यशस्विनी मेधा विमेधा शुक्र-सुन्दरी ।।141।।

अश्विनी कृत्तिका पुष्या तैजस्का चन्द्र-मण्डला ।

सूक्ष्माऽसूक्ष्मा वलाका च वरदा भय-नाशिनी ।।142।।

वरदाऽभयदा चैव मुक्ति-बन्ध-विनाशिनी ।

कामुका कामदा कान्ता कामाख्या कुल-सुन्दरी ।।143।।

दुःखदा सुखदा मोक्षा मोक्षदार्थ-प्रकाशिनी ।

दुष्टादुष्ट-मतिश्चैव सर्व-कार्य-विनाशिनी ।।144।।

शुक्राधारा शुक्र-रूपा-शुक्र-सिन्धु-निवासिनी ।

शुक्रालया शुक्र-भोग्या शुक्र-पूजा-सदा-रति:।।145।।

शुक्र-पूज्या-शुक्र-होम-सन्तुष्टा शुक्र-वत्सला ।

शुक्र-मूत्र्ति: शुक्र-देहा शुक्र-पूजक-पुत्रिणी ।।146।।

शुक्रस्था शुक्रिणी शुक्र-संस्पृहा शुक्र-सुन्दरी ।

शुक्र-स्नाता शुक्र-करी शुक्र-सेव्याति-शुक्रिणी ।।147।।

महा-शुक्रा शुक्र-भवा शुक्र-वृष्टि-विधायिनी ।

शुक्राभिधेया शुक्रार्हा शुक्र-वन्दक-वन्दिता ।।148।।

शुक्रानन्द-करी शुक्र-सदानन्दाभिधायिका ।

शुक्रोत्सवा सदा-शुक्र-पूर्णा शुक्र-मनोरमा ।।149।।

शुक्र-पूजक-सर्वस्वा शुक्र-निन्दक-नाशिनी ।

शुक्रात्मिका शुक्र-सम्पत् शुक्राकर्षण-कारिणी ।।150।।

शारदा साधक-प्राणा साधकासक्त-रक्तपा ।

साधकानन्द-सन्तोषा साधकानन्द-कारिणी ।।151।।

आत्म-विद्या ब्रह्म-विद्या पर ब्रह्म स्वरूपिणी ।

सर्व-वर्ण-मयी देवी जप-माला-विधायिनी ।।152।।

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Mantra, Puja and Rituals, Remedies | Leave a comment

ज्येष्ठ द्वादशी : पूजा विधि महत्व और लाभ

ज्येष्ठ माह हिन्दू पंचांग के अनुसार बहुत ही खास समय होता है और इसी माह की द्वादशी तिथि को विशेष महत्व दिया जाता है. यह तिथि भारतीय संस्कृतियों में विशेष रूप से व्रत और पूजा के लिए जानी जाती है. इस दिन विशेष रूप से भगवान विष्णु और भगवान विष्णु के भक्तों द्वारा व्रत और पूजा की जाती है. ज्येष्ठ द्वादशी पूजा न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि यह शारीरिक और मानसिक शांति पाने के लिए भी लाभकारी मानी जाती है. इस लेख में हम ज्येष्ठ द्वादशी की पूजा विधि, महत्व, विशेषता और लाभ पर विस्तार से चर्चा करेंगे.

ज्येष्ठ द्वादशी कब मनाते हैं

ज्येष्ठ द्वादशी हर साल हिन्दू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाई जाती है. यह तिथि आमतौर पर मई-जून के बीच आती है. यह तिथि विशेष रूप से भगवान श्री हरि के साथ जुड़ी हुई मानी जाती है।

ज्येष्ठ द्वादशी विशेष

ज्येष्ठ द्वादशी विशेष रूप से विष्णु भक्तों द्वारा मनाई जाती है. इस दिन को विष्णु के प्रति श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक माना जाता है. इसे ‘विष्णु द्वादशी’ भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु के प्रति अपनी श्रद्धा और आस्था को व्यक्त किया जाता है. हिन्दू धर्म में द्वादशी तिथि को पूजा और व्रत का दिन माना जाता है, और ज्येष्ठ माह की द्वादशी तिथि का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यह भगवान विष्णु के साथ जुड़ी हुई है. इसके अतिरिक्त ज्येष्ठ द्वादशी को विभिन्न स्थानों पर विशेष रूप से विष्णुायण के पाठ, भजन-कीर्तन और विष्णु की आराधना की जाती है. इस दिन को ध्यान और साधना का भी दिन माना जाता है, क्योंकि इसे आत्मा की शुद्धि और मानसिक शांति प्राप्त करने के लिए एक उपयुक्त समय माना जाता है.

ज्येष्ठ द्वादशी पूजा विधि

ज्येष्ठ द्वादशी की पूजा विधि बेहद सरल और प्रभावी होती है. इस दिन को मनाने के लिए कुछ विशेष कदम उठाए जाते हैं, जो व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होते हैं.

पूजा प्रारंभ करने से पहले स्नान करना आवश्यक है ताकि शरीर और मन की शुद्धि हो सके. इसे शुद्ध अवस्था में पूजा करना अधिक फलदायी माना जाता है.

इस दिन व्रत रखने का संकल्प लिया जाता है. कुछ लोग पूरे दिन उपवासी रहते हैं, जबकि कुछ लोग केवल फलाहार करते हैं. व्रत का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और भगवान विष्णु की भक्ति को प्रकट करना होता है.

पूजा स्थल को स्वच्छ किया जाता है और वहां भगवान विष्णु की प्रतिमा या चित्र स्थापित किया जाता है. भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप किया जाता है, जैसे “विष्णु विष्णु विष्णु” और “ॐ श्री विष्णु जय विष्णु जय जय विष्णु.” इसके अलावा, भागवत का पाठ भी विशेष रूप से किया जाता है.

पूजा में अक्षत (साबुत चावल), फूल, दीपक, अगरबत्ती, और नैवेद्य (भोग) का अर्पण किया जाता है. भगवान विष्णु को ताजे फल, मिठाई और विशेष पकवान अर्पित किए जाते हैं.

पूजा के बाद भगवान विष्णु के भजन और कीर्तन का आयोजन किया जाता है. भजन-कीर्तन से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और श्रद्धालु अपनी भक्ति में लीन हो जाते हैं.

पूजा समाप्ति के बाद भगवान विष्णु की आरती की जाती है. आरती में दीपकों का प्रयोग किया जाता है, और भक्तगण भगवान विष्णु के साथ-साथ लक्ष्मी जी की भी पूजा करते हैं.

व्रत के समापन पर व्रति ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं, ताकि उनकी पूजा पूरी तरह से सफल हो सके. साथ ही, व्रति इस दिन अपनी गलतियों की क्षमा मांगते हैं और भगवान से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

ज्येष्ठ द्वादशी का महत्व

ज्येष्ठ द्वादशी का धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक महत्व है. इस दिन का संबंध भगवान विष्णु से है, जो धर्म, सत्य और न्याय के प्रतीक माने जाते हैं. भगवान विष्णु के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने के लिए यह दिन बहुत उपयुक्त माना जाता है.

इसके अलावा, ज्येष्ठ द्वादशी का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह शांति और मानसिक स्थिरता प्राप्त करने का एक अद्भुत अवसर होता है. इस दिन व्रत रखने से व्यक्ति के मन में संयम और आत्मविश्वास का संचार होता है. साथ ही, यह दिन भक्तों के पापों से मुक्ति पाने का दिन भी माना जाता है.

ज्येष्ठ द्वादशी पूजा के लाभ

ज्येष्ठ द्वादशी पूजा के अनेक लाभ होते हैं, जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से लाभकारी होते हैं:

इस दिन पूजा करने से व्यक्ति के पापों का नाश होता है और वह मोक्ष की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है. इसे पुण्य प्राप्ति का दिन भी माना जाता है.

जो व्यक्ति इस दिन श्रद्धा भाव से पूजा करता है, उसे भगवान विष्णु के आशीर्वाद से धन, ऐश्वर्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है.

ज्येष्ठ द्वादशी के दिन व्रत और पूजा से मानसिक शांति मिलती है. पूजा और भजन-कीर्तन के माध्यम से मन को शांति मिलती है और तनाव कम होता है.

यह दिन आत्मा की शुद्धि और मानसिक उन्नति का होता है. इससे व्यक्ति अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन देखता है और उसके जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति होती है.

जो लोग किसी कष्ट या संकट से गुजर रहे होते हैं, उनके लिए यह दिन विशेष रूप से लाभकारी माना जाता है. भगवान विष्णु की पूजा करने से उनके कष्ट दूर होते हैं और जीवन में सुख-शांति का वास होता है.

ज्येष्ठ द्वादशी हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो न केवल धार्मिक रूप से बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है. इस दिन के व्रत और पूजा विधियों का पालन करने से भक्त भगवान विष्णु के आशीर्वाद से सुख, समृद्धि, शांति और मोक्ष प्राप्त करते हैं. यह दिन व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक शुद्धता की दिशा में मार्गदर्शन करता है और जीवन में स्थिरता लाता है.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Religious Places, Hindu Rituals | Tagged , , , | Leave a comment

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् : बाधाएं होती हैं दूर

विष्णु पूजा हिन्दू धर्म में अत्यंत श्रद्धा और भक्ति के साथ की जाने वाली एक प्रमुख उपासना है। भगवान श्री हरि के एक हजार नामों का संग्रह विष्णु शस्त्रनाम के नाम से पूजनीय है। इस स्त्रोत का जाप करने से सभी प्रकार के कष्ट वं संकट होते हैं दूर।

भगवान विष्णु को सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में पूजा जाता है और उन्हें धर्म, सत्य, करुणा और संतुलन का प्रतीक माना जाता है। जब कोई भक्त श्रद्धा से विष्णु पूजा करता है, तो उसके जीवन में शांति, सुख और समृद्धि का प्रवेश होता है। यह पूजा मन को शुद्ध करती है और आत्मा को ईश्वर के समीप ले जाती है।

विष्णु जी की पूजा विशेष रूप से उन लोगों के लिए फलदायक मानी जाती है जो जीवन में स्थिरता, मानसिक शांति और आर्थिक उन्नति की कामना करते हैं। तुलसी के पत्ते, पीले फूल, चंदन और घी के दीपक से की गई पूजा भगवान को अत्यंत प्रिय होती है। ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जप करने से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि जीवन के संकटों से भी मुक्ति मिलती है।

ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु की पूजा करने से नकारात्मक शक्तियां दूर होती हैं और घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है। विशेष रूप से गुरुवार के दिन की गई विष्णु पूजा अत्यधिक फलदायी मानी जाती है। यह न केवल भौतिक सुखों की प्राप्ति कराती है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का भी मार्ग प्रशस्त करती है। भक्त का हृदय विनम्र और भावुक हो जाता है, और वह जीवन के हर कार्य में धर्म, करुणा और प्रेम का पालन करता है।

वास्तव में, विष्णु पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित, शांतिपूर्ण और सफल बनाने की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम्

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।

प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ १ ॥

यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परश्शतम् ।

विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वक्सेनं तमाश्रये ॥ २ ॥

व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।

पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ ३ ॥

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे ।

नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥ ४ ॥

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।

सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ ५ ॥

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।

विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ६ ॥

ओं नमो विष्णवे प्रभविष्णवे ।

श्रीवैशम्पायन उवाच ।

श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।

युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥ ७ ॥

युधिष्ठिर उवाच ।

किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् ।

स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ ८ ॥

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।

किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥ ९ ॥

श्री भीष्म उवाच ।

जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् ।

स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥ १० ॥

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् ।

ध्यायन् स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥ ११ ॥

अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् ।

लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ १२ ॥

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् ।

लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥ १३ ॥

एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः ।

यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥ १४ ॥

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।

परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥ १५ ॥

पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् ।

दैवतं दैवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥ १६ ॥

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।

यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥ १७ ॥

तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।

विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ॥ १८ ॥

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।

ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥ १९ ॥

ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः ।

छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः ॥ २० ॥

अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः ।

त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियुज्यते ॥ २१ ॥

विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम् ।

अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमम् ॥ २२ ॥

अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्र महामन्त्रस्य श्री वेदव्यासो भगवानृषिः अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता, अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम्, देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः, उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः, शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम्, शार्‍ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम्, रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम्, त्रिसामा सामगस्सामेति कवचम्, आनन्दं परब्रह्मेति योनिः, ऋतुस्सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः, श्री विश्वरूप इति ध्यानम्, श्रीमहाविष्णु प्रीत्यर्थे सहस्रनाम जपे विनियोगः ॥

ध्यानम् ।

क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकते मौक्तिकानां

मालाक्लुप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः ।

शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूषवर्षै-

-रानन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदाशङ्खपाणिर्मुकुन्दः ॥ १ ॥

भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्र सूर्यौ च नेत्रे

कर्णावासाः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः ।

अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः

चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवनवपुषं विष्णुमीशं नमामि ॥ २ ॥

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाकारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिहृद्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ ३ ॥

मेघश्यामं पीतकौशेयवासं

श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।

पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं

विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥ ४ ॥

[** अधिकश्लोकं –

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।

अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ५ ॥

**]

सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं

सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।

सहारवक्षःस्थलशोभिकौस्तुभं

नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥ ६ ॥

[** अधिकश्लोकं –

छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि

आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलङ्कृतम् ।

चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं

रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ॥ ७ ॥

हरिः ओं ।

विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।

भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥ १ ॥

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमागतिः ।

अव्ययः पुरुषस्साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥ २ ॥

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।

नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥ ३ ॥

सर्वश्शर्वश्शिवस्स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।

सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥ ४ ॥

स्वयम्भूश्शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।

अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥ ५ ॥

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।

विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥ ६ ॥

अग्राह्यश्शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।

प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥ ७ ॥

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।

हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥ ८ ॥

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।

अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥ ९ ॥

सुरेशश्शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।

अहस्संवत्सरो व्यालः प्रत्ययस्सर्वदर्शनः ॥ १० ॥

अजस्सर्वेश्वरस्सिद्धस्सिद्धिस्सर्वादिरच्युतः ।

वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिस्सृतः ॥ ११ ॥

वसुर्वसुमनास्सत्यस्समात्मा सम्मितस्समः ।

अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥ १२ ॥

रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिश्शुचिश्रवाः ।

अमृतश्शाश्वतस्स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥ १३ ॥

सर्वगस्सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।

वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः ॥ १४ ॥

लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।

चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दम्ष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥ १५ ॥

भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।

अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥ १६ ॥

उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघश्शुचिरूर्जितः ।

अतीन्द्रस्सङ्ग्रहस्सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥ १७ ॥

वेद्यो वैद्यस्सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।

अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥ १८ ॥

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।

अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृत् ॥ १९ ॥

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासस्सतां‍गतिः ।

अनिरुद्धस्सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां‍पतिः ॥ २० ॥

मरीचिर्दमनो हंसस्सुपर्णो भुजगोत्तमः ।

हिरण्यनाभस्सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥ २१ ॥

अमृत्युस्सर्वदृक्सिंहस्सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।

अजो दुर्मर्षणश्शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥ २२ ॥

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यस्सत्यपराक्रमः ।

निमिषोऽनिमिषस्स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥ २३ ॥

अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः ।

सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षस्सहस्रपात् ॥ २४ ॥

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतस्सम्प्रमर्दनः ।

अहस्संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ॥ २५ ॥

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वसृड्विश्वभुग्विभुः ।

सत्कर्ता सत्कृतस्साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ॥ २६ ॥

असङ्ख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टश्शिष्टकृच्छुचिः ।

सिद्धार्थस्सिद्धसङ्कल्पस्सिद्धिदस्सिद्धिसाधनः ॥ २७ ॥

वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।

वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ॥ २८ ॥

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।

नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ॥ २९ ॥

ओजस्तेजो द्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।

ऋद्धस्स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥ ३० ॥

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुस्सुरेश्वरः ।

औषधं जगतस्सेतुस्सत्यधर्मपराक्रमः ॥ ३१ ॥

भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।

कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥ ३२ ॥

युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।

अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ॥ ३३ ॥

इष्टोऽविशिष्टश्शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।

क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥ ३४ ॥

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।

अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥ ३५ ॥

स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।

वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥ ३६ ॥

अशोकस्तारणस्तारः शूरश्शौरिर्जनेश्वरः ।

अनुकूलश्शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥ ३७ ॥

पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भश्शरीरभृत् ।

महर्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥ ३८ ॥

अतुलश्शरभो भीमस्समयज्ञो हविर्हरिः ।

सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ॥ ३९ ॥

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरस्सहः ।

महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥ ४० ॥

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।

करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥ ४१ ॥

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।

परर्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टश्शुभेक्षणः ॥ ४२ ॥

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः ।

वीरश्शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥ ४३ ॥

वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।

हिरण्यगर्भश्शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥ ४४ ॥

ऋतुस्सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।

उग्रस्संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥ ४५ ॥

विस्तारस्स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।

अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥ ४६ ॥

अनिर्विण्णस्स्थविष्ठो भूर्धर्मयूपो महामखः ।

नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामस्समीहनः ॥ ४७ ॥

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुस्सत्रं सतां‍गतिः ।

सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४८ ॥

सुव्रतस्सुमुखस्सूक्ष्मः सुघोषस्सुखदस्सुहृत् ।

मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥ ४९ ॥

स्वापनस्स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।

वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥ ५० ॥

धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् । [**सदक्षरमसत्क्षरम्**]

अविज्ञाता सहस्रां‍शुर्विधाता कृतलक्षणः ॥ ५१ ॥

गभस्तिनेमिस्सत्त्वस्थस्सिंहो भूतमहेश्वरः ।

आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥ ५२ ॥

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।

शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥ ५३ ॥

सोमपोऽमृतपस्सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।

विनयो जयस्सत्यसन्धो दाशार्हस्सात्त्वताम्पतिः ॥ ५४ ॥

जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।

अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ॥ ५५ ॥

अजो महार्हस्स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।

आनन्दो नन्दनो नन्दस्सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥ ५६ ॥

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।

त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥ ५७ ॥

महावराहो गोविन्दस्सुषेणः कनकाङ्गदी ।

गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥ ५८ ॥

वेधास्स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढस्सङ्कर्षणोऽच्युतः ।

वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥ ५९ ॥

भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।

आदित्यो ज्योतिरादित्यस्सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥ ६० ॥

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।

दिविस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥ ६१ ॥

त्रिसामा सामगस्साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।

सन्न्यासकृच्छमश्शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥ ६२ ॥

शुभाङ्गश्शान्तिदस्स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।

गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥ ६३ ॥

अनिवर्ती निवृत्तात्मा सङ्क्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।

श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः ॥ ६४ ॥

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।

श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान् लोकत्रयाश्रयः ॥ ६५ ॥

स्वक्षस्स्वङ्गश्शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।

विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥ ६६ ॥

उदीर्णस्सर्वतश्चक्षुरनीशश्शाश्वतस्थिरः ।

भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकश्शोकनाशनः ॥ ६७ ॥

अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।

अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥ ६८ ॥

कालनेमिनिहा वीरश्शौरिश्शूरजनेश्वरः ।

त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥ ६९ ॥

कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।

अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥ ७० ॥

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।

ब्रह्मविद्ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥ ७१ ॥

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।

महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥ ७२ ॥

स्तव्यस्स्तवप्रियस्स्तोत्रम् स्तुतिस्स्तोता रणप्रियः ।

पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥ ७३ ॥

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।

वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥ ७४ ॥

सद्गतिस्सत्कृतिस्सत्ता सद्भूतिस्सत्परायणः ।

शूरसेनो यदुश्रेष्ठस्सन्निवासस्सुयामुनः ॥ ७५ ॥

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।

दर्पहा दर्पदोऽदृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ॥ ७६ ॥

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।

अनेकमूर्तिरव्यक्तश्शतमूर्तिश्शताननः ॥ ७७ ॥

एको नैकस्स्तवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम् ।

लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥ ७८ ॥

सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।

वीरहा विषमश्शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥ ७९ ॥

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृत् ।

सुमेधा मेधजो धन्यस्सत्यमेधा धराधरः ॥ ८० ॥

तेजोवृषो द्युतिधरस्सर्वशस्त्रभृतां वरः ।

प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥ ८१ ॥

चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।

चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥ ८२ ॥

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।

दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥ ८३ ॥

शुभाङ्गो लोकसारङ्गस्सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।

इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥ ८४ ॥

उद्भवस्सुन्दरस्सुन्दो रत्ननाभस्सुलोचनः ।

अर्को वाजसनश्शृङ्गी जयन्तस्सर्वविज्जयी ॥ ८५ ॥

सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यस्सर्ववागीश्वरेश्वरः ।

महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥ ८६ ॥

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।

अमृतांशोऽमृतवपुस्सर्वज्ञस्सर्वतोमुखः ॥ ८७ ॥

सुलभस्सुव्रतस्सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।

न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥ ८८ ॥

सहस्रार्चिस्सप्तजिह्वस्सप्तैधास्सप्तवाहनः ।

अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥ ८९ ॥

अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।

अधृतः स्वधृतस्स्वास्थ्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ ९० ॥

भारभृत्कथितो योगी योगीशस्सर्वकामदः ।

आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ ९१ ॥

धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।

अपराजितस्सर्वसहो नियन्ता नियमो यमः ॥ ९२ ॥

सत्त्ववान् सात्त्विकस्सत्यस्सत्यधर्मपरायणः ।

अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ॥ ९३ ॥

विहायसगतिर्ज्योतिस्सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।

रविर्विलोचनस्सूर्यस्सविता रविलोचनः ॥ ९४ ॥

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।

अनिर्विण्णस्सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥ ९५ ॥

सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।

स्वस्तिदस्स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥ ९६ ॥

अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।

शब्दातिगश्शब्दसहः शिशिरश्शर्वरीकरः ॥ ९७ ॥

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां‍वरः ।

विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥ ९८ ॥

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुस्स्वप्ननाशनः ।

वीरहा रक्षणस्सन्तो जीवनं पर्यवस्थितः ॥ ९९ ॥

अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।

चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥ १०० ॥

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीस्सुवीरो रुचिराङ्गदः ।

जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥ १०१ ॥

आधारनिलयो धाता पुष्पहासः प्रजागरः ।

ऊर्ध्वगस्सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥ १०२ ॥

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।

तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥ १०३ ॥

भूर्भुवस्स्वस्तरुस्तारस्सविता प्रपितामहः ।

यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥ १०४ ॥

यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः ।

यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥ १०५ ॥

आत्मयोनिस्स्वयञ्जातो वैखानस्सामगायनः ।

देवकीनन्दनस्स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥ १०६ ॥

शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्‍ङ्गधन्वा गदाधरः ।

रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यस्सर्वप्रहरणायुधः ॥ १०७ ॥

श्रीसर्वप्रहरणायुध ओं नम इति ।

वनमाली गदी शार्‍ङ्गी शङ्खी चक्री च नन्दकी ।

श्रीमान्नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु ॥ १०८ ॥

 श्री वासुदेवोऽभिरक्षतु ओं नम इति । 

॥ उत्तरपीठिका ॥

श्री भीष्म उवाच ।

इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।

नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥

य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।

नाऽशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ २ ॥

वेदान्तगो ब्राह्मणस्स्यात् क्षत्रियो विजयी भवेत् ।

वैश्यो धनसमृद्धस्स्याच्छूद्रस्सुखमवाप्नुयात् ॥ ३ ॥

धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् ।

कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी चाप्नुयात्प्रजाः ॥ ४ ॥

भक्तिमान् यस्सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।

सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥ ५ ॥

यशः प्राप्नोति विपुलं याति प्राधान्यमेव च ।

अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ ६ ॥

न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।

भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥ ७ ॥

रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।

भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ ८ ॥

दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।

स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥ ९ ॥

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।

सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥ १० ॥

न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।

जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥ ११ ॥

इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।

युज्येतात्मा सुखक्षान्ति श्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥ १२ ॥

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः ।

भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ १३ ॥

द्यौस्सचन्द्रार्कनक्षत्रं खं दिशो भूर्महोदधिः ।

वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥ १४ ॥

स सुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ।

जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥ १५ ॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिस्सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।

वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥ १६ ॥

सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पितः ।

आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥ १७ ॥

ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।

जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥ १८ ॥

योगो ज्ञानं तथा साङ्ख्यं विद्याश्शिल्पादि कर्म च ।

वेदाश्शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥ १९ ॥

एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।

त्रीन्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ २० ॥

इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।

पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥ २१ ॥

विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम् ।

भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥ २२ ॥

न ते यान्ति पराभवम् ओं नम इति ।

अर्जुन उवाच ।

पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।

भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ॥ २३ ॥

श्री भगवानुवाच ।

यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।

सोऽहमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ॥ २४ ॥

स्तुत एव न संशय ओं नम इति ।

व्यास उवाच ।

वासनाद्वासुदेवस्य वासितं ते जगत्त्रयम् ।

सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २५ ॥

श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ओं नम इति ।

पार्वत्युवाच ।

केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।

पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ २६ ॥

ईश्वर उवाच ।

श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥ २७ ॥

श्रीरामनाम वरानन ओं नम इति ।

ब्रह्मोवाच ।

नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये

सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।

सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते

सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः ॥ २८ ॥

सहस्रकोटीयुगधारिणे ओं नम इति ।

सञ्जय उवाच ।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ २९ ॥

श्री भगवानुवाच ।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ३० ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ३१ ॥

आर्ता विषण्णाश्शिथिलाश्च भीताः

घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।

सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रं

विमुक्तदुःखास्सुखिनो भवन्ति ॥ ३२ ॥

अधिकश्लोकाः 

यदक्षर पदभ्रष्टं मात्राहीनं तु यद्भवेत् ।

तत्सर्वं क्षम्यतां देव नारायण नमोऽस्तु ते ॥

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा

बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेस्स्वभावात् ।

करोमि यद्यत्सकलं परस्मै

नारायणायेति समर्पयामि ॥

इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां अनुशासनपर्वान्तर्गत अनुशासनिकपर्वणि मोक्षधर्मे भीष्म युधिष्ठिर संवादे श्री विष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रम् नाम एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ।

इति श्रीविष्णुसहस्रनाम स्तोत्रम् ॥

इतर श्री विष्णु स्तोत्राणि पश्यतु |

Posted in Ekadashi, Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals, Remedies | Tagged , , , , | Leave a comment