महेश नवमी: जानें पूजा विधि और महत्व

महेश नवमी: जानें पूजा विधि और महत्व
महेश नवमी हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो विशेष रूप से माहेश्वरी समाज द्वारा मनाया जाता है. यह पर्व प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाता है. इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे जीवन में सुख, समृद्धि और सौभाग्य की प्राप्ति होती है. महेश नवमी का पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतीक है.

महेश नवमी का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व
महेश नवमी का पर्व भगवान शिव के प्रति श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है. मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव ने माहेश्वरी समाज के पूर्वजों को श्राप से मुक्ति दिलाई थी और उन्हें अपना नाम ‘महेश’ प्रदान किया था. इस कारण यह दिन माहेश्वरी समाज के लिए विशेष महत्व रखता है. शिवपुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों में महेश नवमी के दिन विशेष पूजा-अर्चना करने का महत्व बताया गया है. इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा से जीवन में सुख, समृद्धि और सौभाग्य की प्राप्ति होती है.

महेश नवमी पूजा विधि
महेश नवमी के दिन विधिपूर्वक पूजा करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है. पूजा विधि इस प्रकार है
प्रातःकाल उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. घर के मंदिर को स्वच्छ करें और गंगा जल का छिड़काव करना चाहिए. एक चौकी पर भगवान शिव और माता पार्वती की प्रतिमा या चित्र स्थापित करनी चाहिए. शिवलिंग का अभिषेक करते हुए बेलपत्र, फूल, गंगा जल आदि अर्पित करना चाहिए. घी का दीपक जलाएं और ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जाप करें.
शिव चालीसा और शिव पुराण का पाठ करें. व्रत का पारण करें और ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा दान-दक्षिणा देकर आशीर्वाद लेना चाहिए.

महेश नवमी के उपाय
महेश नवमी के दिन कुछ विशेष उपाय करने से जीवन में सुख-समृद्धि और शांति की प्राप्ति होती है:
शिवलिंग पर जल, दूध, भांग और बेलपत्र चढ़ाएं. इससे मनोकामनाएं पूरी होती हैं और बीमारियों से मुक्ति मिलती है. 21 बेलपत्र पर ‘ॐ’ लिखकर चढ़ाएं. इससे इच्छित फल प्राप्त होता है.
धन की प्राप्ति के लिए हरसिंगा (पारिजात) के फूलों की माला चढ़ाएं. व्यापार में उन्नति के लिए भगवान शिव के मंत्रों का जाप करें.

महेश नवमी और माहेश्वरी समाज
महेश नवमी का पर्व विशेष रूप से माहेश्वरी समाज द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन समाज के लोग एकत्रित होकर धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं. यह पर्व \’;[प्समाज में एकता और भाईचारे की भावना को प्रगाढ़ करता है.

महेश नवमी धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है साथ ही यह सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. इस दिन समाज के लोग एकत्रित होकर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, जिससे समाज में एकता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा मिलता है. यह पर्व समाज की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने में भी सहायक है.

महेश नवमी हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना का अवसर प्रदान करता है. महेश नवमी के दिन विधिपूर्वक पूजा करने से जीवन में सुख, समृद्धि और सौभाग्य की प्राप्ति होती है. अतः इस दिन को श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाना चाहिए.

महेश नवमी पूजा के लाभ
महेश नवमी हिन्दू धर्म का एक पावन पर्व है जो ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाता है. यह दिन भगवान शिव (महादेव) को समर्पित होता है. खासकर महेश्वरी समाज के लिए यह पर्व विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन को उनके कुलदेव भगवान महेश के प्रकट दिवस के रूप में मनाया जाता है.

आध्यात्मिक उन्नति
भगवान शिव की पूजा से मन को शांति मिलती है और साधक को आध्यात्मिक बल एवं संतुलन प्राप्त होता है.

पापों से मुक्ति
इस दिन श्रद्धा से पूजा करने पर व्यक्ति को अपने पूर्व जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है और जीवन में शुभता आती है.

सुख-शांति और समृद्धि
महेश नवमी पर भगवान शिव का पूजन घर-परिवार में सुख, शांति और समृद्धि लाता है.

रोगों और बाधाओं से रक्षा
शिवजी की आराधना करने से जीवन में आने वाली विघ्न-बाधाएं दूर होती हैं और आरोग्यता बनी रहती है.

वैवाहिक सुख
जो दंपति संतान सुख या दांपत्य जीवन में सुख-शांति की कामना करते हैं, उन्हें इस दिन व्रत एवं पूजन से विशेष लाभ मिलता है.

कुल की उन्नति
विशेष रूप से महेश्वरी समाज में इस दिन का अत्यधिक महत्व होता है, क्योंकि इसे कुल देवता की आराधना का दिन माना जाता है.

महेश नवमी पूजन महत्व
महेश नवमी का पर्व भगवान शिव और माता पार्वती के पूजन का विशेष दिन है. इस दिन श्रद्धालु उपवास रखकर पूरे मन और श्रद्धा से भगवान शिव की आराधना करते हैं. महेश नवमी को लेकर धार्मिक मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना की थी और महेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई थी. इसलिए यह दिन विशेष रूप से महेश्वरी समाज द्वारा बड़े श्रद्धा भाव से मनाया जाता है.

पूजा के समय महामृत्युंजय मंत्र और रुद्राष्टक का पाठ किया जाता है. भक्तजन शिव चालीसा का पाठ करते हैं और आरती गाते हैं. “ॐ जय शिव ओंकारा” आरती से वातावरण भक्तिमय हो जाता है. पूजा के पश्चात व्रती दिनभर व्रत रखता है, कुछ लोग केवल फलाहार करते हैं जबकि कुछ निर्जला उपवास भी करते हैं. रात्रि को पुनः आरती की जाती है और शिव कथा श्रवण किया जाता है. ऐसी मान्यता है कि महेश नवमी का व्रत करने से पापों का नाश होता है और जीवन में सुख, शांति, समृद्धि और आरोग्यता आती है. यह व्रत विशेष रूप से उन लोगों के लिए फलदायी होता है जो पारिवारिक सुख, संतान सुख या मानसिक शांति की कामना रखते हैं.

भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा से व्रती के जीवन में सभी विघ्न-बाधाएं दूर होती हैं और धार्मिक व आध्यात्मिक उन्नति होती है. महेश नवमी का व्रत न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह आत्मशुद्धि, संयम और सेवा का संदेश भी देता है. जो व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से यह व्रत करता है, उसके जीवन में भगवान शिव की कृपा सदैव बनी रहती है.

महेश नवमी आरती

ॐ जय शिव ओंकारा स्वामी जय शिव ओंकारा.
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा॥
ऊं जय शिव ओंकारा

एकानन चतुरानन पंचानन राजे .
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे .
त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी .
चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे .
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता .
जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता ॥
॥ ॐ जय शिव ओंकारा ॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका .
प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी .
नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे .
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

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दुर्गा सप्तशती : संपूर्ण दुर्गासप्तशती अध्याय पूर्ण होगी साधना

दुर्गा सप्तशती प्रथम अध्याय

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – प्रथमोऽध्यायः ॥


मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वध का प्रसंग सुनाना

॥ विनियोगः ॥
ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः,

महाकाली देवता, गायत्री छन्दः,

नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्,

ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।

॥ ध्यानम् ॥
ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः

शङ्खं सन्दधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।

नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां

यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥

ॐ नमश्चण्डिकायै*

“ॐ ऐं” मार्कण्डेय उवाच॥1॥

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।

निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद् गदतो मम॥2॥

महामायानुभावेन यथा मन्वन्तराधिपः।

स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः॥3॥

स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः।

सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले॥4॥

तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान्।

बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा॥5॥

तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः।

न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः॥6॥

ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्।

आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः॥7॥

अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः।

कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥8॥

ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः।

एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम्॥9॥

स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः।

प्रशान्तश्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम्॥10॥

तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः।

इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥11॥

सोऽचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः*।

मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत्॥12॥

मद्भृत्यैस्तैरसद्वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा।

न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः॥13॥

मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते।

ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥14॥

अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम्।

असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम्॥15॥

सञ्चितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति।

एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः॥16॥

तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः।

स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेऽत्र कः॥17॥

सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे।

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥18॥

प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम्॥19॥

वैश्य उवाच॥20॥

समाधिर्नाम वैश्योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले॥21॥

पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः।

विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥22॥

वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः।

सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥23॥

प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः।

किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम्॥24॥

कथं ते किं नु सद्वृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥25॥

राजोवाच॥26॥

यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः॥27॥

तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम्॥28॥

वैश्य उवाच॥29॥

एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं वचः॥30॥

किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः।

यैः संत्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः॥31॥

पतिस्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे मनः।

किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥32॥

यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु।

तेषां कृते मे निःश्वासो दौर्मनस्यं च जायते॥33॥

करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्॥34॥

मार्कण्डेय उवाच॥35॥

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ॥36॥

समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः।

कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन संविदम्॥37॥

उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ॥38॥

राजोवाच॥39॥

भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत्॥40॥

दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना।

ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥41॥

जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम।

अयं च निकृतः* पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥42॥

स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति।

एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥43॥

दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ।

तत्किमेतन्महाभाग* यन्मोहो ज्ञानिनोरपि॥44॥

ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥45॥

ऋषिरुवाच॥46॥

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे॥47॥

विषयश्च* महाभाग याति* चैवं पृथक् पृथक्।

दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥48॥

केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।

ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं* तु ते न हि केवलम्॥49॥

यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः।

ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥50॥

मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।

ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥51॥

कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा।

मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति॥52॥

लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेता*न् किं न पश्यसि।

तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः॥53॥

महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा*।

तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः॥54॥

महामाया हरेश्चैषा* तया सम्मोह्यते जगत्।

ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥55॥

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।

तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्॥56॥

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।

सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥57॥

संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी॥58॥

राजोवाच॥59॥

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान्॥60॥

ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च* किं द्विज।

यत्प्रभावा* च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥61॥

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर॥62॥

ऋषिरुवाच॥63॥

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम्॥64॥

तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम।

देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा॥65॥

उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते।

योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥66॥

आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्ते भगवान् प्रभुः।

तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ॥67॥

विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ।

स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥68॥

दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम्।

तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः॥69॥

विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम्*।

विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्॥70॥

निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥71॥

ब्रह्मोवाच॥72॥

त्वं स्वाहा त्वं स्वधां त्वं हि वषट्कारःस्वरात्मिका॥73॥

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।

अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः॥74॥

त्वमेव सन्ध्या* सावित्री त्वं देवि जननी परा।

त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥75॥

त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा।

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने॥76॥

तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये।

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः॥77॥

महामोहा च भवती महादेवी महासुरी*।

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥78॥

कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा।

त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥79॥

लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च।

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा॥80॥

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।

सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी॥81॥

परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी।

यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥82॥

तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा*।

यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति* यो जगत्॥83॥

सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः।

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥84॥

कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥85॥

मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।

प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु॥86॥

बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥87॥

ऋषिरुवाच॥88॥

एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा॥89॥

विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ।

नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥90॥

निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।

उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः॥91॥

एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ।

मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥92॥

क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं* ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।

समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः॥93॥

पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः।

तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ॥94॥

उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम्॥95॥

श्रीभगवानुवाच॥96॥

भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥97॥

किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मम*॥98॥

ऋषिरुवाच॥99॥

वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत्॥100॥

विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः*।

आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता॥101॥

ऋषिरुवाच॥102॥

तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता।

कृत्वा चक्रेण वै च्छिन्ने जघने शिरसी तयोः॥103॥

एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम्।

प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः श्रृणु वदामि ते॥ ऐं ॐ॥104॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥1॥
उवाच 14, अर्धश्लोकाः 24, श्लोकाः 66,

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – द्वितीयोऽध्यायः ॥

देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध

॥ विनियोगः ॥
ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः,महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः,

शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्,वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्,

श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।

॥ ध्यानम् ॥
ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां

दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।

शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां

सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥

“ॐ ह्रीं” ऋषिरुवाच॥1॥

देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।

महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥2॥

तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्।

जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥3॥

ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।

पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥4॥

यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।

त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥5॥

सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।

अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥6॥

स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।

विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना॥7॥

एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।

शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम्॥8॥

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।

चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥9॥

ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।

निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शङ्करस्य च॥10॥

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।

निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥11॥

अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।

ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥12॥

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।

एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥13॥

यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।

याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥14॥

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।

वारुणेन च जङ्घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥15॥

ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्गुल्योऽर्कतेजसा।

वसूनां च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥16॥

तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।

नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥17॥

भ्रुवौ च सन्ध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।

अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥18॥

ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।

तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः*॥19॥

शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।

चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य* स्वचक्रतः॥20॥

शङ्खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।

मारुतो दत्तवांश्चापं बाणपूर्णे तथेषुधी॥21॥

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य* कुलिशादमराधिपः।

ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥22॥

कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।

प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥23॥

समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।

कालश्च दत्तवान् खड्गं तस्याश्चर्म* च निर्मलम्॥24॥

क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।

चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥25॥

अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।

नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥26॥

अङ्गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्गुलीषु च।

विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥27॥

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्।

अम्लानपङ्कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥28॥

अददज्जलधिस्तस्यै पङ्कजं चातिशोभनम्।

हिमवान् वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च॥29॥

ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।

शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥30॥

नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्।

अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥31॥

सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।

तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥32॥

अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्।

चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे॥33॥

चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः।

जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्*॥34॥

तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।

दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥35॥

सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।

आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥36॥

अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।

स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥37॥

पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।

क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्॥38॥

दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।

ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥39॥

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्।

महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः॥40॥

युयुधे चामरश्चान्यैश्चतुरङ्गबलान्वितः।

रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः॥41॥

अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।

पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः॥42॥

अयुतानां शतैः षड्भिर्बाष्कलो युयुधे रणे।

गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः* परिवारितः*॥43॥

वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।

बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः॥44॥

युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः*।

अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥45॥

युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः।

कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥46॥

हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।

तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥47॥

युयुधुः संयुगे देव्या खड्गैः परशुपट्टिशैः।

केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥48॥

देवीं खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।

सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥49॥

लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।

अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥50॥

मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी।

सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेशरी॥51॥

चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।

निःश्वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥52॥

त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः।

युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः॥53॥

नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्त्युपबृंहिताः।

अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खांस्तथापरे॥54॥

मृदङ्गांश्च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।

ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः*॥55॥

खड्गादिभिश्च शतशो निजघान महासुरान्।

पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्॥56॥

असुरान् भुवि पाशेन बद्ध्वा चान्यानकर्षयत्।

केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथापरे॥57॥

विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।

वेमुश्च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥58॥

केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।

निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥59॥

श्ये*नानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।

केषाञ्चिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥60॥

शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः।

विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः॥61॥

एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।

छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥62॥

कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः।

ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥63॥

कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्गशक्त्यृष्टिपाणयः।

तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः*॥64॥

पातितै रथनागाश्वैरसुरैश्च वसुन्धरा।

अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः॥65॥

शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः।

मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥66॥

क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।

निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम्॥67॥

स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।

शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति॥68॥

देव्या गणैश्च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।

यथैषां* तुतुषुर्देवाः* पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ॥69॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥2॥
उवाच 1, श्लोकाः 68, एवम् 69,

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – तृतीयोऽध्यायः ॥


सेनापतियोंसहित महिषासुर का वध

॥ ध्यानम् ॥
ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां

रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।

हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं

देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्॥

“ॐ” ऋषिररुवाच॥1॥

निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः।

सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम्॥2॥

स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः।

यथा मेरुगिरेः शृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः॥3॥

तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान्।

जघान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम्॥4॥

चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम्।

विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः॥5॥

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।

अभ्यधावत तां देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः॥6॥

सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि।

आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान्॥7॥

तस्याः खड्गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन।

ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः॥8॥

चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः।

जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात्॥9॥

दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत।

तच्छूलं* शतधा तेन नीतं स च महासुरः॥10॥

हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ।

आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः॥11॥

सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम्।

हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम्॥12॥

भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः।

चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत्॥13॥

ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः।

बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा॥14॥

युद्ध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ।

युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥15॥

ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा।

करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक्कृतम्॥16॥

उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः।

दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः॥17॥

देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम्।

बाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम्॥18॥

उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम्।

त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी॥19॥

बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः।

दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम्*॥20॥

एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः।

माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान्॥21॥

कांश्चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान्।

लाङ्गूलताडितांश्चान्याञ्छृङ्गाभ्यां च विदारितान्॥22॥

वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च।

निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले॥23॥

निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः।

सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका॥24॥

सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः।

शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च॥25॥

वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत।

लाङ्गूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः॥26॥

धुतशृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं* खण्डं ययुर्घनाः।

श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः॥27॥

इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम्।

दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत्॥28॥

सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम्।

तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे॥29॥

ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः।

छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत॥30॥

तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः।

तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः॥31॥

करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च।

कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत॥32॥

ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः।

तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम्॥33॥

ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम्।

पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना॥34॥

ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः।

विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान्॥35॥

सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः।

उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम्॥36॥

देव्युवाच॥37॥

गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्।

मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः॥38॥

ऋषिरुवाच॥39॥

एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम्।

पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत्॥40॥

ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः।

अर्धनिष्क्रान्त एवासीद्* देव्या वीर्येण संवृतः॥41॥

अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः।

तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः*॥42॥

ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत्।

प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः॥43॥

तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः।

जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ॐ॥44॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः॥3॥
उवाच 3, श्लोकाः 41, एवम् 44,

श्रीदुर्गासप्तशती – चतुर्थोऽध्यायः ॥


इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति

॥ ध्यानम् ॥
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां

शड्खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।

सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं

ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥

“ॐ” ऋषिरुवाच*॥1॥

शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये

तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या।

तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा

वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः॥2॥

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या

निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या।

तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां

भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥3॥

यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो

ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च।

सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय

नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥4॥

या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः

पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः।

श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा

तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्॥5॥

किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्

किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि।

किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि

सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥6॥

हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषैर्न

ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा।

सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-

मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या॥7॥

यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन

तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि।

स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-

रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च॥8॥

या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्व*-

मभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः।

मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-

र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि॥9॥

शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषां निधान-

मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।

देवी त्रयी भगवती भवभावनाय

वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥10॥

मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा

दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा।

श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा

गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा॥11॥

ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-

बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्।

अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि

वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण॥12॥

दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-

मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः।

प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं

कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन॥13॥

देवि प्रसीद परमा भवती भवाय

सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि।

विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-

न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य॥14॥

ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां

तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः।

धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा

येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥15॥

धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-

ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।

स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा-

ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥16॥

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः

स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या

सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥17॥

एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते

कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।

सङ्ग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु

मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि॥18॥

दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म

सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्।

लोकान् प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता

इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी॥19॥

खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः

शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम्।

यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-

योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत्॥20॥

दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं

रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः।

वीर्यं च हन्तृहृतदेवपराक्रमाणां

वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम्॥21॥

केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य

रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र।

चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा

त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि॥22॥

त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन

त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा।

नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त-

मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते॥23॥

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।

घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥24॥

प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।

भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥25॥

सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।

यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥26॥

खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके।

करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥27॥

ऋषिरुवाच॥28॥

एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः।

अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः॥29॥

भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैस्तु* धूपिता।

प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान्॥30॥

देव्युवाच॥31॥

व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम्*॥32॥

देवा ऊचुः॥33॥

भगवत्या कृतं सर्वं न किञ्चिदवशिष्यते॥34॥

यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः।

यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि॥35॥

संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।

यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने॥36॥

तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।

वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके॥37॥

ऋषिरुवाच॥38॥

इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः।

तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप॥39॥

इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा।

देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी॥40॥

पुनश्च गौरीदेहात्सा* समुद्भूता यथाभवत्।

वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः॥41॥

रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी।

तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते ॥ह्रीं ॐ॥42॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥4॥
उवाच 5, अर्धश्लोकौः 2, श्लोकाः 35,

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – पञ्चमोऽध्यायः ॥

देवताओं द्वारा देवी की स्तुति,चण्ड-मुण्डके मुख से अम्बिका के

रूप की प्रशंसा सुनकरशुम्भ का उनके पास दूत

भेजना और दूत का निराश लौटना

॥ विनियोगः ॥
ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रुद्र ऋषिः,महासरस्वती देवता, अनुष्टुप्

छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्,सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्,

महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।

॥ ध्यानम् ॥
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं

हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।

गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-

पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥

“ॐ क्लीं” ऋषिरुवाच॥1॥

पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः।

त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात्॥2॥

तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।

कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥3॥

तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च*।

ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥4॥

हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।

महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥5॥

तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।

भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥6॥

इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम्।

जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥7॥

देवा ऊचुः॥8॥

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।

नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥9॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः।

ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥10॥

कल्याण्यै प्रणतां* वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।

नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥11॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।

ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥12॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।

नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥13॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।

नमस्तस्यै॥14॥

नमस्तस्यै॥15॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥16॥

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।

नमस्तस्यै॥17॥

नमस्तस्यै॥18॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥19॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै॥20॥

नमस्तस्यै॥21॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥22॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै॥23॥

नमस्तस्यै॥24॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥25॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै॥26॥

नमस्तस्यै॥27॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥28॥

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥29॥

नमस्तस्यै॥30॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥31॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥32॥

नमस्तस्यै॥33॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥34॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥35॥

नमस्तस्यै॥36॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥37॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥38॥

नमस्तस्यै॥39॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥40॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥41॥

नमस्तस्यै॥42॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥43॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥44॥

नमस्तस्यै॥45॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥46॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥47॥

नमस्तस्यै॥48॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥49॥

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥50॥

नमस्तस्यै॥51॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥52॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥53॥

नमस्तस्यै॥54॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥55॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥56॥

नमस्तस्यै॥57॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥58॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥59॥

नमस्तस्यै॥60॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥61॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥62॥

नमस्तस्यै॥63॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥64॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥65॥

नमस्तस्यै॥66॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥67॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥68॥

नमस्तस्यै॥69॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥70॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥71॥

नमस्तस्यै॥72॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥73॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता॥

नमस्तस्यै॥74॥

नमस्तस्यै॥75॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥76॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।

भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥77॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।

नमस्तस्यै॥78॥

नमस्तस्यै॥79॥

नमस्तस्यै नमो नमः॥80॥

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।

करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥81॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।

या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥82॥

ऋषिरुवाच॥83॥

एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।

स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥84॥

साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।

शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥85॥

स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।

देवैः समेतैः* समरे निशुम्भेन पराजितैः॥86॥

शरीर*कोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।

कौशिकीति* समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥87॥

तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।

कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥88॥

ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।

ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥89॥

ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।

काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥90॥

नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।

ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर॥91॥

स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।

सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥92॥

यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो।

त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥93॥

ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्।

पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥94॥

विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे।

रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥95॥

निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात्।

किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम्॥96॥

छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।

तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥97॥

मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।

पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥98॥

निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः।

वह्निरपि* ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥99॥

एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते।

स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥100॥

ऋषिरुवाच॥101॥

निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।

प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्*॥102॥

इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।

यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥103॥

स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।

सा* देवी तां ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥104॥

दूत उवाच॥105॥

देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः।

दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥106॥

अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।

निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत्॥107॥

मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।

यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक्॥108॥

त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः।

तथैव गजरत्नं* च हृत्वा* देवेन्द्रवाहनम्॥109॥

क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः।

उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥110॥

यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।

रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥111॥

स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।

सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥112॥

मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।

भज त्वं च चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः॥113॥

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।

एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥114॥

ऋषिरुवाच॥115॥

इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।

दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥116॥

देव्युवाच॥117॥

सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।

त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः॥118॥

किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।

श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥119॥

यो मां जयति सङ्ग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।

यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥120॥

तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।

मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥121॥

दूत उवाच॥122॥

अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।

त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥123॥

अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।

तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥124॥

इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।

शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥125॥

सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः।

केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥126॥

देव्युवाच॥127॥

एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चातिवीर्यवान्।

किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥128॥

स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।

तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत्*॥ॐ॥129॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या
दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥5॥
उवाच 9, त्रिपान्मन्त्राः 66, श्लोकाः 54, एवम् 129,

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – षष्ठोऽध्यायः ॥
धूम्रलोचन-वध

॥ ध्यानम् ॥
ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली-

भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।

मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां

सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥1॥

इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः।

समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात्॥2॥

तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकर्ण्यासुरराट् ततः।

सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम्॥3॥

हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः।

तामानय बलाद् दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम्॥4॥

तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः।

स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा॥5॥

ऋषिरुवाच॥6॥

तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः।

वृतः षष्ट्या सहस्राणामसुराणां द्रुतं ययौ॥7॥

स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम्।

जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः॥8॥

न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्भर्तारमुपैष्यति।

ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम्॥9॥

देव्युवाच॥10॥

दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान् बलसंवृतः।

बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम्॥11॥

ऋषिरुवाच॥12॥

इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः।

हुंकारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः॥13॥

अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका*।

ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः॥14॥

ततो धुतसटः कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम्।

पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः॥15॥

कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान्।

आक्रम्य* चाधरेणान्यान्* स जघान* महासुरान्॥16॥

केषाञ्चित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी*।

तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक्॥17॥

विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे।

पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः॥18॥

क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना।

तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना॥19॥

श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम्।

बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः॥20॥

चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः।

आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ॥21॥

हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभिः* परिवारितौ।

तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु॥22॥

केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि।

तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम्॥23॥

तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते।

शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम्॥ॐ॥24॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शुम्भनिशुम्भसेनानीधूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः॥6॥
उवाच 4, श्लोकाः 20, एवम् 24,

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – सप्तमोऽध्यायः ॥


चण्ड और मुण्डका वध

॥ ध्यानम् ॥
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं

न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।

कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां

मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥1॥

आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः।

चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः॥2॥

ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।

सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने॥3॥

ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः।

आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः॥4॥

ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति।

कोपेन चास्या वदनं मषी*वर्णमभूत्तदा॥5॥

भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम्।

काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी॥6॥

विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा।

द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा॥7॥

अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।

निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा॥8॥

सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्।

सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम्॥9॥

पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान्।

समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्॥10॥

तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह।

निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्य*तिभैरवम्॥11॥

एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्।

पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत्॥12॥

तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः।

मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि॥13॥

बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम्।

ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा॥14॥

असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः*।

जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा॥15॥

क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम्।

दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम्॥16॥

शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः।

छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः॥17॥

तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम्।

बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम्॥18॥

ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी।

कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला॥19॥

उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत।

गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्*॥20॥

अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।

तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा॥21॥

हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।

मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम्॥22॥

शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च।

प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम्॥23॥

मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू।

युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि॥24॥

ऋषिरुवाच॥25॥

तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ।

उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः॥26॥

यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता।

चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि॥ॐ॥27॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः॥7॥
उवाच 2, श्लोकाः 25, एवम् 27,

एवमादितः॥439 ॥

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – अष्टमोऽध्यायः ॥
रक्तबीज-वध

॥ ध्यानम् ॥
ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं

धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्।

अणिमादिभिरावृतां मयूखै-

रहमित्येव विभावये भवानीम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥1॥

चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते।

बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः॥2॥

ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान्।

उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह॥3॥

अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः।

कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः॥4॥

कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै।

शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया॥5॥

कालका दौर्हृदा मौर्याः कालकेयास्तथासुराः।

युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम॥6॥

इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः।

निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः॥7॥

आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम्।

ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम्॥8॥

ततः* सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।

घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका* चोपबृंहयत्॥9॥

धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा।

निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना॥10॥

तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम्।

देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः॥11॥

एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम्।

भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः॥12॥

ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः।

शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः॥13॥

यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम्।

तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान् योद्धुमाययौ॥14॥

हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः।

आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते॥15॥

माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी।

महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा॥16॥

कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना।

योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी॥17॥

तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता।

शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ॥18॥

यज्ञवाराहमतुलं* रूपं या बिभ्रतो* हरेः।

शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम्॥19॥

नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः।

प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः॥20॥

वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता।

प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा॥21॥

ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः।

हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽह चण्डिकाम्॥22॥

ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा।

चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी॥23॥

सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता।

दूत त्वं गच्छ भगवन् पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः॥24॥

ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ।

ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः॥25॥

त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः।

यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥26॥

बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः।

तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः॥27॥

यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम्।

शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता॥28॥

तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः।

अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र* कात्यायनी स्थिता॥29॥

ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः।

ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः॥30॥

सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान्।

चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः॥31॥

तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्।

खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन् कुर्वती व्यचरत्तदा॥32॥

कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः।

ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून् येन येन स्म धावति॥33॥

माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी।

दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना॥34॥

ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः।

पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः॥35॥

तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः।

वाराहमूर्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः॥36॥

नखैर्विदारितांश्चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान्।

नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा॥37॥

चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः।

पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा॥38॥

इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान्।

दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः॥39॥

पलायनपरान् दृष्ट्वा दैत्यान् मातृगणार्दितान्।

योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥40॥

रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः।

समुत्पतति मेदिन्यां* तत्प्रमाणस्तदासुरः॥41॥

युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः।

ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत्॥42॥

कुलिशेनाहतस्याशु बहु* सुस्राव शोणितम्।

समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥43॥

यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः।

तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥44॥

ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः।

समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम्॥45॥

पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा।

ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः॥46॥

वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह।

गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम्॥47॥

वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसम्भवैः।

सहस्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥48॥

शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना।

माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम्॥49॥

स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक्।

मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः॥50॥

तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।

पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥51॥

तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत्।

व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम्॥52॥

तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा।

उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं* वदनं कुरु॥53॥

मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान्।

रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना*॥54॥

भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।

एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥55॥

भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे*।

इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम्॥56॥

मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम्।

ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥57॥

न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि।

तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम्॥58॥

यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति।

मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः॥59॥

तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्।

देवी शूलेन वज्रेण* बाणैरसिभिर्ऋष्टिभिः॥60॥

जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्।

स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः*॥61॥

नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।

ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥62॥

तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः॥ॐ॥63॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥8॥
उवाच 1, अर्धश्लोकः 1, श्लोकाः 61,

श्रीदुर्गासप्तशती – नवमोऽध्यायः ॥


निशुम्भ-वध

॥ ध्यानम् ॥
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां

पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः।

बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-

मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि॥

“ॐ” राजोवाच॥1॥

विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम।

देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम्॥2॥

भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते।

चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः॥3॥

ऋषिरुवाच॥4॥

चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते।

शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे॥5॥

हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन्।

अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया॥6॥

तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः।

सन्दष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः॥7॥

आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः।

निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः॥8॥

ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः।

शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः॥9॥

चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः*।

ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ॥10॥

निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम्।

अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम्॥11॥

ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम्।

निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम्॥12॥

छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः।

तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम्॥13॥

कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः।

आयातं* मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत्॥14॥

आविध्याथ* गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति।

सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता॥15॥

ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम्।

आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले॥16॥

तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे।

भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम्॥17॥

स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः।

भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं बभौ नभः॥18॥

तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत्।

ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम्॥19॥

पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च।

समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना॥20॥

ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः।

पूरयामास गगनं गां तथैव* दिशो दश॥21॥

ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत्।

कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः॥22॥

अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह।

तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ॥23॥

दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा।

तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः॥24॥

शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा।

आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया॥25॥

सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम्।

निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते॥26॥

शुम्भमुक्ताञ्छरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान्।

चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः॥27॥

ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम्।

स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह॥28॥

ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः।

आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा॥29॥

पुनश्च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्वरः।

चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम्॥30॥

ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी।

चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्च तान्॥31॥

ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम्।

अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः॥32॥

तस्यापतत एवाशु गदां चिच्छेद चण्डिका।

खड्गेन शितधारेण स च शूलं समाददे॥33॥

शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम्।

हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका॥34॥

भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः।

महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन्॥35॥

तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः।

शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्भुवि॥36॥

ततः सिंहश्चखादोग्रं* दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान्।

असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान्॥37॥

कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः।

ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः॥38॥

माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे।

वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि॥39॥

खण्डं* खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः।

वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे॥40॥

केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात्।

भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः॥ॐ॥41॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः॥9॥
उवाच 2, श्लोकाः 39, एवम् 41,

श्रीदुर्गासप्तशती – दशमोऽध्यायः ॥


शुम्भ-वध

॥ ध्यानम् ॥
ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-

नेत्रां धनुश्शरयुताङ्कुशपाशशूलम्।

रम्यैर्भुजैश्च दधतीं शिवशक्तिरूपां

कामेश्वरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥1॥

निशुम्भं निहतं दृष्ट्वा भ्रातरं प्राणसम्मितम्।

हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः॥2॥

बलावलेपाद्दुष्टे* त्वं मा दुर्गे गर्वमावह।

अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥3॥

देव्युवाच॥4॥

एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।

पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः*॥5॥

ततः समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखा लयम्।

तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका॥6॥

देव्युवाच॥7॥

अहं विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता।

तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव॥8॥

ऋषिरुवाच॥9॥

ततः प्रववृते युद्धं देव्याः शुम्भस्य चोभयोः।

पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणम्॥10॥

शरवर्षैः शितैः शस्त्रैस्तथास्त्रैश्चैव दारुणैः।

तयोर्युद्धमभूद्भूयः सर्वलोकभयङ्करम्॥11॥

दिव्यान्यस्त्राणि शतशो मुमुचे यान्यथाम्बिका।

बभञ्ज तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः॥12॥

मुक्तानि तेन चास्त्राणि दिव्यानि परमेश्वरी।

बभञ्ज लीलयैवोग्रहु*ङ्कारोच्चारणादिभिः॥13॥

ततः शरशतैर्देवीमाच्छादयत सोऽसुरः।

सापि* तत्कुपिता देवी धनुश्चिच्छेद चेषुभिः॥14॥

छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रस्तथा शक्तिमथाददे।

चिच्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम्॥15॥

ततः खड्गमुपादाय शतचन्द्रं च भानुमत्।

अभ्यधावत्तदा* देवीं दैत्यानामधिपेश्वरः॥16॥

तस्यापतत एवाशु खड्गं चिच्छेद चण्डिका।

धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्म चार्ककरामलम्*॥17॥

हताश्वः स तदा दैत्यश्छिन्नधन्वा विसारथिः।

जग्राह मुद्गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः॥18॥

चिच्छेदापततस्तस्य मुद्गरं निशितैः शरैः।

तथापि सोऽभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान्॥19॥

स मुष्टिं पातयामास हृदये दैत्यपुङ्गवः।

देव्यास्तं चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत्॥20॥

तलप्रहाराभिहतो निपपात महीतले।

स दैत्यराजः सहसा पुनरेव तथोत्थितः॥21॥

उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्देवीं गगनमास्थितः।

तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका॥22॥

नियुद्धं खे तदा दैत्यश्चण्डिका च परस्परम्।

चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम्॥23॥

ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनाम्बिका सह।

उत्पात्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले॥24॥

स क्षिप्तो धरणीं प्राप्य मुष्टिमुद्यम्य वेगितः*।

अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया॥25॥

तमायान्तं ततो देवी सर्वदैत्यजनेश्वरम्।

जगत्यां पातयामास भित्त्वा शूलेन वक्षसि॥26॥

स गतासुः पपातोर्व्यां देवीशूलाग्रविक्षतः।

चालयन् सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम्॥27॥

ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन् दुरात्मनि।

जगत्स्वास्थ्यमतीवाप निर्मलं चाभवन्नभः॥28॥

उत्पातमेघाः सोल्का ये प्रागासंस्ते शमं ययुः।

सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते॥29॥

ततो देवगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः।

बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः॥30॥

अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्चाप्सरोगणाः।

ववुः पुण्यास्तथा वाताः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः॥31॥

जज्वलुश्चाग्नयः शान्ताः शान्ता दिग्जनितस्वनाः॥ॐ॥32॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शुम्भवधो नाम दशमोऽध्यायः॥10॥
उवाच 4, अर्धश्लोकः 1, श्लोकाः 27,

श्रीदुर्गासप्तशती – एकादशोऽध्यायः ॥


देवताओं द्वारा देवी की सतुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान

॥ ध्यानम् ॥
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।

स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥1॥

देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे

सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम्।

कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्*

विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः*॥2॥

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद

प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।

प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं

त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥3॥

आधारभूता जगतस्त्वमेका

महीस्वरूपेण यतः स्थितासि।

अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-

दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये॥4॥

त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या

विश्वस्य बीजं परमासि माया।

सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्

त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥5॥

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः

स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्

का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥6॥

सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्ति*प्रदायिनी।

त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥7॥

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।

स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥8॥

कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि।

विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते॥9॥

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये* शिवे सर्वार्थसाधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥10॥

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।

गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥11॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥12॥

हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि।

कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥13॥

त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि।

माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते॥14॥

मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे।

कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते॥15॥

शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधे।

प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते॥16॥

गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।

वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते॥17॥

नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे।

त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते॥18॥

किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले।

वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते॥19॥

शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले।

घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते॥20॥

दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे।

चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥21॥

लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे* ध्रुवे।

महारात्रि* महाऽविद्ये* नारायणि नमोऽस्तु ते॥22॥

मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि।

नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते*॥23॥

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥24॥

एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।

पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥25॥

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।

त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥26॥

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।

सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव॥27॥

असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः।

शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम्॥28॥

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा

रुष्टा* तु कामान् सकलानभीष्टान्।

त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां

त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥29॥

एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य

धर्मद्विषां देवि महासुराणाम्।

रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं

कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या॥30॥

विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-

ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या।

ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे

विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्॥31॥

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा

यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।

दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये

तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥32॥

विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं

विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।

विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति

विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः॥33॥

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-

र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः।

पापानि सर्वजगतां प्रशमं* नयाशु

उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥34॥

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।

त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव॥35॥

देव्युवाच॥36॥

वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ।

तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥37॥

देवा ऊचुः॥38॥

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।

एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥39॥

देव्युवाच॥40॥

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे।

शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥41॥

नन्दगोपगृहे* जाता यशोदागर्भसम्भवा।

ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥42॥

पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले।

अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान्॥43॥

भक्षयन्त्याश्च तानुग्रान् वैप्रचित्तान्महासुरान्।

रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः॥44॥

ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः।

स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम्॥45॥

भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।

मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥46॥

ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्।

कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥47॥

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः।

भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥48॥

शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि।

तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥49॥

दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।

पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले॥50॥

रक्षांसि* भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात्।

तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः॥51॥

भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।

यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति॥52॥

तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसङ्ख्येयषट्पदम्।

त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्॥53॥

भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः।

इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति॥54॥

तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ॐ॥55॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
देव्याः स्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥11॥
उवाच 4, अर्धश्लोकः 1, श्लोकाः 50,

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – द्वादशोऽध्यायः ॥


देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य

॥ ध्यानम् ॥
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां

कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।

हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं

बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

“ॐ” देव्युवाच॥1॥

एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः।

तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्*॥2॥

मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम्।

कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद् वधं शुम्भनिशुम्भयोः॥3॥

अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः।

श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम्॥4॥

न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद् दुष्कृतोत्था न चापदः।

भविष्यति न दारिद्र्यं न चैवेष्टवियोजनम्॥5॥

शत्रुतो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः।

न शस्त्रानलतोयौघात्कदाचित्सम्भविष्यति॥6॥

तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः।

श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं हि तत्॥7॥

उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान्।

तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम॥8॥

यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम।

सदा न तद्विमोक्ष्यामि सान्निध्यं तत्र मे स्थितम्॥9॥

बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे।

सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च॥10॥

जानताऽजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्।

प्रतीच्छिष्याम्यहं* प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम्॥11॥

शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।

तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः॥12॥

सर्वाबाधा*विनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः।

मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥13॥

श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः।

पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान्॥14॥

रिपवः संक्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते।

नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम्॥15॥

शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने।

ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम॥16॥

उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः।

दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते॥17॥

बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम्।

सङ्घातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम्॥18॥

दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम्।

रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम्॥19॥

सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम्।

पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः॥20॥

विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम्।

अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या॥21॥

प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृत्सुचरिते श्रुते।

श्रुतं हरति पापानि तथाऽऽरोग्यं प्रयच्छति॥22॥

रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम।

युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम्॥23॥

तस्मिञ्छ्रुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते।

युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिःकृताः॥24॥

ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्ति शुभां मतिम्।

अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः॥25॥

दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः।

सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः॥26॥

राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।

आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे॥27॥

पतत्सु चापि शस्त्रेषु सङ्ग्रामे भृशदारुणे।

सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा॥28॥

स्मरन्ममैतच्चरितं नरो मुच्येत सङ्कटात्।

मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा॥29॥

दूरादेव पलायन्ते स्मरतश्चरितं मम॥30॥

ऋषिरुवाच॥31॥

इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा॥32॥

पश्यतामेव* देवानां तत्रैवान्तरधीयत।

तेऽपि देवा निरातङ्काः स्वाधिकारान् यथा पुरा॥33॥

यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः।

दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि॥34॥

जगद्विध्वंसिनि तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे।

निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः॥35॥

एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः।

सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम्॥36॥

तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते।

सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति॥37॥

व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर।

महाकाल्या महाकाले महामारीस्वरूपया॥38॥

सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा।

स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी॥39॥

भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे।

सैवाभावे तथाऽलक्ष्मीर्विनाशायोपजायते॥40॥

स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्धूपगन्धादिभिस्तथा।

ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं* शुभाम्॥ॐ॥41॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
फलस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः॥12॥
उवाच 2, अर्धश्लोकौ 2, श्लोकाः 37,

एवम् 41, एवमादितः॥671 ॥

॥ श्रीदुर्गासप्तशती – त्रयोदशोऽध्यायः ॥


सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान

॥ ध्यानम् ॥
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।

पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥1॥

एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्।

एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥2॥

विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया।

तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥3॥

मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे।

तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्॥4॥

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥5॥

मार्कण्डेय उवाच॥6॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः॥7॥

प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं शंसितव्रतम्।

निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च॥8॥

जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने।

सन्दर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः॥9॥

स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्।

तौ तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्॥10॥

अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः।

निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥11॥

ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।

एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥12॥

परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका॥13॥

देव्युवाच॥14॥

यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन।

मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥15॥

मार्कण्डेय उवाच॥16॥

ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि।

अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥17॥

सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः।

ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम्॥18॥

देव्युवाच॥19॥

स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान्॥20॥

हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥21॥

मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः॥22॥

सावर्णिको नाम* मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥23॥

वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥24॥

तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति॥25॥

मार्कण्डेय उवाच॥26॥

इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥27॥

बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता।

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥28॥

सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥29॥

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः

सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥क्लीं ॐ॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥
उवाच 6, अर्धश्लोकाः 11, श्लोकाः 12,
एवम् 29, एवमादितः॥700॥
समस्ता उवाचमन्त्राः 57, अर्धश्लोकाः 42,

॥ विनियोगः ॥
श्रीगणपतिर्जयति।ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः,

गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि,श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः,

ऐं बीजम्, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्,श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।

॥ ऋष्यादिन्यासः ॥
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः, शिरसि।

गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमः, मुखे।

महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः, हृदि।

ऐं बीजाय नमः, गुह्ये।

ह्रीं शक्तये नमः, पादयोः।

क्लीं कीलकाय नमः, नाभौ।

“ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे”

-इति मूलेन करौ संशोध्य-

॥ करन्यासः ॥
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः।

ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः।ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः।

ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः।ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

॥ हृदयादिन्यासः ॥
ॐ ऐं हृदयाय नमः। ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा।ॐ क्लीं शिखायै वषट्।

ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम्।ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट्।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट्।

॥ अक्षरन्यासः ॥
ॐ ऐं नमः, शिखायाम्।ॐ ह्रीं नमः, दक्षिणनेत्रे।

ॐ क्लीं नमः, वामनेत्रे।ॐ चां नमः, दक्षिणकर्णे।

ॐ मुं नमः, वामकर्णे।ॐ डां नमः, दक्षिणनासापुटे।

ॐ यैं नमः, वामनासापुटे।ॐ विं नमः, मुखे। ॐ च्चें नमः, गुह्ये।

“एवं विन्यस्याष्टवारं मूलेन व्यापकं कुर्यात्”

॥ दिङ्न्यासः ॥
ॐ ऐं प्राच्यै नमः।ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः।

ॐ ह्रीं दक्षिणायै नमः।ॐ ह्रीं नैर्ऋत्यै नमः।

ॐ क्लीं प्रतीच्यै नमः।ॐ क्लीं वायव्यै नमः।

ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः।ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नमः।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः।

॥ ध्यानम् ॥
खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः

शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।

नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां

यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥1॥

अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां

दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।

शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां

सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥2॥

घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं

हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।

गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-

पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥3॥

ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि।

चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव॥

ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे।

जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये॥

ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं

देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि

साधय साधय सर्वसिद्धिं

परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।

सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि॥

तत्पश्चात् फिर नीचे लिखे अनुसार न्यास करें-

॥ करन्यासः ॥
ॐ ह्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।ॐ चं तर्जनीभ्यां नमः।

ॐ डिं मध्यमाभ्यां नमः।ॐ कां अनामिकाभ्यां नमः।

ॐ यैं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।ॐ ह्रीं चण्डिकायै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

॥ हृदयादिन्यासः ॥
ॐ खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥ हृदयाय नमः।

ॐ शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।

घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥ शिरसे स्वाहा।

ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।

भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥ शिखायै वषट्।

ॐ सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।

यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥ कवचाय हुम्।

ॐ खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके।

करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥ नेत्रत्रयाय वौषट्।

ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ अस्त्राय फट्।

॥ ध्यानम् ॥
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां

कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।

हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं

बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

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अग्नि नक्षत्रम : कब मनाया जाता है अग्नि नक्षत्रम का पर्व

ज्योतिष एवं धर्म शास्त्रों के अनुसार अग्नि नक्षत्रम का समय वो काल खंड होता है जब सूर्य का गोचर कुछ विशेष नक्षत्रों में हो रहा होता है. ऐसा ही एक विशेष काल है अग्नि नक्षत्र जिसे दक्षिण भारत सहित देश के कई भागों में अग्नि नक्षत्र पर्व के नाम से जाना जाता है ओर इस समय पर विशेष पूजा अनुष्ठान किए जाते हैं. यह समय ग्रमी की अधिकता, तेज धूप और तपन का प्रतीक माना जाता है.

अग्नि नक्षत्र क्या है

अग्नि नक्षत्र  जिसे तमिल में “कथिरी वेयिल” और संस्कृत में क्रूरा नक्षत्र भी कहा जाता है, वह समय होता है जब सूर्य भरणी नक्षत्र में प्रवेश करता है और अत्यधिक तीव्रता से गर्मी देने लगता है. यह काल आमतौर पर अप्रैल के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर मई के मध्य तक चलता है हर वर्ष इसकी तिथि पंचांग और ग्रह स्थितियों के अनुसार थोड़ी बदल सकती है. ज्योतिष के अनुसार, जब सूर्य मेष राशि में उच्च स्थिति में होता है और भरणी, कृत्तिका आदि नक्षत्रों से होकर गुजरता है, तब पृथ्वी पर अत्यधिक गर्मी का प्रभाव पड़ता है. यह काल लगभग 21 दिन का होता है और इसे ही अग्नि नक्षत्र कहते हैं.

अग्नि नक्षत्र का समय और अवधि

हर साल अग्नि नक्षत्र की शुरुआत और समाप्ति तिथि पंचांग पर आधारित होती है. सामान्यत: यह अप्रैल के अंतिम सप्ताह या मई के पहले सप्ताह में आरंभ हो जाता है और लगभग 21 से 28 दिन तक इसका प्रभव बना रहता है. दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, और केरल में इसका विशेष महत्त्व है. तमिल पंचांग के अनुसार यह काल कथिरी वय्यल कहलाता है.

ज्योतिष में अग्नि नक्षत्र को एक क्रूर काल माना गया है. ऐसा माना जाता है कि इस दौरान किए गए कुछ कार्य शुभ फल नहीं देते नव निर्माण कार्य जैसे घर बनवाना, भूमि पूजन आदि से बचने की सलाह दी जाती है. शादी-ब्याह के लिए यह समय वर्जित होता है. सूर्य से जुड़ी पूजा विधियां जैसे सूर्य उपासना, सूर्य अर्घ्य, विशेष रूप से की जाती हैं. कुछ लोग इस समय में दान-पुण्य, उपवास और साधना के माध्यम से आत्मशुद्धि पर ध्यान केंद्रित करते हैं.

अग्नि नक्षत्र का वैज्ञानिक पक्ष

अग्नि नक्षत्र का वैज्ञानिक पक्ष मौसम विज्ञान से जुड़ा हुआ है. इस काल में सूर्य पृथ्वी के अत्यधिक निकट होता है और सूर्य की किरणें सीधे भूमध्यरेखा के ऊपर पड़ती हैं. इसके कारण:

दिन का तापमान अत्यधिक होता है, हवा में नमी कम होती है, जिससे वातावरण और अधिक शुष्क हो जाता है. हीटवेव की घटनाएँ बढ़ जाती हैं. पानी के स्रोत जैसे झीलें, तालाब और कुएं सूखने लगते हैं. मोसम में बड़े बदलावों को इस दौरान देखा जाता है. 

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

तमिलनाडु में कथिरी वय्यल के समय लोग हल्के भोजन करते हैं, गर्मी से बचने के लिए परंपरागत उपाय अपनाते हैं, जैसे नीलम चूर्ण, वेटिवर पानी (खस का पानी), पाल्म जूस आदि का सेवन. तेलुगु क्षेत्रों में, इस समय जल दान और अन्नदान का विशेष महत्त्व होता है.

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अग्नि नक्षत्र से जुड़ी कई लोक मान्यताएं हैं. जैसे गायों और पशुओं को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है. इस काल में पेड़-पौधों को जल देना पुण्यदायक समझा जाता है. अग्नि नक्षत्र न केवल मौसम का एक विशेष कालखंड है, बल्कि यह हमें प्रकृति के प्रभाव, संतुलन और जीवन शैली के प्रति जागरूक करता है. यह काल हमें सिखाता है कि प्रकृति के तीव्र स्वरूपों का सम्मान करें, उनके साथ तालमेल बिठाकर ही हम सुरक्षित और स्वस्थ रह सकते हैं. इसलिए अग्नि नक्षत्र के समय केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक और सामाजिक रूप से भी सजग रहना आवश्यक है.  

अग्नि नक्षत्रम कथा

अग्नि नक्षत्रम शब्द संस्कृत से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है उग्र तारा. यह समय मई के महीने में शुरू होता है और इसकी तीव्रता बदलती रहती है, जब सूर्य भरणी नक्षत्र में प्रवेश करता है तो यह चरम पर होता है. अग्नि नक्षत्रम दो तमिल महीनों में फैला हुआ है चिथिरई और वैकासी. चिथिरई में, यह दस दिनों तक रहता है, जबकि वैकासी में, यह अधिक दिनों तक चलता है जिसे अक्सर कथिरी वेइल अवधि के रूप में जाना जाता है.

यह समय भगवान मुरुगन के लिए भी शुभ माना जाता है और कई लोग मानते हैं कि अग्नि नक्षत्र के दौरान गृह प्रवेश समारोह जैसे महत्वपूर्ण जीवन की घटनाओं से बचना सबसे अच्छा है. ऐसा माना जाता है कि इस अवधि के दौरान तीव्र गर्मी ऐसे अवसरों के लिए आवश्यक ऊर्जा को बाधित करती है. मंदिरों में, विशेष रूप से पलानी और तिरुत्तनी जैसे पवित्र स्थलों पर, गर्मी को कम करने के लिए विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं. अग्नि नक्षत्र की पौराणिक कथा खांडव वन का जलना है जैसा कि महाभारत में वर्णित है. 

अग्नि के देवता अग्नि देव राजा सुवेदकी और ऋषि दुर्वासा द्वारा किए गए वर्षों के निरंतर यज्ञों से बहुत अधिक घी खाने के बाद कमजोर हो गए थे. अपनी ताकत वापस पाने के लिए, उन्हें पवित्र खांडव वन की औषधीय जड़ी-बूटियों और पौधों का सेवन करने की आवश्यकता थी. हालाँकि, जंगल की रक्षा देवताओं के राजा भगवान इंद्र द्वारा की जाती थी, जो अग्नि की लपटों को बुझाने के लिए वर्षा का उपयोग करते थे, जब भी अग्नि उसे जलाने की कोशिश करती थी.

हताश होकर अग्नि ने भगवान कृष्ण और अर्जुन से मदद मांगी. वे सहमत हुए इस दौरान इंद्र ने मूसलाधार बारिश से अग्नि को रोकने का प्रयास किया, लेकिन अर्जुन ने अपने दिव्य बाणों से बारिश को रोक दिया, और कृष्ण ने अटूट दिव्य सहायता प्रदान की और अग्नि पूरी तरह से तरोताजा हो गई और उसने कृष्ण और अर्जुन के प्रति अपनी गहरी कृतज्ञता व्यक्त की. तीव्र गर्मी और आग के इन दिनों को अब अग्नि नक्षत्रम के रूप में जाना जाता है जो अग्नि के पुनर्जन्म और शुद्धि का प्रतीक है.  

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ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी का महत्व और पूजा विधि

ज्येष्ठ मास की द्वादशी तिथि अत्यंत पुण्यदायिनी मानी जाती है. हर माह दो बार द्वादशी आती है एक शुक्ल पक्ष में और दूसरी कृष्ण पक्ष में. इनमें से ज्येष्ठ मास की द्वादशी का विशेष महत्व है. इस दिन गंगा, यमुना जैसे पवित्र नदियों में स्नान करना अत्यंत शुभ होता है. ज्येष्ठ द्वादशी के अवसर पर यमुना स्नान करने से भगवान की कृपा सहजता से प्राप्त होती है.

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस महीने में ग्रहों की स्थिति प्रभावशाली होती है, विशेषकर सूर्य की स्थिति विशेष रूप से फलदायी मानी जाती है. श्रीहरि की पूजा इस समय मोक्ष की दिशा में मार्ग प्रशस्त करती है. कृष्ण पक्ष की द्वादशी भक्तों को सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करती है, इसलिए यह तिथि अत्यंत शुभ और महत्वपूर्ण मानी जाती है.

जो भी व्यक्ति भगवान की कृपा जीवनभर पाना चाहते हैं और समस्त कठिनाइयों से मुक्ति की अभिलाषा रखते हैं, उन्हें इस दिन पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए. यदि यह संभव न हो तो घर पर ही अपने स्नान जल में गंगाजल या किसी पवित्र जल की कुछ बूंदें मिलाकर स्नान करना चाहिए. जैसा कि इसका नाम ‘ज्येष्ठ द्वादशी’ है, यह व्यक्ति के जीवन को लक्ष्य प्राप्ति और कार्यों में सफलता दिलाने वाली होती है. शास्त्रों में मनुष्य का परम लक्ष्य मोक्ष बताया गया है, और यह व्रत उस राह को सहज बनाता है.

ज्येष्ठ द्वादशी का काल व नामकरण

पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है, इसके अगले दिन की द्वादशी को अत्यंत पवित्र माना जाता है. द्वादशी तिथि का नाम उस दिन की पूर्णिमा तिथि के नक्षत्र के आधार पर रखा जाता है. ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र में होती है, इसलिए इसे ‘ज्येष्ठ द्वादशी’ कहा जाता है.  

इस द्वादशी का महत्व अत्यधिक है. भगवान कृष्ण की उपासना इस दिन विशेष फलदायक मानी जाती है.

ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी पौराणिक महत्ता

इस मास में और विशेषतः द्वादशी के दिन उनका पूजन हर प्रकार की सफलता प्रदान करता है. सतयुग में देवताओं ने ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से वर्ष का आरंभ किया था. इस दिन स्नान और दान करने की विशेष परंपरा रही है.

पूजन एवं धार्मिक विधि 

ज्येष्ठ द्वादशी का संपूर्ण आयोजन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा को समर्पित होता है. इस दिन धार्मिक गतिविधियों जैसे जप, ध्यान, दान आदि का विशेष महत्व होता है. पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ वर्ष का सबसे गर्म समय भी होता है और इसमें श्रीकृष्ण की आराधना विशेष फलदायक होती है. इस दिन मुरलीधर कृष्ण की पूजा से जीवन में सुख-शांति आती है. इस शुभ अवसर पर भगवान को पुष्प, फल, नैवेद्य, दीप, धूप आदि अर्पित करें.

इस दिन व्यक्ति को प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नान करके शरीर को शुद्ध करना चाहिए. स्नान से पहले तुलसी की जड़ की मिट्टी का लेप लगाना चाहिए और फिर स्नान करना चाहिए. स्नान करते समय ‘ॐ नमो भगवते नारायणाय’ या गायत्री मंत्र का जाप शुभ माना जाता है.

दान का महत्व एवं पूजन सामग्री

ज्येष्ठ द्वादशी के दिन वस्त्र, कंबल, फल, अन्न, बिस्तर आदि का दान अत्यंत पुण्यदायक होता है. पूजा सामग्री जैसे तुलसी की माला, चंदन, दीपक, मोरपंख, जल पात्र, पीतांबर, मूर्ति आदि का दान करने से शुभ फल प्राप्त होता है.

हर द्वादशी किसी न किसी देवता को समर्पित होती है. ज्येष्ठ मास में आने वाली द्वादशी विष्णु, लक्ष्मी और श्रीकृष्ण की पूजा के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है. यह महीना पितरों की शांति और मोक्ष प्राप्ति के लिए भी विशेष रूप से श्रद्धेय है.

धार्मिक नियम और परंपराएं

इस दिन गंगा स्नान, सूर्य को अर्घ्य देना, सात्विक भोजन ग्रहण करना तथा तामसिक वस्तुओं से परहेज करना आवश्यक है. व्रती को व्रत के नियमों का पालन करना चाहिए और भगवान विष्णु, श्रीकृष्ण व लक्ष्मी जी की विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए. विष्णुसहस्रनाम और गीता का पाठ विशेष फलदायक होता है. इस दिन जरूरतमंदों को दान देना, पशु-पक्षियों को अन्न-जल खिलाना, पितरों को तर्पण करना शुभ माना गया है.

यदि कोई व्यक्ति तीर्थ यात्रा न कर सके तो घर पर ही पवित्रता के साथ पूजा अर्चना करके द्वादशी का पुण्य प्राप्त कर सकता है.इ द्वादशी के दिन जल का दान सबसे अधिक उत्तम स्थान पाता है। 

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शनिश्चरी अमावस्या : शनिश्चरी जन्म कथा

हिंदू धर्म में अमावस्या तिथि को विशेष महत्व प्राप्त है, विशेषकर जब यह शनिवार को आती है, जिसे शनिश्चरी अमावस्या कहा जाता है. यह तिथि शनिश्चरी देव की उपासना के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है. शनिश्चरी अमावस्या के दिन श्रद्धालु शनि देव की कृपा प्राप्त करने और अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए व्रत, पूजा और दान करते हैं. इस दिन का महत्व और अधिक बढ़ जाता है जब यह किसी विशेष नक्षत्र या योग के साथ आता है.

शनि देव को न्याय का देवता कहा जाता है. वे व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार फल देते हैं अच्छा कर्म करने पर उत्तम फल और बुरा कर्म करने पर कष्ट इसलिए इन्हें कर्मफल दाता कहा जाता है. शनि की दृष्टि को क्रूर दृष्टि माना जाता है, लेकिन यह दृष्टि किसी को दंड देने के लिए नहीं, बल्कि सुधारने के लिए होती है. वे व्यक्ति को उसके जीवन के पथ पर संतुलित और धर्मशील बनाए रखने में सहायता करते हैं.

शनिश्चरी अमावस्या कथा

शनिश्चरी अमावस्या शनि देव के जन्म से संबंधित है. इस दिन की कथा अनुसार शनि देव का जन्म सूर्य देव और छाया (संवर्णा) के पुत्र के रूप में हुआ था. छाया, संज्ञा की छाया स्वरूप थीं, जिन्हें सूर्य देव की प्रचंड तेज़ से कष्ट होने पर संज्ञा ने अपने स्थान पर रखा था. छाया ने सूर्य से शनिश्चरी की उत्पत्ति की. ऐसा कहा जाता है कि जब शनिश्चरी देव का जन्म हुआ, तभी से उनके प्रभाव के कारण सूर्य की तेजस्विता मद्धम हो गई और संपूर्ण वातावरण में अंधकार छा गया. शनि का रंग गहरा काला था, और उनका रूप भी अत्यंत गंभीर था. जन्म लेते ही उनके प्रभाव से सूर्य देव भी विचलित हो गए. शनि देव ने तपस्या और साधना से भगवान शिव को प्रसन्न किया और उनसे वर प्राप्त किया कि वे सभी ग्रहों में न्यायकर्ता और कर्मफल दाता के रूप में पूजे जाएंगे.

शनिश्चरी अमावस्या का महत्व

शनिश्चरी अमावस्या वह दिन है जब अमावस्या शनिवार को पड़ती है. यह दिन विशेष रूप से उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण होता है जिनकी कुंडली में शनिश्चरी दोष, साढ़ेसाती या ढैय्या चल रही होती है. शनिश्चरी अमावस्या के दिन विशेष पूजा और उपाय करके शनिश्चरी की पीड़ा से राहत पाई जा सकती है.

इस दिन शनि मंदिरों में भारी भीड़ होती है. लोग शनि देव की मूर्ति पर तिल का तेल, काले तिल, नीले फूल, काले वस्त्र और लोहा चढ़ाते हैं. शनि स्तोत्र, दशरथ कृत शनिश्चरी स्तुति और हनुमान चालीसा का पाठ भी इस दिन लाभदायक माना जाता है. इस दिन दान का भी विशेष महत्व होता है काले तिल, कंबल, लोहा, चप्पल आदि का दान करने से शनि की कृपा प्राप्त होती है.

शनिश्चरी अमावस्या के दिन किए जाने वाले प्रमुख उपाय

शनि मंदिर में तिल का तेल चढ़ाना चाहिए, पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाकर शनिश्चरी चालीसा पढ़ना चाहिए, काले वस्त्र दान करना चाहिए, निर्धनों को काले वस्त्र, छाता, चप्पल, कंबल आदि का दान करना चाहिए, शनि देव का अभिषेक करना चाहिए, काले तिल मिले जल से शनि देव की मूर्ति का स्नान कराना चाहिए, हनुमान जी की उपासना करनी चाहिए, शनि देव की कृपा पाने के लिए हनुमान जी का स्मरण करना लाभकारी होता है.

शनिश्चरी अमावस्या साढ़ेसाती और उपाय

शनि की साढ़ेसाती व्यक्ति के जीवन में सबसे कठिन समय मानी जाती है. यह 7.5 वर्षों तक चलती है और व्यक्ति को मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझना पड़ता है परंतु यह काल केवल दंड का नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण और आत्मविकास का भी होता है. व्यक्ति इस समय संयम, परिश्रम और ईमानदारी से कार्य करे, तो शनि देव उसे अंत में आशीर्वाद भी देते हैं. शनि मंदिर के दर्शन करना चाहिए. व्रत रखें और काले चने, गुड़ और तिल का दान करना चाहिए.गरीबों को भोजन कराना चाहिए.पीपल के वृक्ष की सेवा करनी चाहिए.

शनि देव की पूजा केवल भयवश नहीं बल्कि श्रद्धा और समझदारी से की जानी चाहिए. वे अन्याय का विरोध करते हैं और न्यायप्रिय व्यक्ति का साथ देते हैं. उनके द्वारा दी गई परीक्षा हमें मजबूत और अनुशासित बनाती है. अगर कोई व्यक्ति सच्चे हृदय से सेवा और भक्ति करता है, तो शनिश्चरी देव उसकी कठिनाइयों को समाप्त कर देते हैं.

शनिश्चरी अमावस्या एक अत्यंत पावन दिन है जब भक्त शनिश्चरी देव की पूजा-अर्चना कर अपने जीवन से नकारात्मक प्रभावों को दूर कर सकते हैं. शनिश्चरी देव केवल दंडदाता नहीं, अपितु मार्गदर्शक भी हैं जो हमें कर्म और धर्म के पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं. यदि हम उनके सिद्धांतों को समझकर जीवन में उतारें, तो निश्चित ही हमारा जीवन सुखद और समृद्धिशाली बन सकता है.

शनिश्चरी अमावस्या पितृ पूजा का समय 

शनिश्चरी अमावस्या हिंदुओं के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है क्योंकि इसी दिन पितृ पूजा का भी समय  होता है. यह अवधि पितृ तर्पण और पिंड दान जैसे अनुष्ठानों के माध्यम से पूर्वजों की पूजा के लिए समर्पित है. भक्त ब्राह्मणों को भोजन और कपड़े देते हैं और अक्सर गंगा नदी में पवित्र स्नान करते हैं.

यह अवधि पितृ तर्पण और पिंड दान जैसे अनुष्ठानों के माध्यम से पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए खास होती है. अमावस्या को महत्वपूर्ण समय माना जाता है जब पूर्वज धरती पर आते हैं और अपने परिवार के सदस्यों से प्रसन्न होने और उन्हें मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद देने की आशा में अपने घर आते हैं. जो लोग इस अवधि के दौरान उनकी पूजा करते हैं, उन्हें सुख, समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य का आशीर्वाद मिलता है और जो लोग उन्हें याद भी नहीं करते हैं, उन्हें पितृ अपने लोक यानी पितृ लोक में लौटने से पहले श्राप देते हैं. शनिश्चरी अमावस्या के दिन लोग सदस्य विभिन्न पूजा अनुष्ठान करते हैं जैसे पितृ तर्पण, पिंड दान, हवन अनुष्ठान और गायत्री पाठ का आयोजन भी करते हैं. वे घर पर ब्राह्मणों या पुजारियों को आमंत्रित करते हैं और उन्हें भोजन, कपड़े, दक्षिणा और विभिन्न उपयोगी वस्तुएं देते हैं जिन्हें वे अपने पूर्वजों के नाम पर दान करना चाहते हैं. 

जिन लोगों की कुंडली में पितृ दोष है, उन्हें अपने पूर्वजों की शांति के लिए विशेष पूजा अवश्य करवानी चाहिए और इस पूजा को पितृ दोष निवारण पूजा कहा जाता है. इस पूजा को करने से उनके पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. भक्त अमावस्या के दिन गंगा नदी में पवित्र स्नान करने के लिए गंगा घाटों पर भी जाते हैं. कई भक्त गंगा घाटों के पास ये अनुष्ठान करते हैं क्योंकि गंगा घाट के पास ऐसे अनुष्ठान करने का बहुत महत्व है.  

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दर्श ज्येष्ठ अमावस्या : जानें दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पूजा, महत्व और प्रभाव

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या को बहुत ही विशेष तिथि के रुप में पूजा जाता है. इस तिथि को “दर्श ज्येष्ठ अमावस्या” कहा जाता है. इस अमावस्या तिथि पर पूजा-पाठ और स्नान के लिए विशेष पूजा-पाठ का आयोजन किया जाता है. इस समय पर पितरों का पूजन किया जाता है. हिंदू पंचांग में अमावस्या तिथि को लेकर कई मत हैं. कुछ लोग इस दिन को कुछ खास कार्यों के लिए भी महत्वपूर्ण मानते हैं. श्राद्ध तर्पण से जुड़े काम इस अमावस्या के दिन विशेष होते हैं। शनि देव का पूजन शिव गोरी पूजन श्री हरि पूजन इस दिन विशेष माना गया है\

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पूजा अनुष्ठान

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पर चंद्रमा की शक्ति कमजोर हो जाती है. अमावस्या की रात अंधेरी होती है क्योंकि चांदनी नहीं होती. इस वातावरण में नकारात्मकता का प्रभाव भी अधिक होता है. इसलिए इस समय तंत्र से जुड़े काम किए जाते हैं. कहा जाता है कि यह रात तांत्रिकों के लिए खास होती है क्योंकि इस अमावस्या पर वे अपनी सिद्धियों से अलग-अलग शक्तियों को जागृत करते हैं. 

अमावस्या पर पवित्र जल में स्नान का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है. अमावस्या पर स्नान का महत्व पूर्णिमा के स्नान जितना ही है. इस दिन स्नान करने से भक्त के अंदर मौजूद सभी नकारात्मक तत्व दूर हो जाते हैं. मानसिक शक्ति प्राप्त होती है और विचारों में शुद्धता आती है. शरीर स्वस्थ होता है और बुरी शक्तियां भी दूर रहती हैं. स्नान से कुछ ग्रह नक्षत्रों से सकारात्मकता भी मिलती है.

भक्त. इस दिन, आपको सुबह उठकर अपने इष्ट देव का स्मरण करते हुए ध्यान करना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार इस दिन पीपल का पेड़ लगाने और उसकी पूजा करने का भी विधान है. ऐसा माना जाता है कि जिनके संतान नहीं होती उन्हें चमत्कारी परिणामों के लिए पीपल के पेड़ की पूजा करनी चाहिए. ब्रह्मा, विष्णु और शिव यानी त्रिदेव पीपल के पेड़ में निवास करते हैं. पुराणों के अनुसार पीपल का पेड़ लगाने से सैकड़ों यज्ञों के बराबर फल मिलता है और व्यक्ति के जीवन के सकारात्मक कर्मों में वृद्धि होती है. पीपल के पेड़ की पूजा करने से पापों का नाश होता है, धन-धान्य की प्राप्ति होती है. जब कोई पीपल के पेड़ की प्रदक्षिणा करता है, तो उसकी आयु में वृद्धि होती है.

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या प्रभाव 

निर्णय सिंधु जैसे शास्त्रों में दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पर दान के महत्व के बारे में बताया गया है. इस दिन दिव्यांगों और गरीबों को दान अवश्य करना चाहिए. ब्राह्मणों को भोजन कराने से सहस्त्र गोदान के बराबर फल मिलता है. अमावस्या के दिन दूध या किसी अन्य सफेद वस्तु का दान करने से चंद्रमा से सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते हैं.

अमावस्या के दिन सबसे महत्वपूर्ण कार्य अपने पितरों के निमित्त दान करना है. व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर पितरों के निमित्त सभी कार्य करने चाहिए. इस दिन दान करने से सभी नौ ग्रह प्रसन्न होते हैं और व्यक्ति के जीवन से समस्याएं दूर होती हैं.

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पर किन कार्यों को नहीं करना चाहिए

मांस-मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए. पैसे उधार नहीं लेने चाहिए.कोई नई वस्तु नहीं खरीदनी चाहिए. दर्श ज्येष्ठ अमावस्या का प्रभाव महीने के अनुसार और ग्रह नक्षत्रों के माध्यम से अलग-अलग राशि के लोगों पर पड़ता है. इसलिए इस दिन गलत कार्यों से दूर रहना चाहिए, व्रत रखना चाहिए और भगवान की पूजा करनी चाहिए.

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पर क्या करना चाहिए

दर्श अमावस्या के दिन गाय, कुत्ते और कौओं को भोजन कराएं. पीपल और बड़ के पेड़ की पूजा करनी चाहिए. पीपल के पेड़ पर सूत बांधना चाहिए और कच्चा दूध चढ़ाना चाहिए. पितरों के लिए तर्पण करना चाहिए. काले तिल का दान करें. दीपक भी जलाना चाहिए. दर्श ज्येष्ठ अमावस्या शुभ लाभ इस दिन पूजा करने से जीवन की सभी परेशानियां दूर होती हैं. संतान प्राप्ति और संतान प्राप्ति से जुड़ी समस्याएं दूर होती हैं. अपमान और बुरी नजर से दूर रहता है. इस दिन सभी तरह के कार्यों को पूरा करने में मदद मिलती है.कर्ज से जुड़ी समस्याएं दूर होती हैं.

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या को वट सावित्री व्रत रखा जाता है

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या के दिन ही एक और महत्वपूर्ण त्योहार “वट सावित्र” भी मनाया जाता है. वट सावित्री व्रत विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए रखती हैं. इस व्रत को रखने से मनोकामनाएं शीघ्र पूरी होती हैं. इस दिन पूजा करने से अविवाहित लड़कियों को मनचाहा वर मिलता है और विवाहित महिलाओं को सुखी वैवाहिक जीवन और पति की लंबी आयु का आशीर्वाद मिलता है. इस दिन सत्यवान और सावित्री की कथा सुनी जाती है और पीपल के पेड़ की पूजा की जाती है.

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या शिव गौरी पूजा 

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पर विशेष रूप से शिव-पार्वती की पूजा शुभदायक होती है. इस दिन का पूजन से भक्तों को  हमेशा सौभाग्य की प्राप्ति होती है. दर्श ज्येष्ठ अमावस्या पर शाम के समय किसी पवित्र नदी के तट पर या किसी मंदिर में दीप दान करने की भी सदियों पुरानी परंपरा है. पीपल के पेड़ की पूजा करना, उसके सामने दीपक जलाना और उसकी परिक्रमा करना भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. इससे जीवन में बहुत शुभता आती है.

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या शनि जन्मोत्सव 

दर्श ज्येष्ठ अमावस्या के दिन शनि जयंती भी मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन शनिदेव का जन्म हुआ था. इसलिए शनि जयंती के कारण इस दिन शनिदेव की पूजा की जाती है. इस दिन शनिदेव से जुड़े मंत्रों और स्तोत्रों का जाप किया जाता है. ज्योतिष शास्त्र में शनिदेव को नौ महत्वपूर्ण ग्रहों में से एक माना गया है. ज्योतिष शास्त्र में शनिदेव को मनुष्य के सभी अच्छे-बुरे कर्मों का न्यायकर्ता माना गया है. इस दिन शनिदेव की पूजा करने से शनि के अशुभ प्रभाव कम होते हैं. इससे शनिदेव से जुड़ी परेशानियां भी दूर होती हैं.

शनि जयंती पर शनिदेव की पूजा करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है. इस अमावस्या के अवसर पर शनिदेव से संबंधित अनुष्ठान करने, व्रत रखने और दान करने से शनि से संबंधित सभी कष्ट दूर होते हैं और अच्छे कर्मों की प्राप्ति होती है. शनि पूजा करने के लिए सुबह जल्दी उठकर स्नान करके पीपल के पेड़ के सामने सरसों या तिल के तेल का दीपक जलाना चाहिए. शनि मंत्र “ॐ शनैश्चराय नमः” का जाप करना चाहिए. इस दिन शनिदेव से संबंधित वस्तुएं जैसे तिल, उड़द, काला कंबल, लोहा, वस्त्र, तेल आदि का दान करना चाहिए.

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वट सावित्रि अमावस्या पूजा और व्रत प्रभाव

वट सावित्री अमावस्या जिसे विशेष रूप से विवाहित स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और परिवार की खुशहाली के लिए मनाती हैं. यह पर्व सावित्री और सत्यवान की अमर कथा पर आधारित है जो पत्नी की तपस्या, भक्ति और दृढ़ संकल्प की प्रतीक मानी जाती है. यह व्रत हिन्दू धर्म में विवाहित स्त्रियों के लिए अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण माना गया है. वट यानी वटवृक्ष (बड़ का पेड़), सावित्री यानी वह पवित्र स्त्री जिसने अपने पति को यमराज से वापस पाया. इस दिन महिलाएं उपवास रखती हैं वटवृक्ष की पूजा करती हैं और सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती हैं.

वट सावित्रि अमवास्या कब मनाई जाती है

वट सावित्री अमावस्या हर वर्ष ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाया जाता है. कुछ क्षेत्रों में इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा को भी मनाया जाता है, परंतु अधिकांश स्थानों पर अमावस्या को इसका विशेष महत्व है. इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति की दीर्घायु, अच्छे स्वास्थ्य और अखंड सौभाग्य की कामना करना है. यह व्रत स्त्रियों को अपने पारिवारिक और वैवाहिक जीवन के प्रति दायित्वबोध कराता है.

वट सावित्री अमावस्या का आधार प्रसिद्ध पौराणिक कथा है. इसके अनुसार, सावित्री एक राजकुमारी थीं जिन्होंने सत्यवान नामक वनवासी राजकुमार से विवाह किया. नारद मुनि ने सावित्री को पहले ही चेतावनी दी थी कि सत्यवान अल्पायु है, परंतु सावित्री ने उन्हें अपना जीवनसाथी स्वीकार किया. विवाह के बाद वह अपने पति के साथ वन में रहने लगीं. नियत दिन जब यमराज सत्यवान के प्राण लेने आए, तो सावित्री ने दृढ़ निश्चय किया कि वह अपने पति को नहीं खोएंगी. वह यमराज के पीछे-पीछे चलने लगीं और अपने ज्ञान, धैर्य और वाणी से उन्हें प्रभावित किया. अंततः यमराज ने सावित्री की निष्ठा से प्रसन्न होकर सत्यवान के प्राण लौटा दिए. इस प्रकार सावित्री ने अपने पति को मृत्यु से भी वापस ले लिया.

वट सावित्री अमावस्या और वट वृक्ष का पूजन 

वट सावित्री अमावस्या हिन्दू धर्म में विवाहित स्त्रियों के लिए अत्यंत पावन पर्व है. यह व्रत हर साल ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है. इस दिन महिलाएं अपने पति की दीर्घायु, संतान सुख और वैवाहिक जीवन की स्थिरता के लिए व्रत रखती हैं. इस अवसर पर वटवृक्ष (बड़ के पेड़) की पूजा की जाती है, और प्राचीन समय की दृढ़ नारी ‘सावित्री’ की कथा का स्मरण किया जाता है. यही कारण है कि यह व्रत वट सावित्री अमावस्या कहलाता है.

भारतीय परंपरा में इस व्रत को एक आदर्श नारी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है. स्कंद पुराण, भविष्योत्तर पुराण और अन्य धर्मग्रंथों में इस व्रत का महत्त्वपूर्ण वर्णन मिलता है. यह व्रत वट और सावित्री दोनों के पवित्र प्रतीक रूप को सामने लाता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और शिव का निवास माना जाता है, और इसकी छाया में व्रत-पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

इस दिन केवल सावित्री और सत्यवान की पूजा नहीं होती, बल्कि धर्म के देवता यमराज का भी पूजन किया जाता है. परंपरा के अनुसार मिट्टी या धातु से सावित्री, सत्यवान और यमराज की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं और उन्हें धूप, दीप, चंदन, फल, फूल आदि अर्पित किए जाते हैं.

वट सावित्रि अमावस्या पौराणिक कथा

सावित्री की कथा प्राचीन भारतीय इतिहास में दृढ़ संकल्प और नारी शक्ति का अद्वितीय उदाहरण है. एक समय भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान नहीं थी. वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद देवी सावित्री प्रसन्न हुईं और उन्हें एक पुत्री का आशीर्वाद दिया. इस पुत्री का नाम सावित्री रखा गया, जो बड़ी होकर अत्यंत सुंदर, बुद्धिमान और गुणों से परिपूर्ण बनीं.

जब विवाह योग्य उम्र हुई, तो राजा अश्वपति ने स्वयं योग्य वर खोजने की कोशिश की, लेकिन जब उन्हें कोई उपयुक्त वर नहीं मिला, तो उन्होंने सावित्री को स्वयं वर चयन की अनुमति दी. एक दिन वन भ्रमण के दौरान सावित्री की मुलाकात साल्व देश के वनवासी राजा द्युमत्सेन और उनके पुत्र सत्यवान से हुई. सत्यवान बलवान, गुणवान और धर्मपरायण था, सावित्री ने उसे ही अपना जीवनसाथी मान लिया.

जब नारद मुनि को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने राजा अश्वपति को सावधान करते हुए कहा कि सत्यवान अल्पायु है और एक वर्ष के भीतर उसकी मृत्यु निश्चित है. इस बात से राजा चिंतित हो गए और सावित्री से पुनः विचार करने को कहा, लेकिन सावित्री अडिग रही. उसने कहा, आर्य कन्या एक बार ही वर चुनती है और मैं अपने प्रण से पीछे नहीं हटूंगी. इस प्रकार सत्यवान और सावित्री का विवाह हुआ और वह अपने पति के साथ वन में रहने लगी.

समय बीतता गया और सावित्री को याद था कि सत्यवान का जीवन अब सीमित है. मृत्यु तिथि के तीन दिन पूर्व ही उसने उपवास करना शुरू कर दिया और ध्यान तथा व्रत का पालन करते हुए दिन व्यतीत करने लगी. नियत दिन सत्यवान रोज की तरह लकड़ी काटने वन गया और सावित्री भी साथ गई.

वन में सत्यवान को अचानक तेज सिरदर्द हुआ और वह अचेत हो गया. तभी यमराज, मृत्यु के देवता, प्रकट हुए और सत्यवान के प्राण लेकर दक्षिण दिशा की ओर बढ़ने लगे. सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल दी. यमराज ने उसे रोका और समझाया कि यह सृष्टि का नियम है, लेकिन सावित्री अपनी दृढ़ निष्ठा पर अडिग रही.

यमराज उसकी भक्ति और निष्ठा से प्रभावित हुए और बोले वर मांगो.

सावित्री ने कहा मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें दृष्टि प्राप्त हो. यमराज ने यह वर दिया. कुछ दूर और चलते हुए यमराज ने फिर कहा एक और वर मांगो. सावित्री ने मांगा मेरे ससुर को पुनः उनका राज्य मिल जाए. यह वर भी दिया गया.

लेकिन सावित्री अब भी पीछे-पीछे चलती रही. यमराज ने तीसरा वर मांगने को कहा. इस बार सावित्री बोली मैं सत्यवान से सौ पुत्रों की मां बनूं. यमराज ने तथास्तु कहा, लेकिन तब भी सावित्री नहीं रुकी.यमराज कुछ क्रोधित हुए और बोले अब तो लौट जाओ. 

सावित्री ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया आपने मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का आशीर्वाद दिया है, पर यदि मेरे पति ही जीवित नहीं रहे तो यह कैसे संभव होगा यमराज सावित्री की बुद्धिमत्ता और भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए और सत्यवान के प्राण उसे लौटा दिए.

सावित्री सत्यवान को लेकर उसी वटवृक्ष के नीचे लौटीं, जहां वह अचेत पड़ा था. सत्यवान ने धीरे-धीरे आंखें खोलीं और स्वस्थ हो गया. जब दोनों घर लौटे, तो देखा कि उनके सास-ससुर को दृष्टि प्राप्त हो चुकी थी और उनका राज्य भी वापस मिल गया था. इस प्रकार सावित्री के धैर्य, भक्ति और विवेक के बल पर उसके पूरे परिवार को सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हुई.

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अपरा एकादशी पर जानें अपनी राशि अनुसार उपाय

भारतीय संस्कृति में तिथियों और पर्वों का विशेष महत्व रहा है. ये केवल धार्मिक कर्तव्यों तक सीमित नहीं होते, बल्कि व्यक्ति के मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में भी एक अहम भूमिका निभाते हैं. इन्हीं पर्वों में से एक है एकादशी, जो विशेष रूप से भगवान विष्णु को समर्पित होती है. हर महीने दो एकादशी तिथियाँ आती हैं एक शुक्ल पक्ष में और एक कृष्ण पक्ष में. चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को अपरा एकादशी कहा जाता है.  

अपरा एकादशी का धार्मिक महत्व

अपरा एकादशी को भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने का अत्यंत शुभ अवसर माना जाता है. इस दिन श्रद्धालु उपवास रखते हैं, व्रत की विधिपूर्वक पूजा करते हैं और भगवान विष्णु के नाम का जाप करते हैं. अपरा एकादशी के दिन व्रत करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है. शास्त्रों के अनुसार, यह तिथि व्यक्ति के जीवन से दरिद्रता और असफलता को दूर करती है.

ऐसी मान्यता है कि इस दिन किया गया धर्म-कर्म सौ गुना फल देता है. व्रत रखने वाला व्यक्ति पुण्य का भागी बनता है और उसे लोक-परलोक दोनों में कल्याण प्राप्त होता है.

अपरा एकादशी व्रत की विधि

अपरा एकादशी के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान आदि कर शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद भगवान विष्णु की प्रतिमा या चित्र के समक्ष दीप प्रज्वलित कर पूजा करें. भगवान को पीले फूल, तुलसी पत्र, फल, मिठाई और पंचामृत अर्पित करें. विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें और व्रत की संकल्प लें. व्रती को दिनभर उपवास करना चाहिए और केवल फलाहार या जल ग्रहण करना चाहिए. रात्रि में भगवान विष्णु का कीर्तन करें और अगले दिन द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का पारण करें.

अपरा एकादशी का ज्योतिषीय महत्व

ज्योतिष के अनुसार, एकादशी का दिन केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि राशियों के अनुसार भी अत्यंत फलदायक होता है. इस दिन यदि व्यक्ति अपनी राशि अनुसार कुछ विशेष उपाय करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक रूप से शुभ फल प्राप्त हो सकते हैं. ये उपाय जीवन में अटके हुए कार्यों को गति देते हैं, मानसिक तनाव को कम करते हैं और धन-संपत्ति की प्राप्ति में सहायक होते हैं. आइए, अब जानते हैं कि इस अपरा एकादशी के दिन 12 राशियों के जातकों को कौन-कौन से उपाय करने चाहिए:

मेष राशि – आत्मबल और सफलता के लिए उपाय

मेष राशि के जातकों के लिए यह दिन आत्मबल और कार्यसफलता प्राप्त करने के लिए अत्यंत उपयुक्त होता है. इस दिन भगवान विष्णु को चंदन अर्पित करें और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का 108 बार जाप करें. यह उपाय मानसिक शांति के साथ-साथ करियर में सफलता प्रदान करता है. साथ ही, घर में धार्मिक वातावरण भी बना रहता है.

वृषभ राशि – आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने हेतु उपाय

वृषभ राशि वालों को इस दिन भगवान विष्णु को सफेद रंग की मिठाई और तुलसी अर्पित करनी चाहिए. इसके बाद ‘ॐ श्री विष्णवे नमः’ मंत्र का 108 बार जाप करें. इससे न केवल आर्थिक परेशानियाँ दूर होती हैं बल्कि व्यापार या नौकरी में लाभ की संभावना बढ़ती है.

मिथुन राशि – बुद्धि और संचार शक्ति में वृद्धि के उपाय

मिथुन राशि के जातकों के लिए इस दिन पीले फूल और केले का भोग भगवान विष्णु को अर्पित करना शुभ रहता है. साथ ही ‘ॐ वासुदेवाय नमः’ मंत्र का जाप करें. यह उपाय वाणी की मधुरता, संचार में दक्षता और निर्णय क्षमता को प्रबल बनाता है.

कर्क राशि – मन की शांति और पारिवारिक सुख

इस राशि के लोग अपरा एकादशी पर दूध और चावल से बने भोग भगवान को अर्पित करें और ‘ॐ नारायणाय नमः’ मंत्र का जाप करें. इससे घर में सुख-शांति बनी रहती है और मन को शांति मिलती है. पारिवारिक जीवन में तालमेल बेहतर होता है.

सिंह राशि – यश, मान-सम्मान और नेतृत्व गुणों के लिए उपाय

सिंह राशि वालों को भगवान विष्णु को केसर का तिलक लगाना चाहिए और ‘ॐ गोविंदाय नमः’ मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए. यह उपाय प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला है. नेतृत्व क्षमता में वृद्धि होती है और समाज में मान-सम्मान प्राप्त होता है.

कन्या राशि – स्वास्थ्य और सेवा से संबंधित उपाय

कन्या राशि के लोग इस दिन हरी मूंग दाल का दान करें और ‘ॐ मधुसूदनाय नमः’ मंत्र का जाप करें. यह उपाय स्वास्थ्य को मजबूत करता है और मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद करता है. सेवा कार्यों से आत्मसंतोष भी मिलता है.

तुला राशि – रिश्तों में सामंजस्य हेतु उपाय

तुला राशि के जातकों को इस दिन गुलाब का फूल भगवान विष्णु को अर्पित करना चाहिए और ‘ॐ पद्मनाभाय नमः’ मंत्र का जाप करना चाहिए. यह उपाय रिश्तों में मधुरता लाता है और जीवनसाथी के साथ सामंजस्य बेहतर बनाता है.

वृश्चिक राशि – नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति का उपाय

वृश्चिक राशि के लोग अपरा एकादशी पर लाल कपड़े में गुड़ बांधकर मंदिर में रखें और ‘ॐ हृषीकेशाय नमः’ मंत्र की माला जपें. यह उपाय नकारात्मक ऊर्जा को दूर करता है और जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाता है.

धनु राशि – भाग्यवृद्धि और गुरु कृपा प्राप्ति हेतु उपाय

धनु राशि वालों को पीले वस्त्र धारण करने चाहिए और केले का भोग भगवान विष्णु को अर्पित करना चाहिए. फिर ‘ॐ त्रिविक्रमाय नमः’ मंत्र का जाप करें. इससे भाग्य की प्रबलता बढ़ती है और उच्च शिक्षा या नौकरी में सफलता मिलती है.

मकर राशि – धन और समृद्धि की प्राप्ति के लिए उपाय

मकर राशि के जातकों को इस दिन भगवान विष्णु को पंचामृत अर्पित करना चाहिए और ‘ॐ दामोदराय नमः’ मंत्र का जाप करना चाहिए. यह उपाय आर्थिक समृद्धि और जीवन में स्थिरता लाता है.

कुंभ राशि – मानसिक संतुलन और वैचारिक स्पष्टता के लिए उपाय

कुंभ राशि वाले इस दिन शंख में जल भरकर भगवान विष्णु का अभिषेक करें और ‘ॐ अच्युताय नमः’ मंत्र का जाप करें. यह उपाय मानसिक स्पष्टता, निर्णय शक्ति और आत्मिक उन्नति में सहायक होता है.

मीन राशि – रुके हुए कार्यों की सफलता हेतु उपाय

मीन राशि के लोगों को भगवान विष्णु को केसर मिश्रित मिठाई अर्पित करनी चाहिए और ‘ॐ अनंताय नमः’ मंत्र का जाप करना चाहिए. इससे जीवन में रुके हुए कार्य पूर्ण होते हैं और नई दिशा प्राप्त होती है.

अपरा एकादशी न केवल एक धार्मिक तिथि है बल्कि यह आध्यात्मिक उन्नति, मानसिक संतुलन और जीवन में सुख-समृद्धि लाने का माध्यम भी है. यदि इस दिन श्रद्धा और नियमपूर्वक व्रत, पूजा और राशिनुसार उपाय किए जाएं, तो न केवल व्यक्ति की वर्तमान परेशानियां दूर होती हैं, बल्कि भविष्य का मार्ग भी प्रशस्त होता है. भगवान विष्णु की कृपा से जीवन में नवचेतना और आशा का संचार होता है.  

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ज्येष्ठ मास का महत्व और विभिन्न राशियों के लिए उपाय

हिंदू पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ मास वर्ष का तीसरा महीना होता है, जो वैशाख मास के बाद आता है. यह मास विशेष रूप से तप, संयम, और पवित्र आचरण के लिए जाना जाता है. इस माह में सूर्य देवता का विशेष पूजन किया जाता है, क्योंकि यह समय ग्रीष्म ऋतु का चरम होता है, जब सूर्य अपनी पूरी ऊर्जा के साथ पृथ्वी पर प्रभाव डालते हैं. ऐसे में धर्म, साधना, सेवा, और दान का विशेष महत्व होता है. ज्येष्ठ मास में व्रत, तीर्थ स्नान, जल दान, और गंगा स्नान आदि को अत्यधिक पुण्यदायी माना जाता है. इस महीने में मनुष्य को अपने इंद्रियों पर संयम रखते हुए सात्विक जीवनशैली अपनानी चाहिए ताकि आत्मिक बल की वृद्धि हो सके.

ज्येष्ठ माह और इस समय की विशेष बातें
ज्येष्ठ मास में विशेष रूप से वट सावित्री व्रत, निर्जला एकादशी, गंगा दशहरा, और श्री गंगा पूजन जैसे पर्व आते हैं, जो धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यंत शुभ माने जाते हैं. निर्जला एकादशी का व्रत तो समस्त एकादशियों में सबसे महान माना गया है, क्योंकि इसमें बिना जल के उपवास किया जाता है और इसका फल समस्त एकादशियों के समान होता है. इस मास में प्यासे प्राणियों को जल दान करना, प्याऊ लगवाना, छाया देना, और शीतल जल का वितरण करना महान पुण्य का कार्य माना जाता है. साथ ही, ज्येष्ठ मास में की गई पूजा-अर्चना का फल कई गुना बढ़ जाता है.

यह मास वैदिक ग्रंथों और पुराणों में भी विशेष स्थान रखता है. स्कंद पुराण में बताया गया है कि इस महीने में भगवान विष्णु और भगवान शिव की आराधना करने से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस महीने में संयमित आहार, जल सेवन में सावधानी, अधिक गर्म पदार्थों से परहेज़, और सूर्य नमस्कार का विशेष महत्व होता है. इस मास में भगवान सूर्य को अर्घ्य देना, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करना और हनुमान जी की आराधना करना भी विशेष रूप से लाभकारी माना गया है.

ज्येष्ठ माह में राशि अनुसार किए जाने वाले कार्य
अब यदि हम ज्येष्ठ मास में विभिन्न राशियों के लिए किए जाने वाले उपायों की बात करें, तो ज्योतिष के अनुसार यह समय ग्रहों की चाल और प्रभाव के आधार पर हर राशि पर भिन्न-भिन्न परिणाम देता है. इस मास में यदि जातक अपनी राशि के अनुसार विशेष उपाय करें तो जीवन में सुख, समृद्धि, और स्वास्थ्य की प्राप्ति हो सकती है.

मेष राशि वालों के लिए यह मास आत्मनिरीक्षण और आत्मशक्ति बढ़ाने का होता है. इन्हें इस समय हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए और मंगलवार के दिन लाल वस्त्र में चना दाल और गुड़ बांधकर हनुमान मंदिर में अर्पण करना चाहिए.

वृषभ राशि के लिए यह समय धन-संचय और परिवारिक शांति के लिए उपयुक्त है. इन्हें मां लक्ष्मी की उपासना करनी चाहिए और शुक्रवार के दिन सफेद मिठाई गरीबों में बांटनी चाहिए.

मिथुन राशि के लोगों को इस समय वाणी पर संयम रखना चाहिए. इन लोगों को बुधवार के दिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करना लाभदायक होता है.

कर्क राशि वालों के लिए यह समय भावनाओं पर नियंत्रण और आत्मबल बढ़ाने का होता है. इन्हें शिवलिंग पर कच्चा दूध अर्पित करना चाहिए और सोमवार के दिन रुद्राष्टक का पाठ करना चाहिए.

सिंह राशि को इस समय स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए और सूर्य देव को जल अर्पित करना चाहिए. इन्हें आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन करना चाहिए.

कन्या राशि वालों के लिए यह समय करियर और संबंधों को सुदृढ़ बनाने का होता है. इन्हें बुध ग्रह को प्रसन्न करने के लिए तुलसी में जल अर्पित करना चाहिए और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप करना चाहिए.

तुला राशि को इस समय मन की शांति और न्याय की भावना को बल देना चाहिए. इन्हें मां दुर्गा की उपासना करनी चाहिए और शुक्रवार के दिन कन्याओं को भोजन कराना शुभ होता है.

वृश्चिक राशि के लिए यह समय ऊर्जा और साहस को पुनः जाग्रत करने का होता है. इन्हें हनुमान जी की आराधना करनी चाहिए और प्रत्येक मंगलवार को मसूर की दाल दान करना लाभदायक होता है.

धनु राशि के लोगों को इस मास में धर्म और अध्यात्म की ओर झुकाव रखना चाहिए. इन्हें बृहस्पति देव की पूजा करनी चाहिए और पीले वस्त्र पहनकर गुरुवार को पीले फल और मिठाई दान करनी चाहिए.

मकर राशि वालों को इस समय व्यावसायिक निर्णय सोच-समझकर लेने चाहिए. शनिदेव की पूजा करना, शनिवार को सरसों के तेल का दीपक जलाना, और काले तिल का दान करना लाभकारी होता है.

कुंभ राशि के जातकों को इस मास में समाज सेवा और मानसिक संतुलन पर ध्यान देना चाहिए. इन्हें शनिवार के दिन गरीबों को छाता, चप्पल, या जल पात्र दान करना चाहिए.

मीन राशि के लिए यह समय आत्मिक उन्नति और ध्यान के लिए उपयुक्त होता है. इन्हें भगवान विष्णु की आराधना करनी चाहिए, जल में तुलसी डालकर अर्घ्य देना चाहिए, और “ॐ विष्णवे नमः” का जाप करना चाहिए.

ज्येष्ठ माह और इस समय का महत्व
ज्येष्ठ मास की तीव्र गर्मी केवल बाहरी रूप से शरीर को तपाती नहीं, बल्कि आंतरिक ऊर्जा को भी जागृत करने का अवसर प्रदान करती है. यह तपस्या, दान, सेवा और संयम का काल होता है. इस मास में जितना अधिक संयम और सत्कर्म किया जाता है, उतना ही अधिक आत्मिक विकास संभव होता है. सूर्य की उग्रता जहां शरीर को अशांत करती है, वहीं यह आत्मा के परिष्कार के लिए आदर्श काल बनती है.

इस मास में संयमित जीवनशैली अपनाकर, जल से जीवन की रक्षा कर, और देवी-देवताओं की आराधना कर मनुष्य अपने जीवन को अधिक पवित्र, शुद्ध और आनंदमय बना सकता है. इसके साथ ही यदि जातक अपनी राशि के अनुसार विशेष उपाय करें तो उन्हें मानसिक शांति, आर्थिक स्थिरता, और आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति संभव होती है. इस प्रकार ज्येष्ठ मास न केवल एक ऋतु विशेष का परिचायक है, बल्कि यह आत्मिक जागरण और कर्म के प्रति सजगता का संदेश देता है, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है.

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वैशाख पूर्णिमा और इस दिन किए जाने वाले राशि अनुसार उपाय

वैशाख पूर्णिमा हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है. यह तिथि धार्मिक, आध्यात्मिक और ज्योतिषीय दृष्टि से अत्यंत पावन मानी जाती है. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा विशेष फलदायी मानी जाती है. साथ ही, बुद्ध पूर्णिमा भी इसी दिन आती है, जिसे भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की स्मृति में मनाया जाता है.

इस दिन गंगा स्नान, व्रत, उपवास और दान का विशेष महत्व है. माना जाता है कि वैशाख पूर्णिमा पर किया गया पुण्य कई गुना बढ़कर फल देता है. यह तिथि आत्मशुद्धि, पितृ दोष निवारण और मनोकामना पूर्ति के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है. साथ ही, इस दिन विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ, तुलसी जल अर्पण और दीप दान करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है.

वैशाख पूर्णिमा पर दान और पुण्य का लाभ

वैशाख पूर्णिमा के दिन अन्न, वस्त्र, जल, घी, चावल, गुड़, शहद, पंखा, जल से भरे घड़े, छाता और धार्मिक ग्रंथों का दान करने से विशेष लाभ मिलता है. गाय, ब्राह्मण और जरुरतमंदों को किए गए दान से जीवन में पापों का क्षय होता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है.

इस दिन हनुमान जी को सिंदूर और चोला चढ़ाना चाहिए, साथ ही गुड़-चने का भोग लगाना चाहिए. इससे शत्रु बाधा दूर होती है.लक्ष्मी नारायण मंदिर में सफेद मिठाई चढ़ाना चाहिए और गरीबों को दान दें. धन लाभ के योग बनते हैं. दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए और कन्याओं को भोजन कराना चाहिए. बुद्धि और वाणी में सकारात्मकता आती है. शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करना चाहिए. पारिवारिक जीवन में सुख-शांति बढ़ती है. सूर्य देव को जल अर्पण करना चाहिए और गाय को गुड़ रोटी खिलानी चाहिए जिससे मान-सम्मान में वृद्धि होती है.

वैशाख पूर्णिमा पर राशि अनुसार उपाय और महत्व 

मेष राशि 

इस दिन हनुमान जी को चमेली का तेल और सिंदूर चढ़ाना चाहिए, चने-गुड़ का भोग लगाना चाहिए और हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए.

मेष राशि के जातकों को साहस, ऊर्जा और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है. यह उपाय उनके भीतर छुपी शक्ति को जाग्रत करता है और शत्रु बाधा या कोर्ट-कचहरी से जुड़े मामलों में सफलता दिलाता है.

वृषभ राशि 

लक्ष्मी-नारायण मंदिर में जाकर शुद्ध घी का दीपक जलाएं, सफेद वस्त्र धारण कर मीठा प्रसाद (खीर, मिश्री) चढ़ाना चाहिए और गरीबों को वस्त्र एवं अन्न दान करना चाहिए.

वृषभ राशि के जातकों के लिए यह उपाय आर्थिक स्थिरता और भौतिक सुख-सुविधाओं में वृद्धि लाता है. ग्रहों की बाधा से मुक्ति मिलती है और सौंदर्य व ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.

मिथुन राशि

इस दिन मां दुर्गा को श्रृंगार की वस्तुएं अर्पित करना चाहिए, दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए और छोटी कन्याओं को भोजन कराना चाहिए.

मिथुन राशि के लोगों को मानसिक स्पष्टता और वाणी पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है. यह उपाय उनके विचारों में स्थिरता लाकर संवाद में प्रभावशाली बनाता है, जिससे सामाजिक और व्यावसायिक लाभ होता है.

कर्क राशि

शिवलिंग पर दूध, जल और बेलपत्र अर्पित करना चाहिए. चावल और दूध का दान करना चाहिए.

कर्क राशि के जातक भावुक और संवेदनशील होते हैं. शिव पूजन से उनके मानसिक तनाव और पारिवारिक असंतुलन दूर होते हैं. यह उपाय घर में शांति और समृद्धि लाता है.

सिंह राशि 

सूर्य देव को तांबे के लोटे में जल, लाल पुष्प और गुड़ डालकर अर्घ्य दें. साथ ही गाय को गुड़ रोटी खिलानी चाहिए.

सिंह राशि वालों के लिए यह उपाय आत्मसम्मान, पद-प्रतिष्ठा और नेतृत्व क्षमता में वृद्धि करता है. सरकारी कामों में लाभ मिलता है और समाज में सम्मान बढ़ता है.

कन्या राशि

श्री विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए, तुलसी के पौधे में जल चढ़ाना चाहिए और पीले वस्त्र का दान करना चाहिए.

कन्या राशि के जातकों के लिए यह उपाय मानसिक शांति और रोग-मुक्ति लाता है. पढ़ाई, लेखन और शोध कार्यों में सफलता मिलती है.

तुला राशि 

राधा-कृष्ण मंदिर में गुलाब के फूल और श्रृंगार सामग्री अर्पित करना चाहिए. सफेद वस्त्र और मिठाई का दान करना चाहिए.

तुला राशि के जातक संतुलन और सौंदर्य में विश्वास रखते हैं. यह उपाय प्रेम संबंधों में मिठास लाता है, वैवाहिक जीवन को सुखद बनाता है और मन की चंचलता शांत करता है.

वृश्चिक राशि 

काल भैरव या महाकाली की पूजा करना चाहिए. काले तिल और उड़द दाल का दान करना चाहिए.

वृश्चिक राशि के जातक तीव्र स्वभाव और गूढ़ चिंतन वाले होते हैं. यह उपाय नकारात्मक ऊर्जा, भय और आकस्मिक घटनाओं से रक्षा करता है और आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करता है.

धनु राशि 

विष्णु जी को केले और पीले पुष्प अर्पित करना चाहिए. पीले वस्त्र पहनें और ब्राह्मणों को दान दें.

यह उपाय गुरु ग्रह को बल देता है, जिससे शिक्षा, ज्ञान, यात्रा और आध्यात्मिक उन्नति में सफलता मिलती है. भाग्यबल प्रबल होता है.

मकर राशि 

भगवान शनि को तिल के तेल से अभिषेक करना चाहिए, काले तिल और लोहे के पात्र का दान करना चाहिए.

मकर राशि के जातकों के लिए यह उपाय कार्यक्षेत्र में बाधाएं दूर करता है. कर्मफल में सुधार होता है और जीवन में स्थिरता आती है.

कुंभ राशि 

गरीबों को जल से भरे घड़े, पंखा, चप्पल और ताजा फल का दान करना चाहिए.

कुंभ राशि के जातक मानवीय सेवा में रुचि रखते हैं. यह उपाय उनके सामाजिक प्रभाव को बढ़ाता है और आकस्मिक लाभ या मदद के योग बनाता है.

मीन राशि 

भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए, केले के पेड़ की पूजा करना चाहिए और जरूरतमंदों को भोजन कराना चाहिए.

मीन राशि के जातक भावुक और कल्पनाशील होते हैं. यह उपाय उनके मन को स्थिर करता है, आध्यात्मिक उन्नति में सहायता करता है और दाम्पत्य सुख को बढ़ाता है.

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