माघ गुप्त नवरात्रि : क्यों मनाए जाते हैं माघ माह में गुप्त नवरात्रि

माघ मास की गुप्त नवरात्रि हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो विशेष रूप से दस महाविद्या के साथ देवी के नौ रूपों की पूजा-अर्चना के लिए मनाई जाती है. यह पर्व आमतौर पर माघ माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होकर नवमी तिथि तक मनाया जाता है. माघ गुप्त नवरात्रि, विशेष रूप से उन भक्तों द्वारा मनाई जाती है, जो इस समय उपवास रखते हुए देवी के प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति करते हैं. गुप्त नवरात्रि को गृहस्थ से अलग सन्यासी और साधना की इच्छा रखने वालों के लिए विशेष माना गया है.  

गुप्त नवरात्रि पूजा 

गुप्त नवरात्रि का नाम ‘गुप्त’ इस बात से आया है कि यह नवरात्रि अन्य नवरात्रियों की तुलना में कम प्रसिद्ध है और इस दौरान पूजा की प्रक्रिया गुप्त रूप से की जाती है. इस समय देवी दुर्गा की उपासना का महत्व बहुत अधिक माना जाता है, क्योंकि यह समय विशेष रूप से साधना और तंत्र-मंत्र के लिए उपयुक्त होता है. यह नवरात्रि उन भक्तों के लिए है जो गहन साधना और ध्यान के माध्यम से देवी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं. 

गुप्त नवरात्रि के दौरान उपवासी रहते हुए दिनचर्या में साधना, जाप और पूजा की जाती है. इस समय देवी के 10 रूपों की पूजा की जाती है इसके अलावा 9 देवियों का पूजन भी होता है जिसमें से हैं ” शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री ” . इन नौ रूपों की पूजा विशेष रूप से कल्याणकारी मानी जाती है, क्योंकि इन्हें विभिन्न प्रकार की मानसिक और भौतिक बाधाओं को दूर करने वाला माना जाता है.

गुप्त नवरात्रि शमशान पूजा

माघ गुप्त नवरात्रि का पर्व हमें साधना और तपस्या की महत्ता सिखाता है. इस नवरात्रि को तामसिक पूजा के रुप में पहचाना जाता है इस कारण से इस दिन शमशान पूजा के साथ तंत्र पूजा भी की जाती है. यह नवरात्रि विशेष रूप से उन लोगों के लिए उपयुक्त है जो आध्यात्मिक तंत्र में उन्नति की इच्छा रखते हैं. यह समय देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने और उनके आशीर्वाद प्राप्त करने का है. गुप्त नवरात्रि के दौरान विशेष रूप से उपवासी रहने का महत्व है. भक्त अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए उपवासी रहते हैं और दिन में केवल फलाहार करते हैं. 

इस दौरान माता रानी की 108 बार या 1008 बार पूजा अर्चना करके श्रद्धा पूर्वक मंत्र जाप करते हैं. माघ गुप्त नवरात्रि के व्रत से व्यक्ति की आत्मशक्ति में वृद्धि होती है और उसकी मानसिक शांति में सुधार होता है. साथ ही, यह व्रत आत्मसाक्षात्कार की दिशा में भी सहायक होता है. इस दौरान किए गए साधनाओं से भक्त की सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है और वह जीवन के कठिनाइयों से मुक्त होता है.

महाविद्या शब्द का अर्थ उस विद्या है जो शक्तियों का पुंज है और यह भारतीय तंत्रशास्त्र तथा हिन्दू धर्म के भीतर शक्ति की दस प्रमुख रूपों को व्यक्त करता है. इन दस महाविद्याओं को तंत्र, मंत्र और योग साधना में विशेष स्थान प्राप्त है. इन महाविद्याओं के माध्यम से साधक आत्मज्ञान, मोक्ष और शक्ति प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है. महाविद्याओं के ज्ञान और सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए साधक को पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ अभ्यास करना पड़ता है. इन देवी-देवताओं की उपासना से जीवन में हर प्रकार की समस्याओं का समाधान और सुख-शांति की प्राप्ति होती है. महाविद्या की प्रमुख दस रूपों की सूची इस प्रकार है:

माता काली  

काली देवी का रूप समय, परिवर्तन और संहार का प्रतीक है. यह अज्ञान के अंधकार को नष्ट करने वाली, और ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाली देवी मानी जाती हैं. काली का रूप अक्सर काल, मृत्यु और विनाश से जुड़ा हुआ होता है, लेकिन इनकी शक्ति पुनर्निर्माण की भी होती है.

माता तारा  

तारा देवी का रूप त्राण, सुरक्षा और उद्धार का प्रतीक है. तारा का मंत्र साधक को मानसिक शांति और सुरक्षा प्रदान करता है. तारा को साधना करने से जीवन के संकटों से मुक्ति मिलती है.

मां धूमावती

मां धूमावती का रूप शक्ति, साहस और विजय का प्रतीक है. वे राक्षसों और असुरों का नाश करने वाली देवी मानी जाती हैं. देवी का ध्यान करने से व्यक्तित्व में शक्ति और दृढ़ता आती है, और जीवन में संघर्षों को पार करने की क्षमता प्राप्त होती है.

मां ललिता  

ललिता देवी का रूप सृजन और पालन का प्रतीक है. यह देवी जीवों की उत्पत्ति, पालन और संरक्षण करती हैं. देवी का ध्यान साधक को जीवन के उद्देश्यों को समझने और समर्पण की शक्ति प्रदान करता है.

माता छिन्नमस्तिका  

छिन्नमस्तिका देवी का रूप आत्मसंयम, तात्त्विकता और ब्रह्मा के ज्ञान का प्रतीक है. यह देवी स्वयं के आत्मोत्सर्ग के रूप में प्रसिद्ध हैं. वे तात्त्विक ज्ञान और साधना के माध्यम से आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित करती हैं.

माता भैरवी

भैरवी देवी का रूप शांति और भय का संयोग है. यह देवी तंत्रशास्त्र की महत्वपूर्ण देवी मानी जाती हैं और साधक को मानसिक और आत्मिक शक्ति का प्रसार करती हैं. भैरवी की साधना से कोई भी साधक बुरे प्रभावों और भय से मुक्त हो सकता है.

माता मातंगी  

मातंगी देवी की पूजा से ज्ञान, बुद्धि और मानसिक स्पष्टता की प्राप्ति होती है. मातंगी की साधना करने से व्यक्तित्व में सुधार आता है, और जीवन के कठिनाईयों को सुलझाने की क्षमता बढ़ती है.

माता कमला 

कमला देवी समृद्धि, धन और ऐश्वर्य की देवी हैं. इनकी पूजा से आर्थिक समृद्धि और खुशहाली प्राप्त होती है. लक्ष्मी की महाविद्या का ध्यान करने से जीवन में स्थिरता, सुख और समृद्धि आती है.

माता भुवनेश्वरी

माता भुवनेश्वरी देवी समस्त सिद्धियों और तंत्र-मंत्र की देवी मानी जाती हैं. ये साधक को सभी प्रकार की सिद्धियों का आशीर्वाद देती हैं और उनके जीवन में दिव्य शक्तियों का संचार करती हैं. उनकी साधना से अत्यधिक आध्यात्मिक और भौतिक लाभ प्राप्त होता है.

बगलामुखी  

बगलामुखी देवी का रूप शत्रु नाश, विजय और रक्षा का प्रतीक है. ये देवी अपने भक्तों को शत्रुओं से मुक्ति, शारीरिक और मानसिक शांति प्रदान करती हैं. बगलामुखी की पूजा से सभी बाधाओं और समस्याओं से निजात मिलती है.

इन महाविद्याओं की पूजा, साधना और ध्यान से व्यक्ति को अपनी आंतरिक शक्ति का ज्ञान होता है. महाविद्याओं के प्रत्येक रूप में अलग-अलग शक्तियाँ, गुण और तत्त्व समाहित होते हैं, जो विभिन्न जीवन स्थितियों में सहायक होते हैं. तंत्र, योग और मंत्र साधना के माध्यम से इन महाविद्याओं की प्राप्ति की जाती है. महाविद्याओं की साधना से मनुष्य को न केवल भौतिक लाभ मिलते हैं, बल्कि मानसिक शांति, आत्मसाक्षात्कार और आत्मनिर्भरता की ओर भी अग्रसर होते हैं.

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फाल्गुन संक्रांति : सूर्य का राशि परिवर्तन और महत्व

फाल्गुन संक्रांति भारतीय संस्कृति में एक प्रमुख पर्व के रूप में मनाई जाती है। यह पर्व विशेष रूप से उत्तर भारत में मनाया जाता है, और यह माघ माह के बाद फाल्गुन माह की शुरुआत का प्रतीक है। संक्रांति का शब्द अर्थ है ‘सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना’। संक्रांति एक खगोलीय घटना है, जो हर महीने होती है, लेकिन फाल्गुन संक्रांति की अपनी विशेष महत्वता है। यह पर्व विशेष रूप से किसानों, व्यापारियों और आम जनता के लिए खुशी और समृद्धि का प्रतीक है।

फाल्गुन संक्रांति क्यों मनाते हैं

फाल्गुन संक्रांति का धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बहुत महत्व है। यह सूर्य के मीन राशि में प्रवेश का संकेत देती है। हिंदू पंचांग के अनुसार, माघ माह के बाद जब सूर्य मीन राशि में प्रवेश करता है, तो यह संक्रांति का समय होता है। इसे ‘माघ संक्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है, और फाल्गुन संक्रांति एक शुभ अवसर के रूप में मनाई जाती है। यह दिन विशेष रूप से त्याग, तपस्या, और पुण्य की प्राप्ति के लिए महत्व रखता है।

फाल्गुन संक्रांति का धार्मिक दृष्टिकोण से महत्व है क्योंकि यह दिन भगवान विष्णु और उनके विभिन्न अवतारों की पूजा के लिए माना जाता है। इस दिन विशेष रूप से भक्तजन स्नान, दान और पूजा करते हैं, ताकि उन्हें पुण्य की प्राप्ति हो सके। इसके अलावा, इस दिन को विशेष रूप से सूर्य देव की पूजा का दिन माना जाता है, क्योंकि सूर्य देव के आशीर्वाद से व्यक्ति को समृद्धि, स्वास्थ्य और दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

फाल्गुन संक्रांति की परंपरा

फाल्गुन संक्रांति के अवसर पर विभिन्न प्रकार की परंपराएँ और रीति-रिवाज निभाए जाते हैं। इस दिन को खासतौर पर तिल, गुड़ और चिउड़े का दान देने की परंपरा है। इसे “तिल गुड़ खाने और दान करने” की परंपरा कहा जाता है। माना जाता है कि तिल और गुड़ का सेवन करने से शरीर में ऊर्जा आती है और जीवन में सुख-शांति का वास होता है। इसके अलावा, इस दिन विशेष रूप से स्नान करने का महत्व है, खासकर गंगा नदी या अन्य पवित्र जलाशयों में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।

फाल्गुन संक्रांति के दिन महिलाएं घरों में खास पकवान बनाती हैं, जिसमें तिल गुड़ की रेवड़ी और तिल के लड्डू प्रमुख होते हैं। यह पकवान विशेष रूप से इस दिन के महत्व को दर्शाते हैं, क्योंकि तिल और गुड़ को एक साथ खाने से व्यक्ति के पाप समाप्त होते हैं और पुण्य की प्राप्ति होती है। इसके अलावा, इस दिन लोग अपने रिश्तेदारों और मित्रों के साथ मिलकर एक-दूसरे को तिल और गुड़ का प्रसाद देते हैं और शुभकामनाएँ साझा करते हैं।

फाल्गुन संक्रांति और माघी पूजा

फाल्गुन संक्रांति के दिन माघी पूजा भी आयोजित की जाती है। माघी पूजा का आयोजन माघ माह की समाप्ति के बाद किया जाता है, और यह विशेष रूप से उत्तर भारत में बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। माघी पूजा के अंतर्गत लोग सूर्य देव की पूजा करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए विभिन्न अनुष्ठान करते हैं। इस दिन को विशेष रूप से तपस्वियों और साधु-संतों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि यह दिन उनके तपोबल को और बढ़ाता है।

फाल्गुन संक्रांति और सामाजिक जीवन

फाल्गुन संक्रांति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह समाज में एकता और भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता है। लोग इस दिन एक-दूसरे से मिलने, बधाई देने और परस्पर प्रेम और सौहार्द का आदान-प्रदान करते हैं। यह दिन विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है, जहां लोग सामूहिक रूप से तिल-गुड़ खाकर एक-दूसरे के साथ अच्छे रिश्तों को बढ़ावा देते हैं। यह दिन सामाजिक मिलनसारिता और सामूहिकता का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।

फाल्गुन संक्रांति का कृषि पर प्रभाव

फाल्गुन संक्रांति का कृषि क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान है। यह समय कृषि कार्यों के लिए शुभ माना जाता है, खासकर बुवाई और फसल की कटाई के समय। इस दिन को किसान अपने खेतों में काम करने के लिए विशेष रूप से उत्साहित रहते हैं। फाल्गुन संक्रांति के दिन सूर्य देव की पूजा करने से अच्छे फसल और कृषि कार्यों की सफलता की कामना की जाती है। इसी कारण, यह दिन किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर है, क्योंकि यह समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक है।

सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्व

भारत में फाल्गुन संक्रांति के दिन कई स्थानों पर मेलों और उत्सवों का आयोजन भी किया जाता है। ये मेलें सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने का काम करते हैं। विशेष रूप से गांवों और छोटे शहरों में इस दिन लोक गीत, नृत्य, और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। यह समय होता है जब लोग अपनी पारंपरिक धरोहरों को पुनः जीवित करते हैं और आने वाली पीढ़ी को उन परंपराओं से अवगत कराते हैं।

फाल्गुन संक्रांति न केवल एक खगोलीय घटना है, बल्कि यह भारतीय समाज और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा भी है। यह पर्व धार्मिक, सांस्कृतिक और कृषि दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। इस दिन को मनाने से न केवल व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक शांति मिलती है, बल्कि यह समाज में प्रेम, भाईचारे और एकता का संचार करता है। इसलिए, फाल्गुन संक्रांति न केवल एक पर्व है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर भी है, जिसे हमें सहेज कर रखना चाहिए और आने वाली पीढ़ियों को इसके महत्व से अवगत कराना चाहिए।

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सप्तमातृका और अष्टमातृका : कौन हैं आठ दिव्य मातृकाएं

हिंदू धर्म में, देवी को शक्ति के रुप में स्थापित किया गया है जो हर प्रकार के संकट से हमें बचाने वाली होती हैं. हमारे जीवन से समस्याओं को दूर करती हैं. ‘मातृका’ का अर्थ है दिव्य माँ जो शिव के पसीने से बनी थी. मातृका चक्र का पौराणिक रुप से विस्तार से वर्णन मिलता है. जिनमें मातृकाएं दिव्य माताएं हैं. वे ब्रह्मांड को सुरक्षित करने और मातृका चक्र बनाने में मदद करती हैं, जो अक्षरों या वर्णमालाओं के पीछे छिपी ध्वनियों के पीछे की शक्ति है. हम मातृकाओं को माता कहते हैं. लोग अक्सर कहते हैं कि वे आमतौर पर सात और आठ के समूह में इन को जाना गया है. इसी कारण इन्हें सप्तमातृका और अष्टमातृका कहा जाता है. दक्षिणी भाग में, लोग सप्तमातृका की पूजा करते हैं.

क्या होता है मातृका चक्र
माताओं का समूह ही मातृ चक्र कहा जाता है. यह संस्कृत वर्णमाला की ध्वनियों से जुड़ा है, जहां प्रत्येक अक्षर में दिव्य ऊर्जा होती है. लोग इसे कुंडलिनी ऊर्जा से जोड़ते हैं, जो हमारे मन और आत्मा को शुद्ध करने में हमारी मदद करती है. यह ब्रह्मांड की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है. यह व्यक्ति के जीवन से बुराई और नकारात्मकता को नष्ट करने वाला होता है इस चक्र के अनुसार, ध्यान और आध्यात्मिकता से हम आसानी से जुड़ पाते हैं. इनसे हमारे सभी ऊर्जा केंद्रों को जागृत किया जा सकता है.

कौन हैं मातृकाएं

ब्राह्मणी
भगवान राम ने ब्राह्मी या ब्राह्मणी मातृका की रचना की. वह पीले रंग की है और उसके चार सिर और छह भुजाएँ हैं. ब्राह्मणी हंस के साथ कमल में बैठी हैं. वह एक फंदा, एक जल पात्र और कमंडलु धारण करती हैं. वह अष्टांग भैरव की पत्नी हैं.

वैष्णवी
वह इस दुनिया में व्यक्ति की रक्षा करने वाली है. उनके पति क्रोध भैरव हैं. वह खुद को भारी गहनों से सजाती हैं. वैष्णवी गरुड़ पर बैठी हैं और उनकी चार या छह भुजाएँ हैं. वह शंख, एक धनुष, एक तलवार और एक कमल धारण करती हैं.

माहेश्वरी
माहेश्वरी रुरु भैरव की पत्नी हैं. उनके अन्य नाम रुद्राणी, शिवानी, रुद्री, महेशी आदि हैं, जो शंकर के नामों से व्युत्पन्न हैं. उनका रंग गोरा और त्रिनेत्र (तीन आँखें) हैं. वे सर्प कंगन, अर्धचंद्र और जटा मुकुट से खुद को सजाती हैं.

इंद्राणी
वे इंद्र की शक्ति और कपाल भैरव की पत्नी हैं. वे हाथी पर बैठती हैं, उनकी एक हजार आँखें और चार या छह भुजाएँ हैं, और वे दुश्मनों को नष्ट करने के लिए वज्र का इस्तेमाल करती हैं.

कौमारी
वे कार्तिकेय की शक्ति हैं और उन्हें कार्तिकी, अंबिका और कार्तिकेयनी नामों से जाना जाता है. वे भाला, कुल्हाड़ी, टंका और धनुष धारण करती हैं और वे चण भैरव की पत्नी भी हैं. नीचे, आइए मातृका चक्र के बारे में जानें.

वाराही
वे विष्णु का सूअर के सिर वाला रूप हैं. वाराही भैंसे पर सवार होती हैं और उनके हाथ में दंड, हल और तलवार होती है. वे उन्मत्त भैरव की पत्नी हैं.

चामुंडा
वे चंडी की शक्ति हैं और देवी काली के समान हैं. चामुंडा भीषण भैरव की पत्नी हैं. उनकी तीन आंखें हैं और वे कई सिरों की माला पहनती हैं.

नरसिंह
नरसिंह की दिव्य ऊर्जा हैं. वे एक स्वतंत्र देवी और एक बहादुर योद्धा हैं, जिन्होंने शुंभ के खिलाफ लड़ाई में देवी दुर्गा का साथ दिया था.

मातृका चक्र – मातृकाओं से संबंधित पौराणिक कथा

कता अनुसार एक बार, माँ पार्वती ने भगवान शिव की आँखें बंद कर दीं, जिससे पूरा ब्रह्मांड अंधकारमय हो गया. इस अंधकार से, शिव के पसीने की एक बूंद जमीन पर गिर गई. इससे, अंधक नामक राक्षस का जन्म हुआ. राजा हिरण्याक्ष ने उसका पालन-पोषण किया. राक्षस ने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की. उसकी तपस्या से ब्रह्मा प्रसन्न हुए और उसने ब्रह्मा से मृत्यु से असीम प्रतिरक्षा मांगी, जब तक कि उसे ऐसी स्त्री न मिले जो उसकी माँ के समान हो. यह सुनकर भगवान ब्रह्मा ने उसे वरदान दे दिया.

वरदान ने अंधक को अहंकारी बना दिया और वह कैलाश पर्वत पर चढ़ गया. कैलाश में प्रवेश करते ही, देवी पार्वती की सुंदरता ने उसे आश्चर्यचकित कर दिया. उसने उसकी असली पहचान जाने बिना उसे अपने वश में करने का फैसला किया. उसे अपने वरदान की शर्त के बारे में याद रखना चाहिए था. राक्षस ने एक विशाल सेना के साथ भगवान शिव से युद्ध शुरू कर दिया.

जमीन पर गिरे खून से एक नए राक्षस का जन्म हुआ. शिव ने माँ काली और मातृकाओं को बुलाया. मातृकाओं और देवी काली ने उसके खून की एक-एक बूंद पी ली, जिससे अंधक कमजोर हो गया. भगवान शिव ने उसे उसके बुरे कर्मों का एहसास कराया और अपना दिव्य ज्ञान दिया. उन्होंने राक्षस की आत्मा को शुद्ध किया, जिससे वह एक स्वर्गीय प्राणी बन गया.

मातृका चक्र और महत्व
देवी चामुंडा और अंबिका ने मातृकाओं की मदद से रक्तबिज को मारा, जिसका खून ज़मीन पर गिर गया और नए राक्षसों को जन्म दिया. उन्होंने खून की हर बूंद पी ली. सौभाग्य से, इससे राक्षस कमज़ोर हो गया और वह मारा गया. भारत के कई हिस्सों में, खासकर दक्षिणी हिस्से में लोग मातृकाओं की पूजा करते हैं.

हम मातृका शक्ति को अक्षरों से जोड़ते हैं. उन्होंने संस्कृत में अक्षरों के आठ समूहों की शुरुआत की, जो आज भी प्रचलित हैं. यह शक्ति हमें बताती है कि हम कैसे संवाद करते हैं
और हम जो कहते हैं उसका हमारे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, क्योंकि संचार योग साधना का एक हिस्सा है. शब्दों में विनाश करने की शक्ति होती है, और शब्दों का उचित उपयोग हमें अच्छे इंसान बना सकता है. मातृका चक्र – शब्द ब्रह्म अवधारणा स्पोतवाद या शब्द ब्रह्म अवधारणा तांत्रिक सिद्धांत से संबंधित है, जो बताता है कि हर शब्द ध्वनि से उत्पन्न होता है. मातृका शक्ति सभी ध्वनि अक्षरों (बीज) की शक्ति है. हमारा पूरा ब्रह्मांड मातृकाओं (पचास अलग-अलग मातृ कंपन) से बना है. ऋषियों या योगियों को यह बहुत पहले पता चल गया था. इससे भारत की प्राचीन भाषा का निर्माण हुआ, जो ब्रह्म से अविभाज्य थी. सिद्धांत (वाक-तत्व) को समझते हुए प्रकट मातृका कहा जाता है. ऋषियों ने संस्कृत भाषा तैयार की. हम इसे अक्षरा कहते हैं. आज तक, कुछ मुनि ऋषि इस भाषा में हमसे संवाद करना पसंद करते हैं.

मातृकाएं जीवन के निर्माण, पालन और विनाश से संबंधित हैं. जब हम मरते हैं, तो वे हमारे शरीर के विभिन्न अंगों में जमा हो जाती हैं. वे चक्रों को सक्रिय करने और मानव शरीर पर तांत्रिक मंत्रों को रखने में मदद करती हैं. मातृकाएँ अंततः हमें जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति (मोक्ष) दिलाने में मदद करती हैं. वे हमें ज्ञान प्राप्त करने, नकारात्मकता को नष्ट करने और चेतना प्राप्त करने में मदद करती हैं, मोक्ष की हमारी यात्रा में आध्यात्मिक रूप से हमारा मार्गदर्शन करती हैं.

॥ अथ नवमन्त्रमालास्तोत्रम्॥

जो माता मधुकैटभ-घातिनी महिषासुरमर्दिनी

जो धूम्रेक्षण-चण्डमुण्ड-नाशिनी रक्तबीज-निर्मूलिनी।

जो है शुम्भनिशुम्भ-दैत्यछेदिनी जो सिद्धिलक्ष्मी परा

वह चण्डिका नवकोटीमूर्तिसहिता चरणों में हमें दें आसरा ॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

अभीष्ट-पूर्तिहेतु सुरगणों ने की जिसकी स्तुति भक्ति वह आदिमाता।

शुभहेतुरीश्‍वरी वह माँ हमारी करें शुभभद्र, हरें सर्व आपदा॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

उन्मत्त दैत्यों से ग्रस्त हैं हम करो क्षेम हमारा पराम्बा सुरवन्दिता।

शुभहेतुरीश्‍वरी वह माँ हमारी करें शुभभद्र, हरें सर्व आपदा॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

स्मरण करते ही दुखक्लेश है हरती। भक्तिशील हम जब शरण में हों उसके।

शुभहेतुरीश्‍वरी वह माँ हमारी करें शुभभद्र, हरें सर्व आपदा॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

सर्वबाधाओं का प्रशमन करे त्रैलोक्य की अखिलस्वमिनी।

हमारे बैरियों का निर्दालन करो यही माँ तुम भक्तोद्धारिणी॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

सर्वमंगलों का मांगल्य शिवे सर्वार्थसाधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमो अम्बिके॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति लय करे जो आद्यशक्ति सनातनी।

वन्दन तुम्हें गुणाश्रये गुणमये वात्सल्यनिलये नारायणी॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

शरणागत दीनदुखी संतानों के परिपालन में तत्पर जननी।

प्रणाम तुम्हें सर्वपीडाहारिणी क्षमास्वरूपे नारायणी॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

सर्वस्वरूपे सर्वेश्‍वरी सर्वशक्तिसमन्विते।

भय से हमारी सुरक्षा करना देवी दुर्गे आदिमाते॥

अनिरुद्धमाता नवमन्त्रमालिनी। करें बच्चे की सुरक्षा मातृकासम्राज्ञी॥

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मेरु त्रयोदशी : भक्ति और साधना का अदभुत संगम

मेरु त्रयोदशी का पर्व जैन धर्म में बहुत ही भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. भारत अपनी समृद्ध परंपराओं और त्यौहारों के लिए जाना जाता है, जिनका आध्यात्मिक महत्व है. ऐसा ही एक त्यौहार है मेरु त्रयोदशी, जिसे पूरे भारत में जैन धर्म के लोग बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाते हैं. आइये जान लेते हैं कि यह जैन त्यौहार कब और कैसे मनाया जाता है.

मेरु त्रयोदशी का त्योहार जैनियों के लिए खास समय होता है. भगवान महावीर द्वारा प्राप्त ज्ञान को अपने में समाहित करने और उत्सव मनाने का समय है. इस दिन को भक्त पूजा, प्रार्थना, दान के कार्यों और कथा श्रवण के माध्यम से मनाते हैं. भक्त उनकी शिक्षाओं का सम्मान करते हैं और सभी जीवित प्राणियों के प्रति अहिंसा और करुणा के सिद्धांतों को अपनाने का प्रयास करते हैं. इस त्योहार के महत्व और परंपराओं के साथ जुड़ी है धर्म समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की गहरी जड़ें.

मेरु त्रयोदशी हिंदू महीने माघ के शुक्ल पक्ष के तेरहवें दिन मनाई जाती है. यह त्यौहार बहुत महत्व रखता है क्योंकि यह जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर या आध्यात्मिक नेता भगवान महावीर द्वारा प्राप्त ज्ञान केवल ज्ञान का स्मरण करता है. जैन मान्यताओं के अनुसार, भगवान महावीर ने बारह वर्ष और तेरह दिनों तक मेरु पर्वत पर ध्यान करने के बाद पूर्ण ज्ञान और मुक्ति प्राप्त की थी. यह शुभ अवसर उनकी तपस्या के अंत का प्रतीक है और प्राप्ति के शिखर का प्रतीक है.

मेरु त्रयोदशी अनुष्ठान
मेरु त्रयोदशी का उत्सव जैन मंदिरों में भक्तों के एकत्रित होने और प्रार्थना करने तथा आशीर्वाद लेने के साथ शुरू होता है. दिन की शुरुआत भगवान महावीर को समर्पित एक विशेष पूजा (पूजा) से होती है. विस्तृत अनुष्ठान किए जाते हैं, जिसमें अभिषेकम मुख्य होता है अनुष्ठान स्नान के बाद आरती की जाती है, जो ज्ञान के प्रतीक के रूप में है. भक्त इस दिन दान के विभिन्न कार्य भी करते हैं. वे जरूरतमंद लोगों को भोजन, कपड़े, पैसे या अन्य आवश्यक चीजें दान करते हैं, ताकि उनके आशीर्वाद के लिए आभार व्यक्त किया जा सके और सभी जीवित प्राणियों के प्रति करुणा को बढ़ावा दिया जा सके – जो जैन धर्म का एक मुख्य सिद्धांत है.

मेरु त्रयोदशी प्रेम का संदेश
मेरु त्रयोदशी का त्यौहार जैन धर्म के मूल्यों और शिक्षाओं को बढ़ावा देने का एक अवसर है. यह व्यक्तियों, विशेष रूप से बच्चों को भगवान महावीर के जीवन और मानवता के लिए उनके योगदान के बारे में जानने का अवसर देता है. कहानी सुनाने, भजनों के पाठ और आकर्षक गतिविधियों के माध्यम से, माता-पिता और बुजुर्ग जैन धर्म के ज्ञान को युवा पीढ़ी तक पहुँचाते हैं.
इस त्यौहार का एक और महत्वपूर्ण पक्ष धार्मिक प्रवचन या उपदेश सुनना है जो महावीर की शिक्षाओं को उजागर करते हैं. ये प्रवचन एक धार्मिक और पूर्ण जीवन जीने में अहिंसा, सत्य और आत्म-अनुशासन के महत्व पर जोर देते हैं.

मेरु त्रयोदशी का महत्व
हिंदू धर्म में अनेक व्रत, पर्व और तिथियाँ महत्वपूर्ण होती हैं, जिनमें से कुछ विशेष दिन विशेष पूजा-पाठ, उपव्रत और धार्मिक क्रियाओं के लिए प्रसिद्ध होते हैं. इन दिनों का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि, भगवान के साथ संबंध को प्रगाढ़ करना और पापों से मुक्ति प्राप्त करना होता है. इन विशेष दिनों में एक प्रमुख तिथि होती है, मेरु त्रयोदशी, जो विशेष रूप से उत्तम फल देने वाली मानी जाती है. “मेरु” शब्द का अर्थ होता है शिखर या सबसे ऊँचा स्थान, और “त्रयोदशी” का अर्थ होता है तेरहवीं तिथि. मेरु त्रयोदशी का महत्व विशेष रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाता है. इसे खासकर भगवान शिव, भगवान विष्णु और विशेष रूप से पर्वत मेरु से जुड़े अनुष्ठानों से जोड़ा जाता है.

मेरु त्रयोदशी का व्रत करने से व्यक्ति के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है. यह दिन विशेष रूप से उन लोगों के लिए होता है जो अपने पापों से मुक्ति चाहते हैं.
इस दिन का व्रत करने से जीवन में सुख, समृद्धि और शांति आती है. व्यक्ति के जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ और समस्याएँ दूर होती हैं और जीवन में सकारात्मक बदलाव आते हैं. इस दिन पूजा करने से व्यक्ति को मानसिक शांति और संतुलन मिलता है. साथ ही, यह व्यक्ति के मन में सकारात्मकता और आत्मविश्वास का संचार करता है.

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रवि प्रदोष व्रत: भगवान शिव के साथ होती है भगवान भास्कर की पूजा

रवि प्रदोष व्रत हिंदू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्रत है जो विशेष रूप से भगवान शिव की पूजा से जुड़ा हुआ है. यह व्रत हर महीने के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है, जो विशेष रूप से रविवार के दिन पड़ता है और इसे “रवि प्रदोष” कहा जाता है. इस दिन का महत्व भगवान शिव के प्रति श्रद्धा और भक्ति को प्रकट करने के लिए होता है, जो इस दिन व्रति की पूजा करके अपने भक्तों के सभी कष्टों को हर लेते हैं और उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं. 

रवि प्रदोष व्रत का महत्व शास्त्रों और पुराणों में बहुत अधिक बताया गया है. यह व्रत विशेष रूप से उन व्यक्तियों के लिए लाभकारी माना जाता है, जो जीवन में किसी प्रकार की कठिनाइयों या समस्याओं का सामना कर रहे होते हैं. इस व्रत को रखने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और वह सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त करता है. भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए इस दिन उनका पूजन विशेष रूप से लाभकारी माना जाता है. साथ ही, इस दिन का व्रत मनुष्य के जीवन को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है और उसे सद्गति की प्राप्ति होती है.

 इस दिन के व्रत से व्यक्ति का मन शांत होता है और वह आत्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है. प्रदोष व्रत से ध्यान, साधना और भक्ति में वृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्यों को सही दिशा में पा सकता है.

रवि प्रदोष व्रत से जुड़ी कथा

रवि प्रदोष व्रत से जुड़ी एक प्रसिद्ध कथा है, जो इस व्रत के महत्व को और भी स्पष्ट करती है. यह कथा इस प्रकार है कि प्राचीन समय में एक नगर में एक ब्राह्मण और उसकी पत्नी रहते थे. वे दोनों बहुत धार्मिक और सदाचारी थे, लेकिन उनके पास धन की कोई कमी नहीं थी. एक दिन ब्राह्मण के मन में विचार आया कि वह भगवान शिव की पूजा करें ताकि उन्हें अपने जीवन में सुख और समृद्धि प्राप्त हो. 

ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा कि वह रवि प्रदोष व्रत का पालन करें. उसकी पत्नी बहुत भक्ति भाव से इस व्रत को करने के लिए तैयार हो गई और उसने पूरी निष्ठा से उपवास रखा. एक दिन सूर्यास्त के समय जब वह शिव मंदिर में पूजा कर रही थी, तब भगवान शिव ने दर्शन दिए और उन्होंने व्रति से कहा, तुमने मेरा व्रत पूरी श्रद्धा से किया है, तुम्हें सभी कष्टों से मुक्ति मिलेगी और तुम्हारा घर आशीर्वाद से भर जाएगा. भगवान शिव के आशीर्वाद से ब्राह्मण और उसकी पत्नी के घर में संपत्ति का आगमन हुआ. उनका जीवन खुशहाल हो गया, और वे जीवनभर भगवान शिव की पूजा करते रहे. यह कथा हमें यह शिक्षा देती है कि रवि प्रदोष व्रत को श्रद्धा और भक्ति से करने से जीवन में समृद्धि और सुख की प्राप्ति होती है. 

रवि प्रदोष व्रत की पूजा विधि 

रवि प्रदोष व्रत को रखने से व्यक्ति की समृद्धि बढ़ती है और उसे अपने जीवन के सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है. रवि प्रदोष व्रत की पूजा विधि भी विशेष रूप से निर्धारित है. इस व्रत को विधिपूर्वक और श्रद्धा से करने पर व्रति को भगवान शिव की कृपा मिलती है.  इस दिन व्रत उपवास से शरीर और मन शुद्ध होता है, जिससे उसे शारीरिक और मानसिक शांति मिलती है. पूजा विधि इस प्रकार है:

रवि प्रदोष व्रत को रविवार के दिन त्रयोदशी तिथि को किया जाता है. पूजा का समय विशेष रूप से सूर्यास्त के बाद से लेकर रात में होता है. अगले दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करके शुद्ध होना चाहिए. सूर्य उपासना करनी चाहिए इसके बाद पूजा स्थल पर बैठना चाहिए और भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करते हुए उनका पूजन करना चाहिए. शिवलिंग पर जल, दूध, शहद, फूल, बेल पत्र, धतूरा, भांग, दीपक और कपूर चढ़ाए जाते हैं.इस दिन उपवास रखकर, दिनभर केवल फलाहार किया जाता है और रात में भगवान शिव की आराधना की जाती है. पूजा के दौरान शिव पुराण या महेश्वर स्तोत्र का पाठ भी करना चाहिए. गरीबों को अन्न का दान करना चाहिए और फिर व्रत का समापन करना चाहिए. 

रवि प्रदोष व्रत न केवल भगवान शिव की पूजा का एक तरीका है, बल्कि यह एक ऐसा अवसर है जब व्यक्ति अपनी धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ अपने जीवन में शांति, समृद्धि और सुख प्राप्त कर सकता है. यह व्रत न केवल एक व्यक्ति की आत्मा को शुद्ध करता है, बल्कि समाज और परिवार में भी सुख-शांति का वातावरण बनाता है. इसलिए, यह व्रत सभी के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है और इसे पूरी श्रद्धा और निष्ठा के साथ किया जाना चाहिए.

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गुरुवायुर एकादशी पूजा विधि और शुभ मुहूर्त

हिंदू धर्म में एकादशी को शुभ माना जाता है. साल में पड़ने वाली एकादशियों में से मलयालम महीने वृश्चिकम में आने वाली वृश्चिका एकादशी का विशेष महत्व है. केरल के गुरुवायुर में श्री कृष्ण मंदिर में भगवान विष्णु की पूजा का एक महत्वपूर्ण दिन है. इस दिन व्रत रखना, मंदिर जाना, प्रार्थना और तुलसी के पत्ते चढ़ाना और गायों को चारा खिलाना जैसे कई अनुष्ठान किए जाते हैं.

गुरुवायुर मंदिर में, जिसके मुख्य देवता भगवान कृष्ण हैं, उनके निमित्त पूजन होता है. एकादशी विलक्कू जिसका का अर्थ है जला हुआ दीपक यह कार्य एकादशी के दिन से एक महीने पहले शुरू होता है. यह भक्तों द्वारा एक भेंट के रूप में किया जाता है.

मंदिर में महीने भर चलने वाले एकादशी उत्सव के मुख्य आकर्षण उदयाष्टमन पूजा जो सुबह से शाम तक की पूजा होती है. प्रसिद्ध मंदिर के हाथी गजराजन केशवन के लिए एक स्मारक सेवा और प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार चेम्बाई वैद्यनाथ भागवतार की याद में आयोजित ग्यारह दिवसीय कर्नाटक संगीत समारोह. और एकादशी के दिन शाम की पूजा के बाद हाथी जुलूस के साथ प्रसिद्ध एकादशी विलक्कु निकाली जाती है.

गुरुवायुर एकादशी कब मनाई जाती है

गुरुवायुर एकादशी को गीता जयंती और गीतोपदेशम दिवस के रूप में भी मनाया जाता है. भारत के दक्षिण में स्थित केरल में गुरुवायुर एकादशी का पर्व पूरी आस्था के साथ मनाया जाता है. मलयालम कैलेंडर के अनुसार गुरुवायुर एकादशी की तिथि वृश्चिक मास के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन होती है. यह एकादशी 41 दिनों तक चलने वाले प्रसिद्ध मंडला पूजा उत्सव के दौरान आती है. 

गजराजन गुरुवायुर केशवन के सम्मान में हाथी जुलूस निकाला जाता है. एकादशी को एक शुभ दिन माना जाता है इस समय पर भगवान विष्णु की बड़ी श्रद्धा के साथ पूजा की जाती है. गुरुवायूर एकादशी केरल के गुरुवायूर स्थित श्री कृष्ण मंदिर में मनाई जाती है. अन्य क्षेत्रों में इस एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी और देवउठनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. मलयालम कैलेंडर के अनुसार, यह एकादशी वृश्चिकम महीने में मनाई जाती है.

गुरुवयूर एकादशी पूजा विशेष 

गुरुवायुर एकादशी का अपना धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है और यह दिन पूरी तरह से केरल के गुरुवायुर में श्री कृष्ण मंदिर में भगवान कृष्ण की पूजा करने के लिए समर्पित है. गुरुवायुर एकादशी के इस शुभ दिन पर, हाथियों की एक बड़ी जुलूस निकाली जाती है जिसमें कई हाथी शामिल होते हैं. मान्यता के अनुसार, एक बार एक हाथी गजराजन गुरुवायुर केशवन था, जिसकी मृत्यु इस शुभ एकादशी पर हुई थी. 

गुरुवायुर मंदिर के पन्नाथुर कोट्टा में हाथियों के नेता गुरुवायुर केशवन की मूर्ति पर माला चढ़ाते हैं और अन्य सभी हाथी मूर्ति के चारों ओर बैठते हैं और पूजा करते हैं. हाथी जुलूस पार्थसारथी मंदिर भी जाते हैं क्योंकि भगवान कृष्ण ने इस शुभ दिन अर्जुन को भगवद गीता सुनाई थी. इस दिन को गीता जयंती, गीतोपदेशम दिवस के रूप में भी मनाया जाता है.

गुरुवायुर एकादशी कथा 

द्वारकापुरी में एक विशेष मूर्ति थी, जिसे श्री हरि विष्णु ने ब्रह्माजी को प्रदान किया था. इस दिव्य मूर्ति का प्राचीन इतिहास रहा कथा अनुसार एक बार महाराज सुतपा और उनकी रानी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ब्रह्माजी की आराधना की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वह मूर्ति महाराज सुतपा को प्रदान की और उनसे इस मूर्ति की नियमित पूजा करने को कहा. महाराज ने पूरी श्रद्धा के साथ इस मूर्ति की पूजा शुरू कर दी. उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि ‘मैं स्वयं विष्णु तुम्हारी रानी के गर्भ से अनेक रूपों में जन्म लूंगा.’

अगले जन्म में उन्हीं राजा सुतपा और उनकी रानी ने राजा कश्यप और रानी अदिति के नाम से जन्म लिया. इस बार भगवान विष्णु ने बावन के रूप में उनके घर जन्म लिया. इसके बाद अगले जन्म में सुतपा ने वसुदेव के रूप में जन्म लिया. उनकी पत्नी देवकी के गर्भ से कृष्ण का जन्म हुआ. कंस का वध करने के बाद वसुदेव ने यह प्राचीन मूर्ति ऋषि धौम्य को दे दी. ऋषि धौम्य ने इस मूर्ति को द्वारका में स्थापित किया. 

बहुत समय बीतने के बाद एक बार श्री कृष्ण ने अपने मित्र उद्धव को देव गुरु बृहस्पति के पास एक विशेष संदेश लेकर भेजा. संदेश यह था कि द्वारकापुरी शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है. उस समय वह मूर्ति वहीं विराजमान थी. भगवान कृष्ण ने उद्धव से कहा कि वह मूर्ति असाधारण है और कलियुग में मेरे भक्तों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होगी. 

बृहस्पति और वायु देव ने की प्राण प्रतिष्ठा

श्री कृष्ण का संदेश पाकर जब देवगुरु बृहस्पति द्वारका पहुंचे, तब तक द्वारका समुद्र में डूब चुकी थी. देवगुरु बृहस्पति ने वायुदेव की सहायता से इस मूर्ति को समुद्र से निकाला और इसे स्थापित करने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज शुरू कर दी. वर्तमान में यह मूर्ति केरल में स्थापित है. कहा जाता है कि जिस मंदिर में यह मूर्ति स्थापित की गई थी, वहां एक सुंदर सरोवर था.

भगवान शिव, देवी पार्वती के साथ इसी झील के किनारे जलक्रीड़ा करते थे. बृहस्पति जी ने शिव से अनुमति लेकर उस प्राचीन मूर्ति को यहां स्थापित किया था. गुरु और वायु देव ने केरल के उस पवित्र स्थान पर इस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की थी, इसलिए इसका नाम गुरुवायुर पड़ा.

गुरुवायुर एकादशी महत्व  

केरल के गुरुवायुर कृष्ण मंदिर में गुरुवायुर एकादशी पर विभिन्न आयोजन किए जाते हैं. मान्यता है कि इस एकादशी पर गुरुवायुर मंदिर में विधि-विधान से भगवान कृष्ण की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं. केरल के प्रसिद्ध गुरुवायुर कृष्ण मंदिर में गुरुवायुर एकादशी बड़े ही उत्साह के साथ मनाई जाती है. इस एकादशी पर उदयस्थमन पूजा यानी सुबह से शाम तक पूजा, देवस्वोम द्वारा आयोजित की जाती है.

दक्षिण भारत में गुरुवायुर एकादशी पर सुबह की सीवेली एक छोटी पूजा के बाद पार्थसारथी मंदिर में हाथियों की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. इस दिन को गीतोपदेशम दिवस के रूप में भी मनाया जाता है. इस तिथि पर रात्रि में पूजा करने के बाद शोभायात्रा के साथ दीपदान किया जाता है, जिसे एकादशी विलक्कू कहते हैं. इसके साथ ही यह पर्व समाप्त हो जाता है. इस दिन मंदिरों में निर्माल्य दर्शन किए जाते हैं, जो सुबह से शुरू होकर अगले दिन यानी द्वादशी तिथि तक चलते हैं. द्वादशी के दिन मंदिरों में द्वादशी पणम के नाम से अपनी क्षमता के अनुसार धन चढ़ाने की भी परंपरा है.

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कन्नड़ हनुमान जयंती : मार्गशीर्ष माह में क्यों मनाई जाती है हनुमान जयंती

मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष त्रयोदशी तिथि को हनुमान जयंती भी मनाई जाती है. इस त्योहार को हनुमान व्रतम के नाम से भी जाना जाता है. कन्नड़ हनुमान जयंती मुख्य रूप से कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के अन्य हिस्सों में धूमधाम से मनाई जाती है. इस दिन भगवान हनुमान की विधिवत पूजा करने का विधान है.

पंचांग की बात करें तो हनुमान जयंती कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी और चैत्र मास की शुक्ल पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है. लेकिन कन्नड़ पंचांग के अनुसार हनुमान जयंती अगहन मास की त्रयोदशी तिथि को मनाई जाती है. जानिए कन्नड़ हनुमान जयंती का शुभ मुहूर्त और पूजा विधि.

कन्नड़ हनुमान जयंती व्रतम

ऐसा माना जाता है कि हनुमान मंत्र का जाप करके भगवान हनुमान की पूजा करने से शुभ फल प्राप्त होते हैं. इस दिन हनुमान चालीसा का पाठ करने से भगवान हनुमान प्रसन्न होते हैं. विधि-विधान से व्रत करने वाले व्यक्ति को जीवन के सभी पापों और बाधाओं से मुक्ति मिलती है. ऐसा माना जाता है कि इसी दिन हनुमान ने रावण की लंका भी जलाई थी. हनुमान जयंती के दिन भक्त अपनी शक्ति के अनुसार सिंदूर, लाल वस्त्र, चंदन, फूलों की माला आदि चढ़ाते हैं.

भगवान हनुमान को नारियल और पेड़ों के टुकड़े चढ़ाने से प्रसन्न होते हैं. साथ ही, भोग में दाख-चूरमा का उपयोग किया जाता है. केले आदि जैसे फल चढ़ाए जाते हैं. कपूर से आरती की जाती है. भगवान को प्रणाम किया जाता है, उनकी पूजा की जाती है और फिर भजन, कीर्तन और जागरण किए जाते हैं.

मार्गशीर्ष माह में क्यों मनाई जाती है हनुमान जयंती

कन्नड़ हनुमान जयंती  भगवान हनुमान जी की पूजा का विशेष समय होता है. इस समय के दौरान कर्नाटक और तमिलनाडु में इसे बहुत ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है. लोग भगवान हनुमान की पूजा करते हैं और इस दिन को बड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं. यह त्योहार मुख्य रूप से कर्नाटक और तमिलनाडु में मनाया जाता है. हनुमान जयंती का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है.

उत्तर भारत में यह दिन चैत्र माह में भगवान हनुमान के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है, लेकिन दक्षिण भारत में यह दिन अलग-अलग महीनों में अलग-अलग दिनों पर मनाया जाता है. इस बार इसे कन्नड़ हनुमान जयंती के रूप में मनाया जाएगा. भक्त इस शुभ दिन पर भगवान हनुमान की पूजा करते हैं और उनका आशीर्वाद लेने के लिए हनुमान मंदिर भी जाते हैं.

कन्नड़ हनुमान जयंती 2025: समय मुहूर्त 

इस वर्ष 3 दिसंबर, 2025 को मनाया जाएगा. भक्त प्रार्थना करते हैं, हनुमान मंदिर जाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. भगवान हनुमान अपनी अपार शक्तियों और ताकत के लिए जाने जाते हैं, जिनकी पूजा के अनुष्ठानों में पवित्र स्नान करना, माला और मिठाई चढ़ाना, हनुमान चालीसा का पाठ करना, व्रत रखना इत्यादि शामिल होता है. 

मार्गशीर्ष माह में भगवान हनुमान जी की पूजा का महत्व 

भगवान हनुमान अष्ट चिरंजीवी में से एक हैं जो अमर हैं और अभी भी इस धरती पर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं. वे आठवीं सिद्धि और नौ निधि के स्वामी हैं और यह वरदान उन्हें देवी सीता ने दिया था. वे कहीं भी जाने की क्षमता रखते हैं, उनके पास बहुत सारी शक्तियाँ हैं और हनुमान जी जितना शक्तिशाली कोई नहीं है. अधिकांश पहलवान हनुमान जी जैसी शक्ति और ताकत पाने के लिए भगवान हनुमान की पूजा करते हैं और हमेशा उनका आशीर्वाद लेते हैं.

भगवान हनुमान पिता केसरी और माता अंजना के पुत्र हैं. उनकी माँ उन्हें बचपन में सुंदर कहकर बुलाती थीं. जो लोग सोचते हैं कि उनका जीवन बहुत कष्टमय है और वे बहुत सारी समस्याओं से पीड़ित हैं और उन्हें अपना रास्ता नहीं मिल रहा है, उन्हें पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ हनुमान जी की पूजा करने की सलाह दी जाती है.

कन्नड़ हनुमान जयंती पूजा नियम

हनुमान जयंत के शुभ अवसर पर भक्त सुबह जल्दी उठते हैं और पवित्र स्नान करते हैं. वे लकड़ी के तख्ते पर भगवान हनुमान की मूर्ति रखते हैं और देसी घी का दीया जलाते हैं और माला और बूंदी के लड्डू जैसी मिठाइयाँ चढ़ाते हैं. हनुमान चालीसा, सुंदर कांड और रामचरितमानस का पाठ करते हैं. कई भक्त इस दिन उपवास रखते हैं और आशीर्वाद लेने के लिए मंदिर जाते हैं.  

भक्ति और विश्वास के साथ भगवान हनुमान की पूजा करनी चाहिए. पूजा करते समय तेल में सिंदूर मिलाकर भगवान को अर्पित किया जाता है. हनुमान जयंती पर भक्त लाल रंग के वस्त्र, ध्वज, सिंदूर आदि चढ़ाते हैं. भगवान हनुमान को भोग लगाया जाता है, जिसमें फल, लड्डू, गेहूं का चूरमा आदि शामिल होते हैं. 

शाम को सुंदरकांड का पाठ करते हुए मूर्ति के सामने चमेली के तेल का दीपक जलाया जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव ने मां अंजना के गर्भ से भगवान हनुमान का जन्म लिया था. शास्त्रों के अनुसार इस दिन पवित्र स्नान, दान और अन्य धार्मिक कार्यों का विशेष महत्व है. ऐसा माना जाता है कि इस पूरे महीने धार्मिक कार्य करने से व्यक्ति को शुभ फलों की प्राप्ति होती है. कुछ स्थानों पर लोग भगवान लक्ष्मी नारायण को प्रसन्न करने के लिए व्रत भी रखते हैं. इस दिन कई जगहों पर मेले लगते हैं. यह व्रत हर आयु वर्ग के लोग रख सकते हैं. इस व्रत को रखने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. भगवान हनुमान जीवन के सभी प्रकार के कष्टों और समस्याओं को दूर करते हैं.

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परशुराम द्वादशी : पूजा और महत्व

वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को परशुराम द्वादशी का उत्सव मनाया जाता है. परशुराम द्वादशी धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम के अवतरण का प्रतीक है. इस दिन का हिंदू धर्म में बहुत बड़ा धार्मिक महत्व माना गया है.

माना जाता है कि वे अष्ट चिरंजीवी में से एक होने के कारण आज भी पृथ्वी पर मौजूद हैं. भगवान परशुराम भगवान शिव के परम भक्त हैं और एक बार उन्होंने भगवान शिव का आशीर्वाद पाने के लिए कठोर तपस्या की थी और उन्हें भगवान का आशीर्वाद भी मिला साथ ही अस्त्र भी प्राप्त हुआ. 

2025 में परशुराम द्वादशी कब है ? 

8 मई 2025 को मनाई जाएगी परशुराम द्वादशी. वैशाख, शुक्ल द्वादशी बृहस्पतिवार के दिन किया जाएगा परशुराम जी का पूजन. भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं. पंचांग के अनुसार, इसी दिन भगवान परशुराम धरती पर प्रकट हुए थे. 

परशुराम द्वादशी 2025: तिथि और समय

द्वादशी तिथि प्रारंभ – 08 मई, 2025  12:29 से आरंभ होगी

भगवान श्री विष्णु के अवतार थे परशुराम 

माना जाता है कि परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, उनका जन्म अक्षय तृतीया, वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन हुआ था, जिसे उनके जन्म दिवस के रूप में भी मनाया जाता है. सदियों से इस दिन व्रत और अन्य धार्मिक कार्य करना इस दिन की पहचान रही है. मान्यताओं के अनुसार, उन्होंने कई बार क्षत्रियों को हराया था. उनका जन्म क्षत्रियों के अभिमान से संसार को मुक्त करने के लिए हुआ था. द्रोणाचार्य को परशुराम ने शिक्षा दी थी.

परशुराम द्वादशी विशेष पूजा अनुष्ठान 

भगवान परशुराम का जन्म वैशाख माह के शुक्ल पक्ष में हुआ था, इसलिए इस दिन को भगवान परशुराम द्वादशी के रूप में मनाया जाता है. परशुराम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है. वे राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगु वंश के जमदग्नि के पुत्र थे. परशुराम भगवान शिव के भक्त थे. उनके पास अपार ज्ञान था और वे एक महान योद्धा थे. उनके जन्म के दिन को पूरे भारत में परशुराम द्वादशी के रूप में बहुत उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है. इस दिन अन्य हवन, पूजा, भंडारे आदि के साथ परशुराम शोभा यात्रा का आयोजन किया जाता है. मूल रूप से उनका नाम राम था. लेकिन, भगवान शिव द्वारा उन्हें दिए गए रहस्यमयी परशुराम के कारण उन्हें परशुराम के नाम से जाना जाने लगा.

जमदग्नि और रेणुका की संतान थे परशुराम  

माना जाता है कि इस माह के शुभ समय पर परशुराम का जन्म हुआ था. इस दिन हैदेय वंश के राजाओं का नाश करने के लिए परशुराम जी का पुजन किया जाता है.  परशुराम जमदग्नि और रेणुका के पांचवें पुत्र थे. उनके चार बड़े भाई थे जिनके नाम थे रुमण्वंत, सुषेण, विश्व और विश्वावसु. परशुराम के पास अपार ज्ञान था और वे एक महान योद्धा थे.

मानव जाति के हित के लिए जीना चाहते थे. परशुराम में अपार ऊर्जा थी और वे एक महान इंसान थे. परशुराम हमेशा असमर्थों की मदद करते थे और अपने हर फैसले में न्याय करते थे. इस दिन किया गया कोई भी शुभ काम फल देता है. इस दिन को शुभ माना जाता है, परशुराम द्वादशी हिंदुओं द्वारा बहुत समर्पण और उत्साह के साथ मनाई जाती है. प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में परशुराम का चरित्र दोषरहित लगता है. मूल रूप से परशुराम का नाम राम था. इसलिए यह भी कहा जाता है कि राम का जन्म राम से पहले हुआ था.

परशुराम द्वादशी का महत्व परशुराम कथा

भगवान परशुराम के जन्म के बारे में दो कहानियाँ प्रसिद्ध हैं. हरिवंश पुराण के अनुसार प्राचीन काल में महिष्मती नगरी नाम की एक नगरी थी. इस नगरी पर हैहय वंश के कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु का शासन था. वह एक क्रूर राजा था. देवी पृथ्वी भगवान विष्णु के पास गईं क्योंकि वे क्षत्रियों से परेशान थीं. उन्होंने उनसे मदद मांगी. भगवान विष्णु ने उनसे वादा किया कि वे क्षत्रियों के राज्य को नष्ट करने के लिए जमदग्नि के पुत्र के रूप में जन्म लेंगे. भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में अवतार लिया और राजाओं को हराया.

परशुराम ने अर्जुन को मार डाला और पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से मुक्त किया. उन्होंने समंतपंचक जिले के पाँच तालाबों को उनके रक्त से भर दिया. ऋषि त्रिचिक ने परशुराम से ऐसा न करने को कहा. इसलिए, उन्होंने पृथ्वी को ऋषि कश्यप को उपहार में दे दिया और महेंद्र पर्वत पर रहने लगे.

परशुराम द्वादशी का हिंदू धर्म में बहुत बड़ा धार्मिक महत्व है. दक्षिण भारत में, परशुराम द्वादशी का हिंदुओं के बीच बहुत महत्व है. लोग पूरी श्रद्धा और शुद्ध इरादों के साथ भगवान परशुराम की पूजा करते हैं. भगवान परशुराम ही वे हैं जिन्होंने धर्म और धार्मिकता को बनाए रखने के लिए इक्कीस बार पृथ्वी से क्षत्रियों का सफाया किया था. वे लोगों को सद्भाव और मोक्ष प्रदान करने के उद्देश्य से पृथ्वी पर प्रकट हुए थे. उनके पास जो हथियार था वह एक कुल्हाड़ी थी. ऐसा माना जाता है कि वे आज भी इस धरती पर मौजूद हैं क्योंकि वे अष्ट चिरंजीवी में से एक हैं. 

परशुराम जी और एकदंत कथा

माना जाता है कि एक बार उन्होंने भगवान गणेश से भी युद्ध किया था और उनका एक दांत तोड़ दिया था. भगवान परशुराम भगवान शिव के परम भक्त हैं और एक बार उन्होंने भगवान शिव से आशीर्वाद पाने के लिए कठोर तपस्या की थी. भगवान शिव उनके आध्यात्मिक गुरु थे जिन्होंने उन्हें शास्त्र और शास्त्र विद्या दी थी.

भक्त भगवान परशुराम की पूजा करके उनकी पूजा करते हैं. इस शुभ दिन पर पवित्र नदियों में स्नान करने के लिए जाते हैं. वे जरूरतमंदों को भोजन और कपड़े वितरित करते हैं. परशुराम मंदिर मुख्य रूप से दक्षिण भारत में स्थित हैं जहां भक्त भगवान का सम्मान करने और आशीर्वाद लेने के लिए जाते हैं. वे मिठाई, फूल और नारियल चढ़ाते हैं. भगवान को प्रसन्न करने के लिए इस पवित्र प्रार्थना परशुराम स्त्रोत का पाठ करना चाहिए..

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मत्स्य द्वादशी : जानें तिथि, समय, अनुष्ठान और महत्व

मत्स्य द्वादशी वह दिन है जो भगवान विष्णु को समर्पित है. यह वह दिन है जब भगवान विष्णु मत्स्य के रूप में अवतार लेते हैं. यह दिन मोक्षदा एकादशी के बाद मनाया जाता है जो मार्गशीर्ष माह में शुक्ल पक्ष में आती है. मत्स्य द्वादशी वह दिन है जो भगवान विष्णु को समर्पित है. यह दिन मोक्षदा एकादशी के बाद मनाया जाता है जो मार्गशीर्ष माह में शुक्ल पक्ष में आती है. मत्स्य द्वादशी का हिंदुओं में विशेष महत्व है.

मत्स्य द्वादशी पूजा विशेष
मत्स्य द्वादशी का हिंदुओं में विशेष महत्व है. इस शुभ दिन पर भगवान श्री हरि मछली के रूप में प्रकट हुए थे. यह भगवान विष्णु के बारह अवतारों में से एक है. इस दिन मंदिरों में भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है. दक्षिण भारत के अनेके स्थानों में इसकी पूजा को विशेष होती है. आंध्र प्रदेश में भगवान विष्णु के मछली अवतार को समर्पित उत्सव बहुत खास होता है.

भगवान विष्णु के मछली अवतार को समर्पित कई मंदिर यहां स्थापित हैं. ऐसा माना जाता है कि मत्स्य द्वादशी के दिन जो भक्त भगवान विष्णु की पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ पूजा करते हैं, उन्हें सुख, समृद्धि और मनोवांछित कामनाओं की पूर्ति का आशीर्वाद मिलता है. अग्नि पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार, वैवस्वत मनु नाम के एक राजा थे और वे मनु राजाओं के वंशज थे.

माना जाता है कि मनु राजाओं को भगवान ब्रह्मा ने बनाया था. वैवस्वत मनु महान राजा थे और वे आध्यात्मिक रूप से सक्रिय थे. अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करने के बाद, उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप दिया और तपस्या करने के लिए वन में चले गए. उनका नाम सत्यव्रद था. उन्होंने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए वर्षों तक तपस्या की. भगवान ब्रह्मा ने उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने के लिए कहा. उन्होंने मांगा कि जब पूरी दुनिया जल में डूब जाएगी तो वे ही जीवित रहेंगे और अन्य लोगों को बचाएंगे. भगवान ब्रह्मा ने खुशी-खुशी उन्हें वरदान दिया और अंतर्ध्यान हो गए.

मत्स्य द्वादशी पूजा लाभ
भगवान विष्णु के सभी अवतारों में से मत्स्य अवतार सबसे महत्वपूर्ण अवतारों में से एक है. इसे भगवान विष्णु का पहला अवतार भी माना जाता है. इस अवतार में भगवान विष्णु ने मछली का रूप धारण कर सृष्टि को विनाश से बचाया था. भगवान के इस अवतार से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं. यह सभी बातें प्रकृति में निर्माण और संतुलन पर केंद्रित हैं.

मत्स्य द्वादशी उस बात का प्रतिनिधित्व करती है जो कहता है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में मानवता ही उत्तम है. भगवान का यह अवतार व्यक्ति के जीवन की नई यात्रा की शुरुआत को दर्शाता है. इस दिन को हिंदू बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाते हैं. भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और विभिन्न मंदिरों में भागवत कथाओं का आयोजन किया जाता है. पारंपरिक तौर पर लोग मत्स्य द्वादशी के अवसर पर धार्मिक स्थलों पर जाते हैं और पवित्र नदियों में स्नान करते हैं.

मत्स्य द्वादशी पूजा विधि
मत्स्य द्वादशी के दिन पवित्र नदियों में स्नान करना चाहिए.पवित्र नदियों में जाना संभव न हो तो घर पर ही शुद्ध जल का उपयोग करना चाहिए. सूर्योदय के समय सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए.
भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए और ‘श्री नमो नारायण’ मंत्र का जाप करना चाहिए. पूजा स्थल पर एक वेदी स्थापित करें और उसे गंगाजल से साफ करें, उस पर पीला कपड़ा बिछाएं. पीले कपड़े पर भगवान विष्णु की मत्स्य अवतार मूर्ति स्थापित करें.

भगवान को चंदन केसर का तिलक लगाएं. भगवान को पुष्प माला अर्पित करें. पूजा करते समय भगवान को पंचामृत, फल, मेवे आदि अर्पित करें. मत्स्य अवतार कथा का पाठ करें. भागवत और मत्स्य पुराण का पाठ करना उत्तम होता है.

श्री विष्णु की आरती के बाद भगवान को भोग लगाना चाहिए. भोग में खीर और मिठाई का प्रयोग करना चाहिए. इसके बाद इसे परिवार के सदस्यों में बांटना चाहिए. मत्स्य द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा देना अत्यंत लाभकारी माना जाता है. मत्स्य द्वादशी के दिन मंत्र का जाप करना चाहिए.

नदियों और अन्य जलाशयों में मछलियों को गेहूं के आटे की छोटी गोलियां खिलानी चाहिए. इस दिन सात प्रकार के अनाज दान करने चाहिए. इस दिन मंदिरों में हरिवंशपुराण का दान करना चाहिए. मत्स्य द्वादशी कथा मत्स्य द्वादशी की कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है. भगवान विष्णु का पहला अवतार मत्स्य अवतार है. जब दुनिया का अंत होने वाला था, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर पृथ्वी को बचाया.

मत्स्य द्वादशी की कथा

सत्यव्रत मनु भगवान विष्णु के परम भक्त थे. एक दिन सत्यव्रत मनु भगवान की पूजा और तर्पण करने के लिए नदी पर जाते हैं. वहां उनके कमंडल में एक छोटी मछली गिर जाती है. सत्यव्रत मनु एक धर्मपरायण, दयालु और परोपकारी राजा थे, वे उस मछली को अपने घर ले जाते हैं, लेकिन मछली बहुत बड़ी हो जाती है. उसे घर में रखना मुश्किल हो जाता है. इसलिए सत्यव्रत उसे एक तालाब में स्थानांतरित कर देते हैं.

जैसे ही मछली को तालाब में डाला जाता है, वह इतनी बड़ी हो जाती है कि वह उस तालाब में समा नहीं पाती. तब राजा मनु मछली को तालाब से निकालकर नदी में डाल देते हैं, लेकिन मछली फिर से बड़ी होकर नदी से भी बड़ी हो जाती है. अंत में मनु उस मछली को समुद्र में डाल देते हैं, फिर भी मछली समुद्र से भी बड़ी हो जाती है.

मछली का यह रूप देखकर मनु आश्चर्यचकित हो जाते हैं. उन्हें एहसास होता है कि यह कोई साधारण मछली नहीं है. वे मछली को प्रणाम करते हैं, हाथ जोड़ते हैं और मछली से इस सब के पीछे का रहस्य बताने के लिए कहते हैं. भगवान विष्णु मछली से प्रकट होते हैं और उन्हें बताते हैं कि सात दिनों के बाद पृथ्वी पर प्रलय होगा. परिणामस्वरूप, पृथ्वी जल में डूब जाएगी. इसलिए उन्होंने मछली का अवतार लिया है. फिर वे राजा मनु को दुनिया को बचाने के लिए अपने निर्देशों का पालन करने के लिए नियुक्त करते हैं.

मत्स्य द्वादशी : भगवान मत्स्यावतार

श्री विष्णु मनु से एक बड़ी नाव बनाने के लिए कहते हैं. वे मनु से कहते हैं कि फिर सभी आवश्यक वस्तुओं को इकट्ठा करें और उन्हें नाव में रखें. फिर वे मनु से कहते हैं कि सप्तर्षि और अन्य सभी जीवों को नाव पर बुलाएं. इस तरह प्रलय के बाद भी संसार का पुनर्निर्माण किया जा सकता है. मनु भगवान द्वारा दिए गए सभी निर्देशों का पालन करते हैं. ठीक सात दिन बाद प्रलय होता है.

भगवान विष्णु एक बार फिर मछली के अवतार में आते हैं और सत्यव्रत से नाव को मछली से बांधने के लिए कहते हैं. प्रलय समाप्त होने तक भगवान विष्णु मत्स्य अवतार में जल में रहते हैं. नाव मछली से जुड़ जाने पर सभी बच जाते हैं. भगवान विष्णु चारों वेदों को अपने पास रखते हैं और उन्हें भगवान ब्रह्मा को दे देते हैं ताकि वे संसार का पुनर्निर्माण कर सकें.इस प्रकार भगवान मत्स्यावतार लेकर पृथ्वी का उद्धार करते हैं तथा सभी जीवों का कल्याण सुनिश्चित करते हैं.

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मार्गशीर्ष द्बादशी , जानें क्यों है विशेष मार्गशीर्ष मास की द्वादशी

मार्गशीर्ष द्वादशी में आने वाले द्वादशी व्रत का बहुत महत्व है. हर द्वादशी में दो द्वादशी आती हैं, एक कृष्ण पक्ष की द्वादशी और दूसरी शुक्ल पक्ष की द्वादशी. इस द्वादशी में द्वादशी पर गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों में स्नान का विशेष महत्व है. मार्गशीर्ष द्वादशी में यमुना नदी में स्नान करने से भगवान की प्राप्ति आसानी से हो जाती है. मान्यताओं के अनुसार इस माह से ही एकादशी का आरंभ हुआ था और उसके पश्चात द्वादशी का प्रारंभ होता है. जिसके कारण यह काफी विशेष समय होता है.

जो भी भक्त अपने जीवन में भगवान की कृपा बनाए रखना चाहते हैं और हर संकट से मुक्ति चाहते हैं, उन्हें मार्गशीर्ष द्वादशी के दौरान पवित्र नदी में स्नान करने अवश्य जाना चाहिए, लेकिन जिनके लिए ऐसा करना संभव नहीं है, उन्हें अपने स्नान के पानी में थोड़ा सा पवित्र जल मिलाकर घर पर ही स्नान करना चाहिए.अपने नाम के अनुरूप ही यह व्यक्ति को उसके उद्देश्यों और कार्यों में सफलता दिलाने वाली है. शास्त्रों और पुराणों के अनुसार मनुष्य का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है. इस द्वादशी व्रत से मोक्ष की राह आसान हो जाती है. 

मार्गशीर्ष द्वादशी कब और क्यों मनाई जाती है

द्वादशी और एकादशी की शुरुआत के बारे में पुराणों में जो कथा मिलती है उसके अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु के शरीर से एकादशी का जन्म हुआ था. इसलिए मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की एकादशी उत्पन्ना द्वादशी के नाम से जाना जाता है और इसके बाद आने वाली तिथि द्वादशी होती है जो भगवान श्री हर के पूजन के लिए विशेष बन जाती है. 

द्वादशी का नामकरण उस द्वादशी की पूर्णिमा तिथि जिस नक्षत्र से संबंधित होती है, उसके आधार पर किया जाता है. मार्गशीर्ष द्वादशी की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से संबंधित होने के कारण इस द्वादशी को मार्गशीर्ष कहा जाता है. इसके अलावा इसे मगसर, मंगसिर, अगहन, अग्रहायण द्वादशी आदि नामों से भी जाना जाता है. इसकी महिमा स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने गीता में बताई है. गीता के 10वें अध्याय के 35वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-

मार्गशीर्ष द्वादशी पौराणिक महत्व 

भगवान कहते हैं महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूं इसलिए इस द्वादशी में भगवान श्री कृष्ण की पूजा करने की बड़ी महिमा है. इस द्वादशी में भगवान श्री कृष्ण की पूजा करने से व्यक्ति को जीवन में हर प्रकार की सफलता प्राप्त होती है और वह हर प्रकार के संकट से बाहर निकलने में सक्षम होता है. सतयुग में देवताओं ने मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से वर्ष का प्रारंभ किया था.  मार्गशीर्ष द्वादशी में स्नान और दान का बहुत महत्व है.

मार्गशीर्ष द्वादशी पूजा अनुष्ठान 

मार्गशीर्ष द्वादशी का बहुत महत्व है. यह द्वादशी भगवान कृष्ण की पूजा को समर्पित है. इस दौरान यथासंभव धार्मिक कार्य करने चाहिए. इससे सौभाग्य की प्राप्ति होती है. इस दौरान कान्हा जी के नामों का जाप करना बहुत शुभ माना जाता है. पंचांग अनुसार मार्गशीर्ष नौवां महीना होता है. इस माह में आने वाली द्वादशी भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न करने पर विशेष जोर दिया जाता है. शास्त्रों में मार्गशीर्ष द्वादशी श्री कृष्ण का प्रिय है. इस द्वादशी में मुरलीधर की पूजा करने से जीवन में खुशियां आती हैं. ऐसे में जब आज से यह पावन महीना शुरू हो रहा है तो भगवान कृष्ण की विशेष पूजा करें. उन्हें फल, फूल, नैवेद्य (भोजन प्रसाद), धूप, दीप अर्पित करें.

मार्गशीर्ष द्वादशी के दौरान व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर स्नान करके खुद को शुद्ध करना चाहिए, भगवान का ध्यान करना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए. स्नान से पहले तुलसी की जड़ की मिट्टी से भी स्नान करें, यानी इसका लेप अपने शरीर पर लगाएं और लेप लगाने के कुछ देर बाद पानी से स्नान करें. साथ ही स्नान करते समय ‘ॐ नमो भगवते नारायणाय’ या गायत्री मंत्र का जाप करें.

मार्गशीर्ष द्वादशी के दिन गर्म कपड़े, कंबल, मौसमी फल, बिस्तर, भोजन और अन्न दान का विशेष महत्व है. साथ ही इस द्वादशी में पूजन सामग्री जैसे आसन, तुलसी की माला, चंदन, पूजा मूर्ति, मोर पंख, जल का पात्र, आचमनी, पीतांबर, दीपक आदि का दान शुभ माना जाता है.

सभी द्वादशी किसी न किसी देवता को समर्पित होते हैं और सभी महीनों में कुछ खास व्रत और त्योहार शामिल होते हैं. इन्हीं महीनों में से एक महीना है मार्गशीर्ष महीना जिसे अगहन भी कहा जाता है. यह साल का नौवां महीना होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस द्वादशी में भगवान विष्णु, श्री कृष्ण और माता लक्ष्मी की पूजा करने का बहुत महत्व है. साथ ही यह महीना पितरों की शांति और मोक्ष प्राप्ति के लिए भी खास माना जाता है. ऐसे में आइए जानते हैं मार्गशीर्ष द्वादशी से जुड़े महत्वपूर्ण नियम.

मार्गशीर्ष द्वादशी महत्व 

मार्गशीर्ष द्वादशी  पवित्र नदियों में स्नान, भगवान की पूजा और दान-पुण्य करना बहुत शुभ माना जाता है. वहीं इस द्वादशी में खरद्वादशी भी शुरू हो जाता है जिसमें शुभ काम करना वर्जित माना जाता है. मान्यता है कि मार्गशीर्ष द्वादशी में भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि आती है और भगवान कृष्ण की पूजा करने से मन को शांति मिलती है.

मार्गशीर्ष द्वादशी में गंगा या किसी अन्य पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए. स्नान के बाद भगवान सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए. द्वादशी के दिन सात्विक भोजन करना चाहिए और तामसिक चीजों, जैसे मांस और शराब से दूर रहना चाहिए. जो लोग व्रत धारण कर सकें उन्हें व्रत का नियम लेना चाहिए. इस द्वादशी में भगवान विष्णु, श्रीकृष्ण और देवी लक्ष्मी की पूजा अवश्य करनी चाहिए. इसके साथ ही इस द्वादशी में विष्णुसहस्रनाम और भगवद गीता का पाठ करना भी शुभ माना जाता है. इस द्वादशी जरूरतमंदों को कपड़े, कंबल और भोजन का दान करें. गाय, कुत्ते, कौवे और चींटियों को खाना खिलाना भी फलदायी माना जाता है. पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण करें. अगर आप गंगा घाट नहीं जा सकते हैं, तो घर पर ही पवित्र तरीके से पूजा करें.

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