ज्येष्ठ मास का महत्व और विभिन्न राशियों के लिए उपाय

हिंदू पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ मास वर्ष का तीसरा महीना होता है, जो वैशाख मास के बाद आता है. यह मास विशेष रूप से तप, संयम, और पवित्र आचरण के लिए जाना जाता है. इस माह में सूर्य देवता का विशेष पूजन किया जाता है, क्योंकि यह समय ग्रीष्म ऋतु का चरम होता है, जब सूर्य अपनी पूरी ऊर्जा के साथ पृथ्वी पर प्रभाव डालते हैं. ऐसे में धर्म, साधना, सेवा, और दान का विशेष महत्व होता है. ज्येष्ठ मास में व्रत, तीर्थ स्नान, जल दान, और गंगा स्नान आदि को अत्यधिक पुण्यदायी माना जाता है. इस महीने में मनुष्य को अपने इंद्रियों पर संयम रखते हुए सात्विक जीवनशैली अपनानी चाहिए ताकि आत्मिक बल की वृद्धि हो सके.

ज्येष्ठ माह और इस समय की विशेष बातें
ज्येष्ठ मास में विशेष रूप से वट सावित्री व्रत, निर्जला एकादशी, गंगा दशहरा, और श्री गंगा पूजन जैसे पर्व आते हैं, जो धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यंत शुभ माने जाते हैं. निर्जला एकादशी का व्रत तो समस्त एकादशियों में सबसे महान माना गया है, क्योंकि इसमें बिना जल के उपवास किया जाता है और इसका फल समस्त एकादशियों के समान होता है. इस मास में प्यासे प्राणियों को जल दान करना, प्याऊ लगवाना, छाया देना, और शीतल जल का वितरण करना महान पुण्य का कार्य माना जाता है. साथ ही, ज्येष्ठ मास में की गई पूजा-अर्चना का फल कई गुना बढ़ जाता है.

यह मास वैदिक ग्रंथों और पुराणों में भी विशेष स्थान रखता है. स्कंद पुराण में बताया गया है कि इस महीने में भगवान विष्णु और भगवान शिव की आराधना करने से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस महीने में संयमित आहार, जल सेवन में सावधानी, अधिक गर्म पदार्थों से परहेज़, और सूर्य नमस्कार का विशेष महत्व होता है. इस मास में भगवान सूर्य को अर्घ्य देना, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करना और हनुमान जी की आराधना करना भी विशेष रूप से लाभकारी माना गया है.

ज्येष्ठ माह में राशि अनुसार किए जाने वाले कार्य
अब यदि हम ज्येष्ठ मास में विभिन्न राशियों के लिए किए जाने वाले उपायों की बात करें, तो ज्योतिष के अनुसार यह समय ग्रहों की चाल और प्रभाव के आधार पर हर राशि पर भिन्न-भिन्न परिणाम देता है. इस मास में यदि जातक अपनी राशि के अनुसार विशेष उपाय करें तो जीवन में सुख, समृद्धि, और स्वास्थ्य की प्राप्ति हो सकती है.

मेष राशि वालों के लिए यह मास आत्मनिरीक्षण और आत्मशक्ति बढ़ाने का होता है. इन्हें इस समय हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए और मंगलवार के दिन लाल वस्त्र में चना दाल और गुड़ बांधकर हनुमान मंदिर में अर्पण करना चाहिए.

वृषभ राशि के लिए यह समय धन-संचय और परिवारिक शांति के लिए उपयुक्त है. इन्हें मां लक्ष्मी की उपासना करनी चाहिए और शुक्रवार के दिन सफेद मिठाई गरीबों में बांटनी चाहिए.

मिथुन राशि के लोगों को इस समय वाणी पर संयम रखना चाहिए. इन लोगों को बुधवार के दिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करना लाभदायक होता है.

कर्क राशि वालों के लिए यह समय भावनाओं पर नियंत्रण और आत्मबल बढ़ाने का होता है. इन्हें शिवलिंग पर कच्चा दूध अर्पित करना चाहिए और सोमवार के दिन रुद्राष्टक का पाठ करना चाहिए.

सिंह राशि को इस समय स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए और सूर्य देव को जल अर्पित करना चाहिए. इन्हें आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन करना चाहिए.

कन्या राशि वालों के लिए यह समय करियर और संबंधों को सुदृढ़ बनाने का होता है. इन्हें बुध ग्रह को प्रसन्न करने के लिए तुलसी में जल अर्पित करना चाहिए और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप करना चाहिए.

तुला राशि को इस समय मन की शांति और न्याय की भावना को बल देना चाहिए. इन्हें मां दुर्गा की उपासना करनी चाहिए और शुक्रवार के दिन कन्याओं को भोजन कराना शुभ होता है.

वृश्चिक राशि के लिए यह समय ऊर्जा और साहस को पुनः जाग्रत करने का होता है. इन्हें हनुमान जी की आराधना करनी चाहिए और प्रत्येक मंगलवार को मसूर की दाल दान करना लाभदायक होता है.

धनु राशि के लोगों को इस मास में धर्म और अध्यात्म की ओर झुकाव रखना चाहिए. इन्हें बृहस्पति देव की पूजा करनी चाहिए और पीले वस्त्र पहनकर गुरुवार को पीले फल और मिठाई दान करनी चाहिए.

मकर राशि वालों को इस समय व्यावसायिक निर्णय सोच-समझकर लेने चाहिए. शनिदेव की पूजा करना, शनिवार को सरसों के तेल का दीपक जलाना, और काले तिल का दान करना लाभकारी होता है.

कुंभ राशि के जातकों को इस मास में समाज सेवा और मानसिक संतुलन पर ध्यान देना चाहिए. इन्हें शनिवार के दिन गरीबों को छाता, चप्पल, या जल पात्र दान करना चाहिए.

मीन राशि के लिए यह समय आत्मिक उन्नति और ध्यान के लिए उपयुक्त होता है. इन्हें भगवान विष्णु की आराधना करनी चाहिए, जल में तुलसी डालकर अर्घ्य देना चाहिए, और “ॐ विष्णवे नमः” का जाप करना चाहिए.

ज्येष्ठ माह और इस समय का महत्व
ज्येष्ठ मास की तीव्र गर्मी केवल बाहरी रूप से शरीर को तपाती नहीं, बल्कि आंतरिक ऊर्जा को भी जागृत करने का अवसर प्रदान करती है. यह तपस्या, दान, सेवा और संयम का काल होता है. इस मास में जितना अधिक संयम और सत्कर्म किया जाता है, उतना ही अधिक आत्मिक विकास संभव होता है. सूर्य की उग्रता जहां शरीर को अशांत करती है, वहीं यह आत्मा के परिष्कार के लिए आदर्श काल बनती है.

इस मास में संयमित जीवनशैली अपनाकर, जल से जीवन की रक्षा कर, और देवी-देवताओं की आराधना कर मनुष्य अपने जीवन को अधिक पवित्र, शुद्ध और आनंदमय बना सकता है. इसके साथ ही यदि जातक अपनी राशि के अनुसार विशेष उपाय करें तो उन्हें मानसिक शांति, आर्थिक स्थिरता, और आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति संभव होती है. इस प्रकार ज्येष्ठ मास न केवल एक ऋतु विशेष का परिचायक है, बल्कि यह आत्मिक जागरण और कर्म के प्रति सजगता का संदेश देता है, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है.

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वैशाख पूर्णिमा और इस दिन किए जाने वाले राशि अनुसार उपाय

वैशाख पूर्णिमा हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है. यह तिथि धार्मिक, आध्यात्मिक और ज्योतिषीय दृष्टि से अत्यंत पावन मानी जाती है. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा विशेष फलदायी मानी जाती है. साथ ही, बुद्ध पूर्णिमा भी इसी दिन आती है, जिसे भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की स्मृति में मनाया जाता है.

इस दिन गंगा स्नान, व्रत, उपवास और दान का विशेष महत्व है. माना जाता है कि वैशाख पूर्णिमा पर किया गया पुण्य कई गुना बढ़कर फल देता है. यह तिथि आत्मशुद्धि, पितृ दोष निवारण और मनोकामना पूर्ति के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है. साथ ही, इस दिन विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ, तुलसी जल अर्पण और दीप दान करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है.

वैशाख पूर्णिमा पर दान और पुण्य का लाभ

वैशाख पूर्णिमा के दिन अन्न, वस्त्र, जल, घी, चावल, गुड़, शहद, पंखा, जल से भरे घड़े, छाता और धार्मिक ग्रंथों का दान करने से विशेष लाभ मिलता है. गाय, ब्राह्मण और जरुरतमंदों को किए गए दान से जीवन में पापों का क्षय होता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है.

इस दिन हनुमान जी को सिंदूर और चोला चढ़ाना चाहिए, साथ ही गुड़-चने का भोग लगाना चाहिए. इससे शत्रु बाधा दूर होती है.लक्ष्मी नारायण मंदिर में सफेद मिठाई चढ़ाना चाहिए और गरीबों को दान दें. धन लाभ के योग बनते हैं. दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए और कन्याओं को भोजन कराना चाहिए. बुद्धि और वाणी में सकारात्मकता आती है. शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करना चाहिए. पारिवारिक जीवन में सुख-शांति बढ़ती है. सूर्य देव को जल अर्पण करना चाहिए और गाय को गुड़ रोटी खिलानी चाहिए जिससे मान-सम्मान में वृद्धि होती है.

वैशाख पूर्णिमा पर राशि अनुसार उपाय और महत्व 

मेष राशि 

इस दिन हनुमान जी को चमेली का तेल और सिंदूर चढ़ाना चाहिए, चने-गुड़ का भोग लगाना चाहिए और हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए.

मेष राशि के जातकों को साहस, ऊर्जा और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है. यह उपाय उनके भीतर छुपी शक्ति को जाग्रत करता है और शत्रु बाधा या कोर्ट-कचहरी से जुड़े मामलों में सफलता दिलाता है.

वृषभ राशि 

लक्ष्मी-नारायण मंदिर में जाकर शुद्ध घी का दीपक जलाएं, सफेद वस्त्र धारण कर मीठा प्रसाद (खीर, मिश्री) चढ़ाना चाहिए और गरीबों को वस्त्र एवं अन्न दान करना चाहिए.

वृषभ राशि के जातकों के लिए यह उपाय आर्थिक स्थिरता और भौतिक सुख-सुविधाओं में वृद्धि लाता है. ग्रहों की बाधा से मुक्ति मिलती है और सौंदर्य व ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.

मिथुन राशि

इस दिन मां दुर्गा को श्रृंगार की वस्तुएं अर्पित करना चाहिए, दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए और छोटी कन्याओं को भोजन कराना चाहिए.

मिथुन राशि के लोगों को मानसिक स्पष्टता और वाणी पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है. यह उपाय उनके विचारों में स्थिरता लाकर संवाद में प्रभावशाली बनाता है, जिससे सामाजिक और व्यावसायिक लाभ होता है.

कर्क राशि

शिवलिंग पर दूध, जल और बेलपत्र अर्पित करना चाहिए. चावल और दूध का दान करना चाहिए.

कर्क राशि के जातक भावुक और संवेदनशील होते हैं. शिव पूजन से उनके मानसिक तनाव और पारिवारिक असंतुलन दूर होते हैं. यह उपाय घर में शांति और समृद्धि लाता है.

सिंह राशि 

सूर्य देव को तांबे के लोटे में जल, लाल पुष्प और गुड़ डालकर अर्घ्य दें. साथ ही गाय को गुड़ रोटी खिलानी चाहिए.

सिंह राशि वालों के लिए यह उपाय आत्मसम्मान, पद-प्रतिष्ठा और नेतृत्व क्षमता में वृद्धि करता है. सरकारी कामों में लाभ मिलता है और समाज में सम्मान बढ़ता है.

कन्या राशि

श्री विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए, तुलसी के पौधे में जल चढ़ाना चाहिए और पीले वस्त्र का दान करना चाहिए.

कन्या राशि के जातकों के लिए यह उपाय मानसिक शांति और रोग-मुक्ति लाता है. पढ़ाई, लेखन और शोध कार्यों में सफलता मिलती है.

तुला राशि 

राधा-कृष्ण मंदिर में गुलाब के फूल और श्रृंगार सामग्री अर्पित करना चाहिए. सफेद वस्त्र और मिठाई का दान करना चाहिए.

तुला राशि के जातक संतुलन और सौंदर्य में विश्वास रखते हैं. यह उपाय प्रेम संबंधों में मिठास लाता है, वैवाहिक जीवन को सुखद बनाता है और मन की चंचलता शांत करता है.

वृश्चिक राशि 

काल भैरव या महाकाली की पूजा करना चाहिए. काले तिल और उड़द दाल का दान करना चाहिए.

वृश्चिक राशि के जातक तीव्र स्वभाव और गूढ़ चिंतन वाले होते हैं. यह उपाय नकारात्मक ऊर्जा, भय और आकस्मिक घटनाओं से रक्षा करता है और आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करता है.

धनु राशि 

विष्णु जी को केले और पीले पुष्प अर्पित करना चाहिए. पीले वस्त्र पहनें और ब्राह्मणों को दान दें.

यह उपाय गुरु ग्रह को बल देता है, जिससे शिक्षा, ज्ञान, यात्रा और आध्यात्मिक उन्नति में सफलता मिलती है. भाग्यबल प्रबल होता है.

मकर राशि 

भगवान शनि को तिल के तेल से अभिषेक करना चाहिए, काले तिल और लोहे के पात्र का दान करना चाहिए.

मकर राशि के जातकों के लिए यह उपाय कार्यक्षेत्र में बाधाएं दूर करता है. कर्मफल में सुधार होता है और जीवन में स्थिरता आती है.

कुंभ राशि 

गरीबों को जल से भरे घड़े, पंखा, चप्पल और ताजा फल का दान करना चाहिए.

कुंभ राशि के जातक मानवीय सेवा में रुचि रखते हैं. यह उपाय उनके सामाजिक प्रभाव को बढ़ाता है और आकस्मिक लाभ या मदद के योग बनाता है.

मीन राशि 

भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए, केले के पेड़ की पूजा करना चाहिए और जरूरतमंदों को भोजन कराना चाहिए.

मीन राशि के जातक भावुक और कल्पनाशील होते हैं. यह उपाय उनके मन को स्थिर करता है, आध्यात्मिक उन्नति में सहायता करता है और दाम्पत्य सुख को बढ़ाता है.

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ज्येष्ठ माह की एकदंत संकष्टी चतुर्थी व्रत और पूजा महत्व

हिंदू धर्म में भगवान गणेश को विघ्नहर्ता और प्रथम पूज्य देवता के रूप में पूजा जाता है. वर्ष भर में भगवान गणेश को समर्पित कई व्रत और त्योहार मनाए जाते हैं, जिनमें से संकष्टी चतुर्थी का विशेष स्थान है. प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है, और यदि यह मंगलवार को पड़े तो अंगारकी संकष्टी चतुर्थी कहलाती है. ज्येष्ठ माह की संकष्टी चतुर्थी को ‘एकदंत संकष्टी चतुर्थी’ कहा जाता है, जो भगवान गणेश के ‘एकदंत’ स्वरूप को समर्पित होती है.

ज्येष्ठ माह एकदंत संकष्टी चतुर्थी व्रत का महत्व

ज्येष्ठ मास की संकष्टी चतुर्थी का धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्व होता है. इस दिन व्रती गणेश जी की पूजा करके समस्त कष्टों, बाधाओं और संकटों से मुक्ति की कामना करते हैं. ‘संकष्टी’ शब्द का अर्थ होता है ‘संकट को हरने वाली’, और ‘एकदंत’ भगवान गणेश का वह स्वरूप है जिनका एक ही दांत है. पौराणिक मान्यता है कि इस दिन विधिपूर्वक व्रत और पूजा करने से जीवन के सभी दुखों और रोगों का नाश होता है और भक्त को सुख, समृद्धि और सफलता की प्राप्ति होती है.

एकदंत गणेश जी का स्वरूप

भगवान गणेश के एकदंत स्वरूप का भी पौराणिक महत्व है. एक कथा के अनुसार, एक बार परशुराम जी जब भगवान शिव से मिलने कैलाश पर्वत पहुंचे, तब गणेश जी ने उन्हें अंदर जाने से रोका. इससे क्रोधित होकर परशुराम जी ने अपने फरसे से गणेश जी पर प्रहार किया, जिससे उनका एक दांत टूट गया. तभी से उन्हें एकदंत कहा गया. यह स्वरूप दृढ़ संकल्प, संयम और क्षमाशीलता का प्रतीक माना जाता है.

ज्येष्ठ माह की एकदंत संकष्टी चतुर्थी व्रत विधि

इस दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए. भगवान गणेश की प्रतिमा या चित्र को लाल या पीले वस्त्र पर स्थापित करने चाहिए. फिर उन्हें रोली, अक्षत, दूर्वा, लाल फूल, मोदक, नारियल आदि अर्पित करने चाहिए. व्रत में दिनभर निराहार या फलाहार रहकर संध्या के समय चंद्रमा के दर्शन के बाद व्रत खोला जाता है.

स्नान व संकल्प लेना चाहिए, प्रातः काल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए और व्रत का संकल्प लेना चाहिए.

पूजन सामग्री तैयार करने चाहिए, दूर्वा, फूल, मोदक, लड्डू, धूप, दीप, कपूर, रोली, अक्षत, जल से भरा कलश, पंचामृत आदि एकत्र करने चाहिए.

भगवान गणेश की स्थापना शुभ होती है, घर के मंदिर में गणेश जी की प्रतिमा रखें और उनके समक्ष कलश स्थापित करने चाहिए.

ध्यान और आवाहन करना शुभ होता है, भगवान गणेश का ध्यान करने चाहिए और उन्हें पूजन के लिए आमंत्रित करने चाहिए.

रोली, अक्षत और चंदन से तिलक करने चाहिए.

फूल और दूर्वा चढ़ाएं. दूर्वा को विशेष महत्व दिया जाता है.

भोग के रूप में मोदक या लड्डू अर्पित करने चाहिए.

धूप-दीप जलाकर आरती करने चाहिए.

व्रत कथा का पाठ शुभ होता है, एकदंत संकष्टी चतुर्थी की कथा श्रवण करने चाहिए या पढ़ना चाहिए.

चंद्रमा को अर्घ्य देना शुभ होता है रात में चंद्रमा के दर्शन कर अर्घ्य दें और व्रत का पारण करने चाहिए.

ज्येष्ठ माह की एकदंत संकष्टी चतुर्थी व्रत का लाभ

इस व्रत को करने से व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति आती है.

सभी प्रकार के विघ्न और बाधाएं दूर होती हैं.

संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वालों को संतान सुख की प्राप्ति होती है.

व्यापार, नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की मिलती है.

मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति होती है.

रोगों और शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है.

ज्येष्ठ माह की एकदंत संकष्टी चतुर्थी का पौराणिक महत्व

धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि चतुर्थी तिथि स्वयं भगवान गणेश को अत्यंत प्रिय है. एकदंत चतुर्थी का व्रत भगवान के एकदंत स्वरूप की आराधना से संबंधित है. यह स्वरूप हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में यदि कोई कठिनाई आए, तो उसे धैर्य और संयम से पार किया जा सकता है. एकदंत होने के बाद भी गणेश जी अपने सभी कार्यों में सफल रहते हैं, यह हमारे लिए प्रेरणास्रोत है.

ज्येष्ठ माह की एकदंत संकष्टी चतुर्थी की कथा

प्राचीन समय की बात है, एक निर्धन ब्राह्मण परिवार था. उसमें एक महिला अपने पुत्र की लंबी आयु के लिए हर संकष्टी चतुर्थी को व्रत करती थी. एक बार ज्येष्ठ माह की संकष्टी चतुर्थी आई. महिला ने व्रत रखा और विधिपूर्वक पूजन किया. उसी रात उसे स्वप्न में भगवान गणेश के एकदंत स्वरूप के दर्शन हुए. भगवान ने कहा कि “तुम्हारे व्रत से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं, तुम्हारा पुत्र लंबी उम्र वाला और बुद्धिमान बनेगा.”

अगले दिन उस महिला ने चंद्र दर्शन के साथ व्रत का पारण किया. समय के साथ उसका पुत्र विद्वान, धर्मनिष्ठ और समाज का आदर्श बन गया. इस कथा से यह सिद्ध होता है कि भगवान गणेश अपने भक्तों के व्रत से प्रसन्न होकर उन्हें मनोवांछित फल प्रदान करते हैं.

ग्रामीण क्षेत्रों में संकष्टी चतुर्थी विशेष उत्सव के रूप में मनाई जाती है. कई स्थानों पर भजन-कीर्तन, कथा पाठ, गणेश पूजन और सामूहिक व्रत भी आयोजित किए जाते हैं. ज्येष्ठ माह में गर्मी अधिक होती है, इसलिए इस समय व्रत करने से शरीर को संयम और मन को स्थिरता की प्राप्ति होती है. यह तप और भक्ति दोनों का अद्भुत मेल है.

ज्येष्ठ माह की एकदंत संकष्टी चतुर्थी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि और मानसिक अनुशासन का माध्यम भी है. भगवान गणेश के प्रति श्रद्धा और आस्था रखने वाले इस व्रत को पूरी निष्ठा से करते हैं, जिससे उनके जीवन की अनेक समस्याएं दूर हो जाती हैं. यह व्रत विश्वास, समर्पण और नियमितता का प्रतीक है. एकदंत गणेश की पूजा करके हम न केवल अपने जीवन के विघ्नों को हर सकते हैं, बल्कि अपने आत्मबल को भी सुदृढ़ कर सकते हैं.

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वैशाख प्रदोष व्रत: वैशाख शुक्ल प्रदोष व्रत और पूजा विधि

भारतीय संस्कृति में व्रत और पर्वों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है. इनका न केवल धार्मिक महत्व है, बल्कि आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक शुद्धि से भी इनका गहरा संबंध है. इन्हीं पर्वों में से एक है प्रदोष व्रत, जो प्रत्येक मास के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को आता है. जब यह व्रत वैशाख मास में पड़ता है, तो इसे वैशाख प्रदोष व्रत कहा जाता है. यह व्रत विशेष रूप से भगवान शिव को समर्पित होता है और इसमें संध्या के समय उनकी पूजा-आराधना की जाती है. वैशाख प्रदोष व्रत न केवल पुण्यदायक माना गया है, बल्कि यह भक्तों के समस्त पापों का नाश करने वाला तथा समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला व्रत भी है.

प्रदोष व्रत पौराणिक प्रभाव 

प्रदोष शब्द का अर्थ होता है संध्या काल, अर्थात दिन और रात्रि के मिलन का समय. यह समय न केवल वातावरण की दृष्टि से, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा के दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है. शास्त्रों के अनुसार, यह वह समय होता है जब भगवान शिव अपने तांडव रूप में आकाश में विचरण करते हैं और उनके साथ समस्त देवगण भी सक्रिय रहते हैं. यही कारण है कि प्रदोष के समय भगवान शिव की आराधना करने से उनके विशेष कृपा प्राप्त होती है.

शिवपुराण, स्कंदपुराण तथा अन्य अनेक ग्रंथों में प्रदोष व्रत की महिमा का विस्तृत वर्णन मिलता है. इस व्रत को विधिपूर्वक करने से जीवन के समस्त क्लेश दूर होते हैं, कष्टों का अंत होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति संभव होती है. विशेष रूप से जिन व्यक्तियों की कुंडली में शनि, राहु अथवा केतु की अशुभ दशा हो, उनके लिए यह व्रत अत्यंत लाभकारी माना गया है.

वैशाख प्रदोष व्रत की विधि

प्रदोष व्रत को करने के लिए दिनभर उपवास रखा जाता है. कुछ भक्त जल और फलाहार लेते हैं, तो कुछ पूर्ण उपवास का पालन करते हैं. पूजा का मुख्य समय संध्या वेला होता है, जो दिन ढलने और रात्रि प्रारंभ होने के मध्य का समय होता है. इस समय शिवलिंग की विशेष पूजा की जाती है.

पूजा स्थल को साफ कर शिवलिंग की स्थापना की जाती है. गंगाजल, दूध, दही, शहद, घी और शक्कर से शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है. इसके बाद बिल्वपत्र, धतूरा, भांग, सफेद फूल, चावल आदि अर्पित किए जाते हैं. धूप-दीप जलाकर शिव तांडव स्तोत्र, शिवाष्टक, महामृत्युंजय मंत्र या रुद्राष्टक का पाठ किया जाता है.

रात्रि को जागरण करना भी इस व्रत का भाग है. भक्त पूरी रात भगवान शिव के नाम का स्मरण करते हैं और भक्ति गीत गाते हैं. अगले दिन प्रातः स्नान कर दान-पुण्य कर व्रत का समापन किया जाता है.

वैशाख मास का विशेष महत्व

वैशाख मास को हिन्दू पंचांग के अनुसार सबसे पुण्यकारी महीनों में से एक माना जाता है. इसे ‘मासों का महीना’ भी कहा गया है, क्योंकि इस मास में किए गए धर्म-कर्म, स्नान, दान, तप और जप का फल अनंतगुना होता है. वैशाख में सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं, जिससे धर्म और ऊर्जा का विशेष संचार होता है. यह महीना विशेष रूप से ब्रह्मा, विष्णु और शिव त्रिदेवों की आराधना के लिए श्रेष्ठ माना गया है. वैशाख के दौरान प्रदोष व्रत करना अतिशय पुण्यदायी होता है क्योंकि इस महीने में वातावरण अत्यंत सात्विक होता है, शरीर और मन में शुद्धता बनी रहती है, और पूजा-अर्चना का प्रभाव शीघ्र और गहन होता है.

वैशाख प्रदोष व्रत की कथा

वैशाख प्रदोष व्रत के साथ भी एक पौराणिक कथा जुड़ी है. एक बार एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र के साथ वन में रहती थी. उसका पुत्र अत्यंत धर्मशील और माता का भक्त था. एक दिन वह जंगल में शिकारियों द्वारा घायल एक राजकुमार को बचा लाया और उसकी सेवा की. कुछ समय बाद ज्ञात हुआ कि वह एक महान राज्य का उत्तराधिकारी है. उस ब्राह्मण बालक और राजकुमार ने मिलकर प्रदोष व्रत का पालन किया. भगवान शिव की कृपा से राजकुमार को उसका राज्य पुनः प्राप्त हुआ और ब्राह्मण बालक को यश, धन और विद्या प्राप्त हुई.

यह कथा हमें यह सिखाती है कि चाहे कोई कितना ही साधारण क्यों न हो, अगर वह श्रद्धा और नियमपूर्वक व्रत करे, तो भगवान शिव की कृपा से सब कुछ संभव है.

हिंदू धर्म के व्रत न केवल आध्यात्मिक लाभ प्रदान करते हैं, बल्कि उनका वैज्ञानिक आधार भी है. प्रदोष व्रत शरीर की शुद्धि का एक माध्यम है. दिनभर उपवास करने से शरीर के विषैले तत्व बाहर निकलते हैं. संध्या समय पूजा करने से मानसिक शांति और ध्यान केंद्रित करने की शक्ति मिलती है. दीपक जलाने, मंत्र जपने और विशेष रूप से शिव मंत्रों के उच्चारण से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है. इस प्रकार यह व्रत व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक और आत्मिक दृष्टि से सशक्त बनाता है.

वैशाख शुक्ल प्रदोष व्रत लाभ  

वैशाख प्रदोष व्रत का पालन केवल एक व्यक्ति की उन्नति तक सीमित नहीं रहता. जब कोई घर का सदस्य इस व्रत को करता है, तो उसके पुण्य का लाभ पूरे परिवार को प्राप्त होता है. यह व्रत व्यक्ति के अंदर संयम, श्रद्धा, सेवा, और सहनशीलता जैसे गुणों को विकसित करता है. वैशाख प्रदोष व्रत एक ऐसा धार्मिक अनुष्ठान है जो जीवन को धर्म, आस्था और साधना से जोड़ता है. यह व्रत न केवल भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने का एक माध्यम है, बल्कि आत्मशुद्धि, अनुशासन और साधना का भी एक उत्कृष्ट मार्ग है. अगर इसे श्रद्धा और विधिपूर्वक किया जाए, तो यह जीवन में चमत्कारी परिवर्तन ला सकता है. प्रदोष व्रत जैसे व्रत हमारे जीवन को संतुलन और शांति देने में मदद करते हैं.

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चित्रा पौर्णमि : जानें इस दिन का महत्व और विशेष प्रभाव

चित्रा पौर्णमि का पर्व तमिल हिन्दुओं का एक विशेष त्यौहार है जो चिथिराई माह में आने वाली पूर्णिमा तिथि पर मनाया जाता है. इस त्योहार का संबंध चित्रगुप्त जी से है जिन्हें यमराज का सहायक माना जाता है. भगवान चित्रगुप्त सभी जीवों के कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं जिसके अनुसार जीव अपने पाप अथवा पुण्यों के अनुसा फल पाता है. इस दिन भक्त भगवान चित्रगुप्त की पूजा करते हैं और अपने कर्मों की शुभता के लिए प्रार्थना करते हैं और जाने अंजाने में हुए गलत कामों के लिए क्षमा मांगते हैं. जिससे भक्त अपने जीवन के शुभ कर्मों को बढ़ा सके और सुखी जीवन का आशीर्वाद प्राप्त कर सके.

चित्रा पूर्णिमा कब मनाई जाती है?

चित्रा पूर्णिमा एक प्रमुख हिन्दू पर्व है जो दक्षिण भारत में धूम धाम से मनाते हैं तमिल हिंदुओं का खास समय होता है जो चिथिराई मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है. जब सूर्य मेष राशि में होता है, तो यह वैदिक नववर्ष की शुरुआत को दर्शाता और पहली पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र में चमकती है, तो इसे चित्रा पूर्णिमा या चित्रा पूर्णिमा कहा जाता है.इस दिन चंद्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है और इसे धार्मिक दृष्टि से बहुत शुभ माना जाता है. चित्रा नक्षत्र और पूर्णिमा तिथि के संयोग से इसे चित्रा पूर्णिमा कहा जाता है.

इस दिन धूप, कपूर, फूलों के साथ कर्मों को लिखने वाले लेखाकार बहीखाताकार चित्रगुप्त और भगवान शिव की पूजा करना बहुत शुभ माना जाता है. गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन कराने से भी दिव्य आशीर्वाद प्राप्त हो सकता है. चित्र पूर्णिमा का पौराणिक महत्व चित्र पूर्णिमा चित्र पूर्णिमा को दिव्य लेखाकार चित्रगुप्त का जन्मदिन माना जाता है. भगवान ब्रह्मा ने उन्हें सूर्य देव के माध्यम से बनाया था. उन्हें मृत्यु के देवता यम का छोटा भाई और उनका सहायक माना जाता है.

माना जाता है कि चित्रगुप्त मनुष्यों के अच्छे और बुरे कर्मों को रिकॉर्ड करने के लिए पृथ्वी पर निगरानी रखते हैं. ऐसा भी माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति मरता है, तो चित्रगुप्त तुरंत उस व्यक्ति के अच्छे और बुरे कर्मों की पूरी जाँच करते हैं. फिर वह व्यक्ति की आत्मा के भाग्य पर अंतिम निर्णय लेने के लिए भगवान यम को संदेश देते हैं. इस दिन, वह उदार हो जाते हैं और उन लोगों के पापों को मिटाने में मदद कर सकते हैं जो अपने कर्मों से छुटकारा पाने के लिए उपाय करते हैं.

चित्रा पूर्णिमा पूजा विधि

चित्रा पूर्णिमा के दिन श्रद्धालु प्रातःकाल उठकर स्नान कर पवित्रता का पालन करते हैं. फिर विशेष रूप से चंद्र देव, भगवान विष्णु और चित्रगुप्त की पूजा की जाती है. दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु और केरल में इस दिन की पूजा अत्यंत भव्य होती है. पूजा विधि इस प्रकार होती है

सुबह सूर्योदय से पूर्व स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें.

घर या मंदिर में चित्रगुप्त जी की मूर्ति या चित्र स्थापित करें.

उन्हें अक्षत, फूल, धूप, दीप, रोली और नैवेद्य अर्पित करें.

व्रत करने वाले व्यक्ति उपवास रखते हैं और दिन भर भजन-कीर्तन करते हैं.

रात में चंद्रमा को अर्घ्य देना अत्यंत शुभ माना जाता है.

कई स्थानों पर पवित्र नदियों में स्नान करना भी आवश्यक माना जाता है.

चित्रा पूर्णिमा क्यों मनाई जाती है?

चित्रा पूर्णिमा का पर्व मुख्य रूप से पुण्य अर्जन, पापों का शमन और आत्मशुद्धि हेतु मनाया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ यमराज के सचिव चित्रगुप्त जी की पूजा का विशेष महत्व होता है. चित्रगुप्त जी का कार्य जीवों के कर्मों का लेखा-जोखा रखना है. मान्यता है कि इस दिन की गई पूजा से व्यक्ति के पाप कम होते हैं और उसे धर्म, मोक्ष तथा सत्य पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है. इसके अलावा यह भी मान्यता है कि इस दिन किए गए दान और सेवा के कार्य कई गुना फलदायी होते हैं.

चित्रा पूर्णिमा पूजा के लाभ

चित्रा पूर्णिमा व्रत और पूजा करने से अनेक आध्यात्मिक एवं सांसारिक लाभ प्राप्त होते हैं.

कर्म शुद्धि: इस दिन की पूजा व्यक्ति को अपने बुरे कर्मों से मुक्ति दिलाती है और उसे आत्मनिरीक्षण करने का अवसर देती है.

मानसिक शांति: चंद्र पूजा से मन को शांति मिलती है और तनाव कम होता है.

धन और समृद्धि: भगवान विष्णु और चित्रगुप्त जी की कृपा से जीवन में धन, सुख और वैभव की प्राप्ति होती है.

पारिवारिक सुख: इस दिन पूजा करने से पारिवारिक समस्याएँ दूर होती हैं और परिवार में शांति एवं प्रेम बना रहता है.

आरोग्यता: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चित्रा पूर्णिमा पर स्नान और उपवास करने से शरीर की शुद्धि होती है और रोगों से मुक्ति मिलती है.

मोक्ष की प्राप्ति: यह दिन मोक्षदायक माना गया है. विशेष रूप से वे लोग जो अपने पूर्वजों की शांति हेतु यह व्रत करते हैं, उन्हें दिव्य लाभ प्राप्त होता है.

चित्रा पूर्णिमा का महत्व

चित्रा पूर्णिमा न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है. इसका महत्व निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है. यह दिन विशेष रूप से चित्रगुप्त जी और चंद्र देव की आराधना के लिए शुभ होता है. इस दिन की पूजा से आत्मा की शुद्धि और मन की शांति प्राप्त होती है. चित्रगुप्त न्याय और धर्म के रक्षक माने जाते हैं. इस दिन उनके प्रति श्रद्धा और निष्ठा प्रकट कर मनुष्य अपने कर्मों की जिम्मेदारी समझता है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन स्नान, दान और पूजा करने से हजारों यज्ञों के बराबर पुण्य प्राप्त होता है. चंद्रमा मानसिक स्वास्थ्य का प्रतीक है. पूर्णिमा पर चंद्रमा की शीतलता और ऊर्जा ध्यान और ध्यान साधना के लिए उपयुक्त मानी जाती है.

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नरसिंह चतुर्दशी पूजा महत्व : जानें तिथि पूजा विधि और महत्व

नरसिंह चतुर्दशी वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन मनाई जाती है। भगवान नरसिंह का संबंध हमेशा से ही शक्ति और विजय से रहा है। मान्यताओं और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, भगवान विष्णु ने इस दिन भगवान नरसिंह के रूप में अवतार लिया था और हिरण्यकश्यप का वध किया था। 2025 में नरसिंह चतुर्दशी 11 मई को मनाई जाएगी।

हिंदू कैलेंडर के अनुसार, नरसिंह चतुर्दशी वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है। किंवदंतियों के अनुसार, भगवान विष्णु ने इस दिन अवतार लिया था और इस दुनिया में धर्म की स्थापना के लिए हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसलिए, इस दिन को पूरे देश में नरसिंह चतुर्दशी के रूप में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है।

नरसिंह चतुर्दशी पौराणिक कथा 

भगवान नरसिंह भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक हैं। भगवान नरसिंह आधे मनुष्य और आधे शेर थे। इस रूप में उन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था। भगवान विष्णु के इस अवतार की व्याख्या कई धार्मिक ग्रंथों में की गई है। 

हरिण्याक्ष और हिरण्यकश्यप 

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में कश्यप नाम के एक ऋषि थे, जिनकी पत्नी का नाम दिति था। उनके दो पुत्र थे, जिन्हें हरिण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के नाम से जाना जाता था। भगवान विष्णु ने पृथ्वी और मानव जाति की रक्षा के लिए हरिण्याक्ष का वध किया। हिरण्यकश्यप अपने भाई की मृत्यु को सहन नहीं कर सका और बदला लेना चाहता था। उसने कठोर तपस्या की और भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न किया, जो प्रकट हुए और उसे आशीर्वाद दिया। भगवान ब्रह्मा का आशीर्वाद लेने के बाद, हिरण्यकश्यप ने सभी लोकों पर अपना शासन स्थापित किया। उसने स्वर्ग पर भी शासन करना शुरू कर दिया। 

प्रह्लाद का जन्म 

सभी देवता असहाय थे और हिरण्यकश्यप के अत्याचारों के बारे में कुछ नहीं कर सकते थे। इसी बीच, उसकी पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रहलाद रखा गया। यह बच्चा किसी राक्षस जैसा नहीं था और पूरी तरह से भगवान नारायण को समर्पित था। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को भगवान नारायण से विचलित करने और उसे राक्षस बनाने के लिए कई तरह के प्रयास किए। उसके सारे प्रयास विफल हो गए और प्रहलाद भगवान नारायण के प्रति और भी अधिक समर्पित हो गया। भगवान विष्णु के आशीर्वाद के कारण, प्रहलाद हमेशा हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से बचा रहा।

एक बार, हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को जलाने की कोशिश की। उसने प्रहलाद को अपनी बहन (होलिका) की गोद में आग में बैठा दिया। होलिका को वरदान था कि वह आग में नहीं जल सकती। लेकिन, प्रहलाद के गोद में बैठने के कारण होलिका जिंदा जल गई और प्रहलाद को कुछ नहीं हुआ। यह देखकर हिरण्यकश्यप बहुत क्रोधित हुआ। यहां तक ​​कि उसकी प्रजा भी भगवान विष्णु की पूजा करने लगी। उसने प्रहलाद से उसके भगवान के बारे में पूछा। उसने अपने भगवान से उसके सामने प्रकट होने के लिए कहा। 

नृसिंह भगगवान का अवतरण 

प्रहलाद ने उत्तर दिया कि भगवान हर जगह मौजूद हैं और हर चीज में निवास करते हैं। यह सुनकर हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद से पूछा कि क्या उसके भगवान एक खंभे में रहते हैं, जिस पर प्रहलाद ने कहा, हां।

यह सुनकर हिरण्यकश्यप ने खंभे पर हमला किया और भगवान नरसिंह उसके सामने प्रकट हुए। भगवान नरसिंह ने उसे अपने पैरों पर खड़ा किया और अपने नाखूनों से उसकी छाती काटकर उसे मार डाला। भगवान नरसिंह ने प्रहलाद को आशीर्वाद देते हुए कहा कि जो कोई भी इस दिन व्रत करेगा, उसे आशीर्वाद मिलेगा और सभी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। इसलिए, इस दिन को नरसिंह चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है।

भगवान नरसिंह की पूजा

नरसिंह चतुर्दशी के दिन भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है। व्यक्ति को ब्रह्म मुहूर्त में जल्दी उठना चाहिए और स्नान करना चाहिए। फिर उसे साफ कपड़े पहनने चाहिए और भगवान नरसिंह की पूजा करनी चाहिए। भगवान नरसिंह के साथ देवी लक्ष्मी की मूर्ति रखनी चाहिए। दोनों की पूजा भक्ति और समर्पण के साथ करनी चाहिए। प्रार्थना में निम्नलिखित वस्तुओं का उपयोग किया जाना चाहिए: फल, फूल, पांच मिठाइयां, कुमकुम, केसर, नारियल, चावल, गंगाजल आदि।

ॐ नमो भगवते नरसिंहाय: 

ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं:  

ॐ क्षौम् नमो भगवते नरसिंहाय:  

ॐ वज्रनखाय विद्महे:  

ॐ श्री लक्ष्मी-नृसिंहाय: 

भगवान नरसिंह को प्रभावित करने के लिए, व्यक्ति को एकांत में बैठना चाहिए और रुद्राक्ष की माला से नरसिंह मंत्र का जाप करना चाहिए। व्रत रखने वाले व्यक्ति को इस दिन तिल, सोना, कपड़े आदि दान करने चाहिए। इस दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को सभी समस्याओं से मुक्ति मिलती है। भगवान नरसिंह अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं और उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।

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वृषभ संक्रांति: परंपरा, ज्योतिषीय महत्त्व और सांस्कृतिक पक्ष

वृषभ संक्रांति का समय ज्येष्ठ संक्रांति के नाम से भी मनाया जाता है। सूर्य के मेष राशि से निकल कर वृषभ राशि में जाने का समय ही संक्रांति के रुप में पूजनीय रहा है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ खगोलीय घटना न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जाती हैं, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी विशेष स्थान रखती हैं. ऐसी ही एक महत्वपूर्ण खगोलीय घटना है वृषभ संक्रांति. यह दिन सूर्य के मेष राशि से वृषभ राशि में प्रवेश करने का सूचक होता है. यह संक्रांति ज्योतिषीय रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है और इसका भारतीय पंचांग में विशेष स्थान है.

संक्रांति शब्द का अर्थ होता है राशि स्थान परिवर्तन. जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तो उस दिन को संक्रांति कहा जाता है. वर्षभर में कुल बारह संक्रांतियां होती हैं और हर संक्रांति की अपनी एक अलग महत्ता होती है. वृषभ संक्रांति वह दिन होता है जब सूर्य मेष राशि से निकलकर वृषभ राशि में प्रवेश करता है. यह संक्रांति मई माह में आती है, आमतौर पर 14 या 15 मई के दौरान आती है. यह समय प्रकृति में बदलाव का प्रतीक होता है, जब ग्रीष्म ऋतु अपने चरम की ओर बढ़ रही होती है.

ज्योतिषीय दृष्टिकोण से वृषभ संक्रांति का महत्व

भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा, शक्ति और चेतना का प्रतीक माना गया है. सूर्य का गोचर प्रत्येक राशि में लगभग एक माह तक होता है. जब सूर्य वृषभ राशि में प्रवेश करता है, तो इसका प्रभाव सभी राशियों पर अलग-अलग तरीके से पड़ता है. वृषभ राशि शुक्र ग्रह की राशि मानी जाती है, जो सौंदर्य, भौतिक सुख-सुविधाओं और कलात्मकता का प्रतिनिधित्व करता है. इस समय सूर्य और शुक्र का संबंध जीवन में भौतिक समृद्धि और संतुलन की ओर संकेत करता है.

कहा जाता है कि इस समय भूमि उर्वर होती है और कृषि के लिए अनुकूल वातावरण बनने लगता है. सूर्य की स्थिति आर्थिक क्षेत्रों, कृषि, राजनीति और जनजीवन पर भी प्रभाव डालती है. जिन लोगों की कुंडली में वृषभ संक्रांति के समय शुभ ग्रहों की स्थिति होती है, उनके लिए यह काल विशेष लाभकारी सिद्ध होता है.

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व

वृषभ संक्रांति का धार्मिक महत्व भारत के विभिन्न हिस्सों में विविध रूपों में देखने को मिलता है. वृषभ संक्रांति मराठी, कन्नड़, गुजराती और तेलुगु पंचांग के अनुसार ‘वैशाख’ के महीने में होती है और उत्तर भारतीय पंचांग में इसे ज्येष्ठ माह के दौरान मनाया जाता है. ये संक्रांति भारत के दक्षिणी राज्यों में वृषभ संक्रांति के रूप में भी प्रसिद्ध है. सौर चक्र के अनुसार वृषभ ऋतु की शुरुआत का प्रतीक है. यह तमिल कैलेंडर में वैगासी मासम, मलयालम पंचंग में ‘एदवम मासम’ और बंगाली कैलेंडर में ज्येष्ठो मास के आने का भी प्रतीक है. उड़ीसा राज्य में इस दिन को बृष संक्रांति के रूप में मनाया जाता है. लोग इस शुभ दिन पर भगवान विष्णु की पूजा करते हैं.

इस दिन विशेष रूप से सूर्य देव की पूजा की जाती है. कई स्थानों पर श्रद्धालु नदियों में स्नान करते हैं, दान करते हैं और पवित्र यज्ञ एवं हवन का आयोजन करते हैं. माना जाता है कि इस दिन किया गया दान अक्षय फल प्रदान करता है.

हिंदू धर्म में गाय और बैल का विशेष स्थान है, और वृषभ संक्रांति का नाम ही “वृषभ” अर्थात् बैल से संबंधित है. इस अवसर पर विशेष रूप से गौ-सेवा का महत्व बढ़ जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों में इस दिन बैलों को सजाया जाता है, उनकी पूजा की जाती है और खेतों की जुताई का प्रारंभ भी कई स्थानों पर इसी दिन से होता है.

कृषि और प्रकृति से संबंध

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ की अधिकांश परंपराएँ खेती-किसानी से जुड़ी हुई हैं. वृषभ संक्रांति का समय गर्मी के चरम का होता है और यह समय अगले कृषि चक्र की तैयारी का होता है. किसान इस समय मिट्टी की तैयारी में जुट जाते हैं, बैलों को खेतों में लगाया जाता है. परंपरागत रूप से यह समय अगली फसल की योजना बनाने और बीजों के संग्रह का होता है. यह भी देखा गया है कि वृषभ संक्रांति के समय पेड़-पौधों की हरियाली और विकास गति पकड़ने लगती है इसीलिए यह संक्रांति एक नए कृषि चक्र के आगमन का प्रतीक बन जाती है.

पौराणिक संदर्भ और धार्मिक कथा

वृषभ संक्रांति से जुड़ी कोई विशेष पौराणिक कथा नहीं है, फिर भी यह कई धार्मिक मान्यताओं से जुड़ी हुई है. सूर्य देव की पूजा, व्रत, स्नान और दान इस दिन विशेष रूप से किए जाते हैं, जो इसे धार्मिक रूप से महत्व देता है. कई पुराणों में कहा गया है कि संक्रांति के समय सूर्य देव के साथ पितृगण भी होते हैं, और इस समय दिया गया तर्पण या पिंडदान विशेष फलदायी होता है.

कुछ क्षेत्रों में यह भी मान्यता है कि वृषभ संक्रांति के दिन भगवान शिव ने नंदी बैल को अपना वाहन बनाया था. इस कारण इस दिन नंदी की विशेष पूजा का विधान भी देखा गया है. नंदी, जो वृषभ का ही रूप हैं, शिव भक्तों के लिए मार्गदर्शक माने जाते हैं. यह मान्यता वृषभ संक्रांति को और भी महत्वपूर्ण बना देती है.

भारत में हर क्षेत्र की परंपराएँ और उत्सव भिन्न होते हैं, और वृषभ संक्रांति भी इससे अछूती नहीं है. दक्षिण भारत में जहाँ यह संक्रांति बड़े श्रद्धा भाव से मनाई जाती है, वहीं पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में यह पर्व कृषि और लोककला से जुड़ा होता है. इस समय पर अन्न, जल, वस्त्र और गायों का दान किया जाता है.

तमिलनाडु में इसे किरुवी संक्रांति या  वैकाशी के रूप में भी जाना जाता है, किसान सूर्य देवता को धन्यवाद देने के लिए विशेष पूजा करते हैं. आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी इस दिन विशेष अनुष्ठान आयोजित होते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में लोकनृत्य, गीत और पारंपरिक भोजन के आयोजन भी इस दिन होते हैं, जो इसे सामाजिक एकता का प्रतीक बनाते हैं.

वृषभ संक्रांति महत्व 

सूर्य का वृषभ राशि में प्रवेश आत्मविश्लेषण, भौतिक सुखों की समीक्षा और स्थायित्व की ओर अग्रसर होने का प्रतीक है. वृषभ संक्रांति केवल एक ज्योतिषीय घटना नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुड़ा एक ऐसा पर्व है जो जीवन, प्रकृति, धर्म और समाज के बीच संतुलन को दर्शाता है . सूर्य का वृषभ राशि में प्रवेश हमारे जीवन में स्थिरता, धैर्य और लगन का संदेश देता है. 

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अपरा एकादशी: धार्मिक महत्त्व, व्रत विधि और लाभ

हिंदू धर्म में एकादशी तिथि का विशेष महत्व होता है. हर माह में दो एकादशी होती हैं एक शुक्ल पक्ष में और दूसरी कृष्ण पक्ष में. अपरा एकादशी, जिसे ‘अचला एकादशी’ भी कहा जाता है, ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है. यह एकादशी विशेष रूप से पापों के नाश, पुण्य प्राप्ति, मोक्ष की प्राप्ति और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अत्यंत प्रभावशाली मानी जाती है. ‘अपरा’ का अर्थ है जिसकी कोई तुलना न हो, अर्थात यह एकादशी अपार फलदायिनी मानी जाती है.

धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार, इस व्रत को करने से व्यक्ति के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह ईश्वर की कृपा का पात्र बनता है. पद्म पुराण, स्कंद पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस एकादशी का विशेष वर्णन मिलता है. एक कथा के अनुसार, पूर्वकाल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था, जिसे उसके ही छोटे भाई ने मार डाला और उसकी आत्मा प्रेतयोनि में भटकने लगी. महर्षि धौम्य ने उस राजा के भाई को अपरा एकादशी व्रत करने की सलाह दी. व्रत के प्रभाव से प्रेत योनि से छुटकारा मिला और उसे स्वर्ग प्राप्त हुआ.

एकादशी व्रत की विधि

अपरा एकादशी व्रत को विशेष नियमों और विधियों के साथ किया जाता है. व्रती को दशमी तिथि से ही संयमित भोजन लेना चाहिए और एकादशी को व्रत रखना चाहिए. आइए व्रत विधि के बारे में जानते हैं.

एकादशी व्रत की तैयारी दशमी तिथि में ही आरंभ हो जाती है. दशमी की रात्रि को सात्विक भोजन करना चाहिए.

रात को ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकादशी व्रत की शुरुआत होती है और प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करें और शुद्ध वस्त्र धारण करनी चाहिए. भगवान विष्णु की प्रतिमा या चित्र के सामने दीपक जलाएं, पुष्प अर्पित करें और धूप से पूजन करें.

पीले वस्त्रों में श्रीहरि की मूर्ति को सजाएं और तुलसी पत्र अर्पित करने चाहिए.’ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करना चाहिए.

उपवास और भजन-कीर्तन करना चाहिए. दिन भर व्रती को अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए. फलाहार या जल ग्रहण किया जा सकता है। दिन भर भजन-कीर्तन करें, श्री विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना शुभ होता है.रात को जागरण करना अति पुण्यदायी होता है. भगवान विष्णु की कथाओं का श्रवण करना विशेष होता है।

द्वादशी को पारण का समय होता है. द्वादशी तिथि को सूर्योदय के बाद व्रत का पारण करें. ब्राह्मण या जरूरतमंद को भोजन कराएं, वस्त्र और दक्षिणा देना चाहिए.

अपरा एकादशी व्रत से जुड़ी अन्य बातें

अपरा एकादशी ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को मनाई जाएगी. यह व्रत पुण्यों को प्रदान करने वाला एवं समस्त पापों को नष्ट करने वाला होता है. इस व्रत को करने से व्यक्ति को अपार धन संपदा प्राप्त होती है. इस व्रत को करने वाला प्रसिद्धि को पाता है. अपरा एकादशी के प्रभाव से बुरे कर्मों से छुटकारा मिलता है. इसके करने से कीर्ति, पुण्य तथा धन में अभिवृद्धि होती है.

अपरा एकादशी भगवान विष्णु की पूजा के लिए समर्पित है. इस व्रत को करने से व्यक्ति को लाभ मिलता है, अपरा एकादशी को पूरे भारत में अलग-अलग नामों से जाना जाता है. इस दिन देवी भद्र काली की पूजा की जाती है. ओडिशा में, इसे ‘जलक्रीड़ा एकादशी’ के रूप में जाना जाता है और भगवान जगन्नाथ के सम्मान में मनाया जाता है.

अपरा एकादशी के दिन ही भद्रकाली जयंती का पर्व भी मनाया जाता है. मुख्य रूप से भारत के दक्षिणी भाग, विशेष रूप से केरल और तमिलनाडु में है देवी भद्रकाली के कुछ प्रसिद्ध मंदिर हैं.

पौराणिक कथाओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस शुभ दिन पर, देवी सती की मृत्यु के बारे में सुनकर, देवी भद्रकाली भगवान शिव के बालों से प्रकट हुई थीं. देवी शक्ति के ‘अवतरण’ का मुख्य कारण पृथ्वी से सभी राक्षसों को नष्ट करना था. भद्रकाली जयंती हिंदुओं के लिए एक महत्वपूर्ण पूजा का दिन है और पूरे देश में बहुत जोश और उत्साह के साथ मनाया जाता है. यह उत्सव दक्षिण भारत से लेकर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और कश्मीर में बहुत प्रसिद्ध है.

हिंदू भक्त देवी भद्रकाली की पूरी भक्ति और समर्पण के साथ पूजा करते हैं. भक्त सुबह जल्दी उठते हैं और सुबह की रस्में पूरी करने के बाद इस दिन काले वस्त्र धारण करते हैं. भद्रकाली जयंती पर काला या नीला रंग पहनना शुभ माना जाता है. भद्रकाली माता की मूर्ति को जल, दूध, चीनी, शहद और घी से पवित्र स्नान कराया जाता है. इसके बाद ‘पंचामृत अभिषेक’ पश्चात माता की मूर्ति को सुसज्जित किया जाता है. इस दिन देवी को नारियल पानी चढ़ाना भी बहुत शुभ माना जाता है. इसके बाद चंदन पूजा और बिल्व पूजा होती है, देवी भद्रकाली को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कई देवी मंत्रों का पाठ किया जाता है. 

अपरा एकादशी व्रत के लाभ

अपरा एकादशी का व्रत करने से कई आध्यात्मिक और लौकिक लाभ प्राप्त होते हैं. पापों से मुक्ति मिलती है, शास्त्रों के अनुसार, यह व्रत गंगा स्नान, काशी वास, गायत्री जप, ब्राह्मण भोजन, तपस्या आदि के बराबर फल प्रदान करता है. आध्यात्मिक उन्नति मिलती है, व्यक्ति के अंतःकरण की शुद्धि होती है और मन शांत होता है. 

आर्थिक समृद्धि आती है, व्रतधारी के जीवन में सुख-समृद्धि आती है और दरिद्रता दूर होती है.  मोक्ष की प्राप्ति होती है, अपरा एकादशी के प्रभाव से प्राणी को अंततः मोक्ष की प्राप्ति होती है. विशेष फलों की प्राप्ति: व्रत करने से चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण में किया गया दान, प्रयाग में माघ स्नान, कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण में स्नान जितना फल मिलता है.

अपरा एकादशी केवल आध्यात्मिक ही नहीं, सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. इस दिन समाज में व्रत, दान, सेवा, सत्संग और सहानुभूति जैसे मूल्यों को बढ़ावा मिलता है. अनेक मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना होती है और साधु-संतों को अन्नदान दिया जाता है.

अपरा एकादशी विशेष महत्व 

जहां आम एकादशियों में मोक्ष या विशेष पुण्य की प्राप्ति का वर्णन है, वहीं अपरा एकादशी विशेष रूप से पापों के नाश और सम्मान व यश की प्राप्ति के लिए जानी जाती है. इस कारण इसे ‘अपर अर्थात अपार’ फल देने वाली एकादशी कहा गया है.

अपरा एकादशी व्रत न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह आत्मशुद्धि, संयम, सेवा और ईश्वर भक्ति की एक सुंदर साधना भी है. यह जीवन में अनुशासन, सदाचार और पुण्य कर्म की प्रेरणा देती है. जब व्यक्ति नियमित रूप से इस व्रत को करता है, तो उसका जीवन स्वयं ईश्वरीय गुणों से परिपूर्ण हो जाता है और वह लोक व परलोक दोनों में श्रेष्ठ फल प्राप्त करत

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मां पीताम्बरा जयंती : जानें पूजा विधि और पीताम्बरा स्त्रोत

वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को देवी पीताम्बरा का प्राकट्य दिवस माना जाता है. इसी कारण यह दिन मां पीताम्बरा जयंती के रूप में पूरे भारतवर्ष में भक्ति और उल्लास के साथ मनाया जाता है. देवी पिताम्बरा को बगलामुखी नाम से भी पूजा जाता है। इस दिन भक्त माता के निमित्त विशेष व्रत, उपासना एवं पूजा-अर्चना करते हैं और मां पीताम्बरा का आशीर्वाद पाते हैं. 

यह उत्सव विशेष रूप से उन श्रद्धालुओं के लिए महत्वपूर्ण होता है जो जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति, शत्रुओं से रक्षा और आत्मबल की प्राप्ति हेतु मां पीताम्बरा की साधना करते हैं. इस दिन धार्मिक स्थलों और मंदिरों में बड़े आयोजन होते हैं जिनमें भजन संध्या, महायज्ञ, और रात्रिकालीन भगवती जागरण प्रमुख हैं. यह दिन देवी के शत्रु नाशिनी रूप की विशेष उपासना के लिए समर्पित होता है.

मां पीताम्बरा : स्तंभन और विजय की देवी

मां पीताम्बरा को स्तंभन शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है. इसका अर्थ है कि वह अपने भक्तों के जीवन में आने वाले भय, शत्रु और नकारात्मक शक्तियों का नाश करती हैं तथा उन्हें जीवन में स्थिरता, सफलता और विजय प्रदान करती हैं. उनका प्रिय रंग पीला होता है और इसी कारण उन्हें पीताम्बरा (पीत+अम्बरा = पीले वस्त्र धारण करने वाली) कहा जाता है. पूजा में पीले फूल, हल्दी, पीली मिठाई, पीला वस्त्र आदि विशेष महत्व रखते हैं.

मां का स्वरूप अत्यंत तेजस्वी और आकर्षक होता है देवी का वर्ण स्वर्ण जैसे दमकता हुआ पीला है. उपासक को इस दिन पीले वस्त्र पहनने चाहिए और पूजा सामग्री में भी पीले रंग का विशेष ध्यान रखना चाहिए.

दस महाविद्याओं में स्थान और साधना महत्व

देवी पीताम्बरा को दश महाविद्याओं में आठवां स्थान प्राप्त है. वे बगला मुखी के नाम से भी प्रसिद्ध हैं. “बगला” शब्द संस्कृत के वल्गा शब्द से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ होता है “दुल्हन”. देवी का स्वरूप अत्यंत सौम्य और दिव्य होते हुए भी शक्तिशाली और रक्षणशील है. वे शत्रुनाश, वाद-विवाद में विजय, वाकसिद्धि और आकस्मिक संकटों से रक्षा के लिए उपासना की जाती हैं. उनकी कृपा से साधक को तीनों लोकों में कोई पराजित नहीं कर सकता.

मां पीताम्बरा की कथा 

मां पीताम्बरा जी की एक प्रसिद्ध पुराणिक कथा के अनुसार, सतयुग में एक बार एक भीषण ब्रह्मांडीय तूफान उत्पन्न हुआ जिससे समस्त सृष्टि नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई. इस संकट से व्याकुल होकर भगवान विष्णु ने भगवान शिव से सहायता मांगी. शिव ने उन्हें बताया कि इस संकट को केवल शक्ति स्वरूपिणी देवी ही रोक सकती हैं. तब विष्णु जी ने हरिद्रा सरोवर के निकट जाकर कठोर तपस्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महात्रिपुरसुंदरी देवी ने अपने हृदय से एक दिव्य तेज उत्पन्न किया, जिससे पीताम्बरा देवी का प्राकट्य हुआ. उन्होंने अपने त्रैलोक्य स्तम्भिनी स्वरूप से उस महाविनाशक तूफान को रोक दिया और सृष्टि की रक्षा की.

यही कारण है कि देवी को ब्रह्मास्त्र रूपिणी और विज्ञानमयी सिद्ध विद्या कहा जाता है. तांत्रिक साधना में इन्हें अत्यंत शक्तिशाली माना जाता है.

मां पीताम्बरा की पूजा विधि  

मां पीताम्बरा की आराधना के लिए इस दिन श्रद्धालु प्रातःकाल स्नान कर पीले वस्त्र धारण करते हैं और पूर्व दिशा की ओर मुख कर पूजा करते हैं. एक पवित्र स्थान पर चौकी बिछाकर उस पर पीला वस्त्र बिछाएं और मां का चित्र या यंत्र स्थापित करें. इसके बाद आचमन, स्वस्तिवाचन, और दीप प्रज्ज्वलन करें.

पूजा में मुख्य सामग्री होती है 

पीले चावल

हल्दी (हरिद्रा)

पीले फूल

नारियल

दक्षिणा

इसके पश्चात संकल्प लेकर मां की विधिवत आराधना की जाती है. साधना में ब्रह्मचर्य और मानसिक एकाग्रता का विशेष महत्व होता है. मां का यंत्र चने की दाल से बनाया जाता है, किंतु विशेष प्रभाव के लिए इसे ताम्रपत्र या चांदी पर अंकित किया जा सकता है. माँ के मंत्रों का जप दुखों और बाधाओं को दूर करता है.

मां की कृपा से शत्रु नष्ट होते हैं. जीवन में स्थिरता, विजय और आत्मबल प्राप्त होता है. वाद-विवाद, मुकदमे और झूठे आरोपों में विजय मिलती है.मानसिक शांति, रोग मुक्ति और समस्त कष्टों से राहत मिलती है. साधक को हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है.

मां पीताम्बरा की जयंती केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक जागरण का अवसर है. यह दिन साधकों को अपनी आंतरिक शक्ति से जुड़ने, जीवन की बाधाओं से लड़ने और देवी शक्ति प्राप्ति का शुभ अवसर मिलता है।

।। बगलामुखी स्तोत्र ।।

ऊँ मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्नविद्यां,

सिंहासनो-परिगतां परिपीतवर्णाम्।

पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं

देवीं भजामि धृत-मुद्गर वैरिजिव्हाम् ।।१।।

जिह्वाग्रमादाय करेण देवी

वामेन शत्रून परिपीडयन्तीम्।

गदाभिघातेन च दक्षिणेन

पीताम्बराढयां द्विभुजां भजामि ।।२।।

चलत्कनक-कुण्डलोल्लसित चारु गण्डस्थलां

लसत्कनक-चम्पक-द्युति-मदिन्दु-बिम्बाननाम्।

गदाहत-विपक्षकां-कलित-लोल-जिह्वाचंलाम्।

स्मरामि बगलामुखीं विमुख-वाङ्ग-मनः -स्तम्भिनीम् ।।३।।

पीयूषोदधि-मध्य-चारु-वीलसद-रत्लोज्जवले मण्डपे

तत्सिंगहासन-मूल-पतित-रिपुं प्रेतसनाध्यासिनीम।

स्वर्णाभां-कर पीडितारि-रसनां भ्रामयद गदां विभ्रमाम

यस्तवां-ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।।४।।

देवि त्वच्चरणाम्बुजार्चन-कृते यः पीतपुष्पान्जलीन्।

भक्तया वामकरे निधाय च मनुं मंत्री मनोज्ञाक्षरम्।

पीठध्यानपरोऽथ कुम्भक-वषाद्वीजं स्मरेत् पार्थिवः।

तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाडयं भवेत् तत्क्षणात् ।।५।।

वादी मूकति राङ्गति क्षितिपतिवैष्वानरः शीतति।

क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति।

गर्वी खर्वति सर्वविच्च जड्ति त्वद्यन्त्रणा-यंत्रितः।

श्रीनित्ये बगलामुखी प्रतिदिनं कल्याणि तुभ्यं नमः ।।६।।

मन्त्रस्तावदलं विपक्षदलनं स्तोत्रं पवित्रं च ते

यन्त्रं वादिनियन्त्रणं त्रिजगतां जैत्रं च चित्रं च ते।

मातः श्रीबगलेतिनामललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे

त्वन्नाम-ग्रहणेन संसदि मुखस्तंभों भवेद् वादिनाम ।।७।।

दुष्ट-स्तम्भन मुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्रय-विद्रावणम

भुभ्रित्संनमनं च यन्मृगद्रिषां चेतः समाकर्षणम्।

सौभाग्यैक-निकेतनं समदृषां कारुण्य-पुर्णेक्षणे

मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।।८।।

मातर्भन्जय मद-विपक्ष-वदनं जिव्हां च संकीलय

ब्राह्मीं मुद्रय दैत्य-देव-धिषणामुग्रां-गतिं स्तम्भय।

शत्रूंश्रूचर्णय देवि तीक्ष्ण-गदया गौरागिं पीताम्बरे

विघ्नौघं बगले हर प्रणमतां कारूण्य-पूर्णेक्षणे ।।९।।

मात्भैरवी भद्रकालि विजये वाराहि विष्वाश्रये

श्रीविद्ये समये महेशि बगले कामेशि वामे रमे।

मातंगि त्रिपुरे परात्पर-तरे स्वर्गापवर्ग-प्रदे

दासोऽहं शरणागतः करुणया विश्वेश्वरि त्राहिमाम् ।।१०।।

संरम्भे चैरसंघे प्रहरणसमये बन्धने व्याधि-मध्ये

विद्यावादे विवादे प्रकुपितनृपतौ दिव्यकाले निशायाम् ।

वश्ये वा स्तम्भने वा रिपुवध-समये निर्जने वा वने वा

गच्छस्तिष्ठं-स्त्रिकालं यदि पठति शिवं प्राप्नुयादाषु-धीरः ।।११।।

नित्यं स्तोत्र-मिदं पवित्र-महि यो देव्याः पठत्यादराद्

धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाहौ करे वा गले।

राजानोऽप्यरयो मदान्ध-करिणः सर्पाः मृगेन्द्रदिकः

ते वै यान्ति विमो-हिता रिपु-गणाः लक्ष्मीः स्थिरा-सिद्धयः ।।१२।।

त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघसिंच्छेदिनी

योषाकर्षण-कारिणी त्रिजगतामा-नन्द सम्वर्धनि

दुष्टोच्चाटन-कारिणी जनमनः सम्मोह-संदायिनी

जिव्हा-कीलन भैरवि विजयते ब्रह्मादिमन्त्रो यथा ।।१३।।

विद्याः लक्ष्मीः सर्व-सौभाग्यमायुः

पुत्रैः पौत्रैः सर्व साम्राज्य-सिद्धिः।

मानं भोगो वष्यमारोग्य-सौख्यं

प्राप्तं-तत्तद्भूतलेऽस्मिन्नरेण ।।१४।।

यत्कृतं जपसन्नाहं गदितं परमेश्वरी।

दुष्टानां निग्रहार्थाय तद्गृहाण नमोऽस्तुते ।।१५।।

ब्रह्मास्त्रमिति विख्यातं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।

गुरुभक्ताय दातव्यं न देयं यस्य कस्यचित् ।।१६।।

पितंबरां च द्वि-भुजां, त्रि-नेत्रां गात्र-कोमलाम्।

शिला-मुद्गर-हस्तां च स्मरेत्तां बगलामुखीम् ।।१७।।

।। बगलामुखी स्तोत्र सम्पूर्ण ।।

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वैशाख माह की स्कंद षष्ठी: जानें पूजा तिथि विधि और महत्व

वैशाख माह की स्कंद षष्ठी

भारतीय संस्कृति में व्रत एवं त्योहारों का अत्यंत महत्व है. ये न केवल धार्मिक विश्वासों का प्रतीक होते हैं बल्कि समाजिक और आध्यात्मिक विकास के भी माध्यम होते हैं. ऐसे ही एक महत्वपूर्ण व्रत एवं उत्सव का नाम है स्कंद षष्ठी, जो वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है. इस दिन भगवान स्कंद या कार्तिकेय की पूजा की जाती है, जो भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र हैं और देवताओं के सेनापति के रूप में पूजित होते हैं.

इस पर्व को दक्षिण भारत में विशेष उत्साह एवं श्रद्धा से मनाया जाता है, वहीं उत्तर भारत में भी इसकी मान्यता कम नहीं है. इस दिन भगवान स्कंद के जन्म, उनके कर्तव्यों, शक्तियों एवं उनके द्वारा तारकासुर वध की कथा को श्रद्धा से पढ़ा और सुना जाता है.

स्कंद षष्ठी का संबंध भगवान स्कंद के जन्म से है. मान्यता है कि जब पृथ्वी पर राक्षस तारकासुर का अत्याचार बढ़ गया, तब देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे कोई उपाय करना चाहिए. ब्रह्मा जी के वरदान के कारण तारकासुर को केवल भगवान शिव के पुत्र द्वारा मारा जा सकता था. इसी कारण स्कंद या कार्तिकेय का जन्म हुआ. यह जन्म षष्ठी तिथि को हुआ था, इसी कारण इस तिथि को “स्कंद षष्ठी” के रूप में मनाया जाता है.

भगवान स्कंद के अन्य नाम

भगवान स्कंद को कई नामों से जाना जाता है. कार्तिकेय, कुमारस्वामी, शक्तिधर, मुरुगन (दक्षिण भारत में), सुब्रमण्यम, कुमार, शक्तिवाहन. स्कंद भगवान युद्ध और शक्ति के देवता हैं तथा वीरता, अनुशासन, न्याय और संगठन के प्रतीक माने जाते हैं. स्कंद का वाहन मोर होता है और उनके हाथों में भाला (शक्ति) होती है, जो उनकी शक्ति और पराक्रम का प्रतीक है.

स्कंद षष्ठी का धार्मिक महत्व

इस पर्व का सबसे बड़ा महत्व यह है कि यह संतान प्राप्ति एवं संतान सुख से जुड़ा हुआ है. जो दंपत्ति संतान सुख की इच्छा रखते हैं, वे इस दिन व्रत एवं पूजन करके भगवान स्कंद से कृपा प्राप्त कर सकते हैं. इसके अतिरिक्त जो संतान कष्ट में है या किसी रोग से ग्रस्त है, उनके लिए यह व्रत अत्यंत फलदायी होता है.

संतान की उन्नति होती है. संतान का सुख बना रहता है. जीवन से कष्टों का निवारण होता है.मानसिक शांति प्राप्त होती है.आर्थिक एवं पारिवारिक समस्याएं समाप्त होती हैं.

स्कंद षष्ठी की पूजा विधि

पूजा विधि बहुत ही सरल है परन्तु श्रद्धा एवं नियमों का पालन आवश्यक होता है. नीचे स्कंद षष्ठी की पूजा विधि बताई गई है: प्रातः स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए. पूजा स्थल की सफाई कर भगवान स्कंद की मूर्ति या चित्र स्थापित करना चाहिए. भगवान शिव, माता पार्वती एवं गणेश जी का भी साथ में पूजन करना चाहिए.

अखंड दीपक जलाना चाहिए. भगवान स्कंद को दूध, केसर, मेवे, मौसमी फल अर्पित करना चाहिए. स्कंद षष्ठी व्रत कथा का पाठ करना चाहिए. भगवान को पुष्प अर्पण करना चाहिए और धूप-दीप से आरती करनी चाहिए और फिर पूजा के बाद प्रसाद वितरण करना चाहिए. इस दिन भक्त दिनभर उपवास रखते हैं और रात को फलाहार करते हैं या केवल जल ग्रहण करते हैं.

कथा: गणेश-स्कंद प्रतियोगिता

एक प्रसंग के अनुसार नारद मुनि एक अमूल्य फल लेकर कैलाश पर्वत पर पहुंचे. उन्होंने वह फल शिव-पार्वती को अर्पित किया और कहा कि यह फल केवल एक को ही दिया जा सकता है. यह फल ज्ञान और अमरता का प्रतीक था. अब प्रश्न उठा कि वह फल किस पुत्र को दिया जाए गणेश को या स्कंद को? दोनों के बीच प्रतियोगिता रखी गई कि जो संपूर्ण पृथ्वी के तीन चक्कर सबसे पहले लगाएगा, वही विजेता होगा.

स्कंद अपने तीव्र गति वाले वाहन मोर पर सवार होकर पृथ्वी के चक्कर लगाने निकल पड़े. गणेश जी, जिनका वाहन मूषक था, ने बुद्धि का प्रयोग करते हुए अपने माता-पिता के तीन चक्कर लगाए और कहा कि मेरे लिए मेरे माता-पिता ही संपूर्ण सृष्टि हैं. उनकी यह भावना देखकर उन्हें विजेता घोषित किया गया. जब स्कंद लौटे तो उन्हें यह अन्यायपूर्ण लगा और वे क्रोधित होकर दक्षिण भारत की ओर चले गए. तभी से दक्षिण भारत में भगवान स्कंद की पूजा विशेष रूप से होती है.

तारकासुर वध की कथा

तारकासुर एक शक्तिशाली असुर था जिसने ब्रह्मा जी से यह वरदान प्राप्त किया था कि उसकी मृत्यु केवल शिव के पुत्र द्वारा ही हो सकती है. उसने देवताओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. तब भगवान शिव और माता पार्वती के संयोग से स्कंद का जन्म हुआ.

स्कंद को देवताओं का सेनापति बनाया गया और उन्होंने देवसेना का नेतृत्व करते हुए तारकासुर से युद्ध किया. अत्यंत उग्र संग्राम के बाद स्कंद ने तारकासुर का वध किया और देवताओं को पुनः उनका स्थान दिलाया.

स्कंद देव को कुमार क्यों कहा जाता है?

भगवान स्कंद को कुमार कहा जाता है क्योंकि उन्हें देवताओं से यह वरदान प्राप्त था कि वे सदैव युवा बने रहेंगे. वे बाल रूप में भी पूजे जाते हैं और युवा रूप में भी. यह नाम विशेषतः दक्षिण भारत में प्रसिद्ध है जहां उन्हें कुमारस्वामी कहा जाता है. उनकी इसी युवा ऊर्जा और शक्ति के कारण वे युद्ध के देवता माने जाते हैं और किसी भी प्रकार की बाधा, संघर्ष या प्रतियोगिता में सफलता पाने हेतु उनकी पूजा की जाती है.

दक्षिण भारत में स्कंद षष्ठी का महत्व

दक्षिण भारत में स्कंद षष्ठी बहुत ही धूमधाम से मनाई जाती है, इस अवसर पर मंदिरों में विशेष अनुष्ठान, भजन, कीर्तन और रथयात्राएं आयोजित की जाती हैं.तमिल भाषा में स्कंद को मुरुगन कहा जाता है और उनके कई प्रमुख मंदिर तमिलनाडु, केरल और श्रीलंका में स्थित हैं जैसे कि पलानी, स्वामीमलाई, तिरुचेंदूर, थिरुपरनकुन्द्रम, और तिरुत्तानी.

स्कंद षष्ठी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है बल्कि यह एक गहरा आध्यात्मिक संदेश भी देता है और बताता है कि यह शक्ति और बुद्धि का सही उपयोग ही विजय दिलाता है. अहंकार और क्रोध से बचना चाहिए. अनुशासन और परिश्रम से कोई भी कठिनाई पार की जा सकती है.

वैशाख मास की शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला स्कंद षष्ठी पर्व हिन्दू धर्म के एक महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है. यह पर्व हमें भगवान स्कंद की महानता, पराक्रम, और भक्ति का स्मरण कराता है. उनके पूजन से केवल सांसारिक सुख ही नहीं बल्कि आत्मिक शांति भी प्राप्त होती है. इस पर्व का पालन श्रद्धा, संयम और निष्ठा से करने पर जीवन में सफलता, समृद्धि और शांति का मार्ग प्रशस्त होता है.

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