विवाह पंचमी: क्यों है विशेष मार्गशीर्ष माह पंचमी

वैवाहिक जीवन व्यक्ति को मनचाहा सुख प्रदान करता है. मार्गशीर्ष माह में आने वाली पंचमी तिथि को विवाह पंचमी के नाम से जाना जाता है. शास्त्रों के अनुसार इस दिन श्री राम और सीता जी का विवाह समारोह मनाया जाता है. अगर  सुख-सुविधाओं की कमी हो या फिर जातक की कुंडली में विवाह का योग नहीं है तो उसे श्री राम सीता विवाह पंचमी के दिन श्री राम और सीता जी की पूजा करनी चाहिए ऎसा करने से से सुखी वैवाहिक जीवन की कामना पूर्ण होती है. आइये जान लेते हैं विवाह पंचमी कथा और पौराणिक महत्व 

अपनी कुंडली से जाने वैवाहिक जीवन ओर मंगल दोष का प्रभाव : https://astrobix.com/discuss/index

मार्गशीर्ष माह विवाह पंचमी 

विवाह पंचमी के दिन हुआ था श्री राम और सीता जी का विवाह इसी कारण इस दिन पूजा और उत्सव मनाने से विवाह की संभावना बढ़ती है और वैवाहिक जीवन सुखमय होता है. श्री राम विवाह मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है. मान्यता है कि इस दिन भगवान राम का सीता से विवाह हुआ था. रामायण में राम विवाह का सुंदर वर्णन मिलता है. 

अयोध्या और मिथिला क्षेत्रों में उत्सव का विशेष रंग 

आज भी इस पर्व के दिन अयोध्या और मिथिला के आसपास के क्षेत्र उत्साह से भर जाते हैं. हर जगह भक्ति और प्रेम दिखाई देता है जो इस अवधि को बहुत पवित्र बनाता है. राम विवाह के इस महत्वपूर्ण अवसर पर पूरा देश खुशी मनाता है. इस दिन विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. राम-सीता कथा हमारी सभी प्राचीन परंपराओं और लोक कथाओं का अभिन्न अंग है. इनके बिना हमारी पौराणिक कथाएं कभी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकतीं. राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहा जाता है और जगत जननी सीता को पतिव्रता और लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है. भारत में जब भी किसी सुखी विवाहित जोड़े का जिक्र होता है तो उसकी तुलना राम-सीता से की जाती है. राम और सीता को आदर्श जोड़ा माना जाता है. भले ही रावण के कारण उनका विवाह संकट में पड़ गया हो, लेकिन उनके मिलन को आदर्श मिलन माना जाता है.

श्री राम और सीता का जन्म एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है. उनका जन्म और उनका पूरा जीवन एक ऐसा आदर्श रहा है कि उन्हें उसी रूप में पूजा जाता है जैसे कई शताब्दियों पहले था यानी राम का जन्म अयोध्या में दशरथ के घर हुआ था. उसी समय सीता का जन्म धरती से हुआ और मिथिला के राजा जनक उनके पिता बने.

रामायण में है विवाह पंचमी का उल्लेख

श्री राम और सीता के विवाह का वर्णन तुलसीदास द्वारा रचित रामायण में विस्तार से किया गया है. उनके विवाह की कहानी बहुत ही सुंदर तरीके से शुरू होती है जब वे पहली बार पुष्प वाटिका में मिलते हैं. सीताजी रामजी के हृदय में बस जाती हैं. सीताजी तब देवी पार्वती से प्रार्थना करती हैं और भगवान राम को पति के रूप में मांगती हैं. सीता के स्वयंवर का दिन आता है. राजा जनक अपनी पुत्री का विवाह एक बलवान व्यक्ति से करवाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने सीता के विवाह के लिए एक शर्त रखी. उन्होंने घोषणा की कि केवल वही व्यक्ति सीता से विवाह कर सकेगा जो शिव का धनुष उठाने में सक्षम होगा. रामायण में उनके विवाह का बहुत ही सजीव वर्णन किया गया है.

सीता जी के विवाह योग्य हो जाने पर राजा जनक उनके स्वयंवर की घोषणा करते हैं और सभी राज्यों के राजकुमारों को निमंत्रण भेजते हैं. यही निमंत्रण वन में ऋषि विश्वामित्र के पास पहुंचता है. ऋषि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ स्वयंवर में भाग लेने के लिए जनकपुरी पहुंचते हैं. राम और सीता की पहली मुलाकात पुष्पवाटिका में होती है और फिर स्वयंवर के दौरान एक अद्भुत दृश्य होता है. 

सीता स्वयंवर कथा

अपने गुरु की आज्ञा पर भगवान राम धनुष उठाने का प्रयास करते हैं और बिना किसी प्रयास के ऐसा करने में सफल हो जाते हैं. वास्तव में, धनुष उनके हाथ में ही टूट जाता है. धनुष टूटते ही राम का सीता से विवाह संपन्न हो जाता है.

विवाह पंचमी पूजा

विवाह पंचमी के दिन पारंपरिक रूप से राम सीता की पूजा की जाती है. कई तरह की रस्में निभाई जाती हैं. कई जगहों पर जुलूस, कीर्तन आदि का आयोजन भी किया जाता है. इस दिन विशेष रूप से राम कथा सुनी जाती है. पूजा स्थल पर श्री राम जी और माता सीता की मूर्ति या चित्र रखना चाहिए. भगवान राम को पीले वस्त्र और माता सीता को लाल वस्त्र अर्पित करने चाहिए.

इस पूजा में रामायण का पाठ करना चाहिए. उनके विवाह की कथा सुननी और पढ़नी चाहिए. इस दिन ये अनुष्ठान करना बेहद शुभ माना जाता है. भगवान और देवी को खीर और पूरी का भोग लगाना चाहिए. इसे पूरे परिवार को खाना चाहिए. परिवार के कल्याण का आशीर्वाद लेना चाहिए. राम और सीता ने सभी के लिए जीवन जीने का आदर्श उदाहरण पेश किया है. उनके वैवाहिक जीवन का उल्लेख आज भी किया जाता है. यह समर्पण, प्रेम, निष्ठा और नैतिक मूल्यों को दर्शाता है.

विवाह पंचमी से जुड़ी मान्यताएं  

विवाह पंचमी के दिन श्री राम और माता सीता का विवाह हुआ था. इसलिए इस दिन भगवान राम और माता सीता की विवाह वर्षगांठ मनाई जाती है. इस दिन श्री राम और माता सीता की पूजा की जाती है. मान्यता है कि अगर कोई व्यक्ति आज के दिन सच्चे मन से व्रत और पूजा करता है तो उसे मनचाहा जीवनसाथी मिलता है. इस दिन नागदेवता की भी पूजा की जाती है.

कई जगहों पर इस तिथि को विवाह के लिए शुभ नहीं माना जाता है. मिथिला और नेपाल में लोग इस दिन कन्याओं का विवाह करने से बचते हैं. लोगों की ऐसी मान्यता है कि विवाह के बाद भगवान श्री राम और माता सीता दोनों को ही बड़े दुखों का सामना करना पड़ा था. इसी वजह से लोग विवाह पंचमी के दिन विवाह करना अच्छा नहीं मानते हैं.

 भगवान श्री राम और माता सीता के विवाह के बाद दोनों को वनवास भोगना पड़ा था. वनवास काल में भी कठिनाइयों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. जब दोनों रावण को हराकर अयोध्या लौटे तब भी उन्हें साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. शायद यही वजह है कि लोग इस तिथि को विवाह के लिए शुभ मुहूर्त नहीं मानते. 

कुछ जगहों पर मान्यताएं अलग हैं. कहा जाता है कि अगर विवाह होने में बाधा आ रही हो तो विवाह पंचमी पर ऐसी समस्या दूर हो जाती है. मनचाही शादी का वरदान भी मिलता है. वैवाहिक जीवन की परेशानियां भी खत्म होती हैं. भगवान राम और माता सीता की एक साथ पूजा करने से विवाह में आ रही बाधाएं नष्ट होती हैं. 

भगवान राम और सीता जी के विवाह प्रसंग का पाठ करना शुभ होता है. संपूर्ण रामचरित-मानस का पाठ करने से भी पारिवारिक जीवन सुखमय होता है. 

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Puja and Rituals | Tagged , , , | Leave a comment

एकादशी जन्म कथा : क्यों और कब हुआ एकादशी का जन्म और कैसे बनी मोक्ष देने वाली

एकादशी तिथि को उन विशेष तिथियों में स्थान प्राप्त है जिनके द्वारा व्यक्ति मोक्ष की गति को पाने में भी सक्षम होता है. एक माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी और कृष्ण पक्ष की एकादशी दोनों का ही विशेष महत्व रहा है. एकादशी को धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही पहलुओं से खास माना गया है जो शरीर के लिए उत्तम परिणाम देने वाली होती है. यह शरीर को शुद्ध करने और मन को पवित्र करने का साधन भी है. एकादशी का समय चंद्रमा की स्थिति के साथ बदलता रहता है.

अपनी जन्म कुंडली से जानें शनि दशा का प्रभाव https://astrobix.com/horoscope/saturnsadesati

एकादशी 11वीं तिथि को पड़ती है, चंद्र मास के शुक्ल पक्ष में, एकादशी के दिन चंद्रमा लगभग 75 प्रतिशत समय दिखाई देता है, जबकि चंद्र मास के कृष्ण पक्ष में, यह विपरीत होता है.आइये जानने की कोशिश करते हैं एकादशी जन्म कथा और मोक्ष प्राप्ति में महत्व.

एकादशी का जन्म कब हुआ 

एकादशी के जन्म कि कथा का वर्णन धर्म ग्रंथों से प्राप्त होता है. जिसमें उत्पन्ना एकादशी को एकादशी की उत्पति जन्म समय की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. यह कृष्ण पक्ष के दौरान मार्गशीर्ष महीने के ग्यारहवें दिन आती है. यह कार्तिक पूर्णिमा के बाद शुरू होने वाली पहली एकादशी है.  प्रत्येक एकादशी हिंदू कैलेंडर के अनुसार चंद्रमा की स्थिति और उनके बदलते समय से प्राप्त होती है. उत्तर भारत में, एकादशी मार्गशीर्ष में आती है जबकि दक्षिण भारत में यह कार्तिक महीने में मनाई जाती है. 

पद्म पुराण के चौदहवें अध्याय में इस एकादशी के जन्म का वर्णन मिलता है. एक बार महान ऋषि जैमिनी ऋषि ने अपने गुरु श्री व्यास जी देव से कहा कि हे गुरुदेव! मैं एकादशी के व्रत के लाभ और एकादशी के प्रकट होने की बात सुनना चाहता हूँ. ” कस्मद एकादशी जाता तस्याह को वा विधीर द्विज, कदा वा क्रियते किम वा फलम किम वा वदस्व मे, का वा पूज्यतामा तत्र देवता सद्गुणार्णव, अकुर्वताः स्यात् को दोष एतं मे वक्तुं अर्हसि” 

एकादशी का जन्म कब हुआ और वह किससे प्रकट हुई? एकादशी व्रत के क्या नियम हैं? कृपया इस व्रत के पालन से होने वाले लाभ तथा इसका पालन कब करना चाहिए, इसका वर्णन करें. श्री एकादशी के परम पूजनीय अधिष्ठाता कौन हैं? एकादशी का विधिपूर्वक पालन न करने से क्या दोष हैं? कृपया मुझे इन बातों के बारे में बताने की कृपा करें. 

जैमिनी जी को व्यास जी ने सुनाई एकादशी जन्म कथा

जैमिनी ऋषि की जिज्ञासा सुनकर व्यास जी ने कथा और महत्व के बारे में बताना शुरु किया. भौतिक सृष्टि के आरंभ में भगवान ने इस संसार में पांच स्थूल भौतिक तत्वों से बनी चर-अचर जीवों की रचना की. साथ ही मनुष्यों को दण्डित करने के उद्देश्य से उन्होंने एक ऐसे व्यक्तित्व की रचना की जिसका स्वरूप पाप का मूर्त रूप पापपुरुष था. इस व्यक्तित्व के विभिन्न अंग विभिन्न पाप कर्मों से निर्मित थे. 

उसका सिर ब्रह्महत्या के पाप से बना था, उसकी दोनों आंखें मादक द्रव्य पीने के पाप से बनी थीं, उसका मुख सोना चुराने के पाप से बना था, उसके कान गुरु की पत्नी के साथ अवैध संबंध बनाने के पाप से बने थे, उसकी नाक अपनी पत्नी की हत्या के पाप से बनी थी, उसकी भुजाएं गाय की हत्या के पाप से बनी थीं, उसकी गर्दन संचित धन की चोरी के पाप से बनी थी, उसकी छाती गर्भपात के पाप से बनी थी, उसकी छाती के निचले हिस्से में दूसरे की पत्नी के साथ संभोग करने के पाप से बनी थी.

उसके पेट में अपने रिश्तेदारों की हत्या के पाप से बनी थी, उसकी नाभि में अपने आश्रितों की हत्या के पाप से बनी थी, उसकी कमर में आत्म-मूल्यांकन के पाप से बनी थी, उसकी जांघों में गुरु को अपमानित करने के पाप से बनी थी, उसकी जननांग में अपनी बेटी को बेचने के पाप से बनी थी, उसके नितंबों में गोपनीय बातें बताने के पाप से बनी थी, उसके पैरों में अपने पिता की हत्या के पाप से बनी थी, और उसके बाल कम गंभीर पाप कर्मों के पाप से बने थे. इस प्रकार, सभी पाप कर्मों और दोषों से युक्त एक भयंकर व्यक्तित्व की रचना हुई. वह पापी व्यक्तियों को अत्यधिक कष्ट पहुंचाता था.

पाप पुरुष से मुक्ति के लिए एकादशी अवतरण 

पाप व्यक्तित्व को देखकर भगवान विष्णु मन ही मन इस प्रकार सोचने लगे मैं जीवों के दुख और सुख का निर्माता हूं मैं उनका स्वामी हूँ, क्योंकि मैंने ही इस पापी व्यक्तित्व की रचना की है, जो सभी बेईमान, धोखेबाज और पापी व्यक्तियों को कष्ट देता है. अब मुझे किसी ऐसे व्यक्ति की रचना करनी चाहिए जो इस व्यक्तित्व को नियंत्रित करे.’ इस समय श्री भगवान ने यमराज नामक व्यक्तित्व और विभिन्न नारकीय ग्रह प्रणालियों की रचना की. जो जीव बहुत पापी हैं, उन्हें मृत्यु के बाद यमराज के पास भेजा जाएगा, जो बदले में, उनके पापों के अनुसार, उन्हें पीड़ा सहने के लिए नारकीय क्षेत्र में भेज देंगे.

इन कामों के पश्चात, यमराज के पास गए. जब श्री विष्णु, सिंहासन पर बैठे उन्होंने दक्षिण दिशा से बहुत सी रोने की आवाज़ सुनी. वे इससे आश्चर्यचकित हो गए और इस प्रकार यमराज से पूछा, यह आवाज़ कहां से आ रही है. यमराज ने उत्तर में कहा हे देव पृथ्वी के जीव नरक लोकों में गिर गए हैं. वे अपने कुकर्मों के कारण अत्यधिक पीड़ा झेल रहे हैं. यह भयानक रोना उनके पिछले जन्मों के कष्टों के कारण है. यह सुनकर भगवान विष्णु दक्षिण दिशा में नारकीय क्षेत्र में जाते हैं ​​वहां के निवासियों को देख भगवान विष्णु का हृदय करुणा से भर गया. भगवान विष्णु ने मन ही मन सोचा, मैंने ही इन सभी संतानों को बनाया है और मेरे कारण ही ये कष्ट भोग रहे हैं.

पापों के नाश के लिए हुआ एकादशी का अवतरण 

भगवान ने तब अपने स्वयं के रूप से एकादशी के देवता को प्रकट किया. तब जीव एकादशी व्रत का पालन करने लगे और शीघ्र ही वैकुंठ धाम को प्राप्त हो गए. हे जैमिनी! इसलिए एकादशी  भगवान विष्णु और परमात्मा का ही स्वरूप है. श्री एकादशी परम पुण्य कर्म है और सभी व्रतों में प्रधान है. एकादशी के आने पर पापपुरुष भगवान विष्णु के पास गया और प्रार्थना करने लगा, जिससे भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और बोले, तुम क्या वरदान चाहते हो. पापपुरुष ने कहा मैं आपकी सन्तान हूं, और मेरे द्वारा ही आपने उन जीवों को कष्ट देना चाहा, जो अत्यन्त पापी हैं. 

अब श्री एकादशी के प्रभाव से मैं लगभग नष्ट हो चुका हूँ. हे प्रभु! मेरे मरने के पश्चात् आपके सभी अंश, जिन्होंने भौतिक शरीर धारण किया है, मुक्त हो जाएंगे और वैकुण्ठधाम को लौट जाएँगे. यदि सभी जीवों की यह मुक्ति हो गई, तो आपकी लीला कौन करेगा. हे केशव! यदि आप चाहते हैं कि ये शाश्वत लीलाएँ चलती रहें, तो आप मुझे एकादशी के भय से बचाएं. कोई भी प्रकार का पुण्य कार्य मुझे बांध नहीं सकता. किन्तु केवल एकादशी ही, जो आपका स्वयं का प्रकट रूप है, मुझे बाधा पहुंचा सकती है.अतः कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का निर्देश करें जहाँ मैं निर्भय होकर निवास कर सकूं.

भगवान विष्णु ने हंसते हुए पापपुरुष की स्थिति देखकर कहा ‘हे पापपुरुष! तीनों लोकों का कल्याण करने वाली एकादशी के दिन तुम अन्न रूपी भोजन का आश्रय ले सकते हो तब एकादशी के रूप में मेरा स्वरूप तुम्हें बाधा नहीं पहुंचाएगा. इसलिए जो लोग आत्मा के परम लाभ के बारे में गंभीर हैं, वे एकादशी तिथि को कभी अन्न नहीं खाएँगे. भगवान विष्णु के निर्देशानुसार, भौतिक जगत में पाए जाने वाले सभी प्रकार के पाप कर्म इस अन्न रूपी स्थान में निवास करते हैं. जो कोई एकादशी का पालन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और कभी भी नरक लोक में नहीं जाता है.

Posted in Ekadashi, Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Puja and Rituals | Tagged , , , | Leave a comment

मगसर अमावस्या : अर्थ, महत्व और लाभ

मगसर अमावस्या को मार्गशीर्ष माह के दौरान मनाया जाता है. यह अमवास्य तिथि हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष अर्थात मगसर महीने में नवंबर-दिसंबर के कृष्ण पक्ष में आती है, मगसर अमावस्या का दूसरा नाम अगहन अमावस्या है, मगसर को अग्रहायण, मगसर और अगहन भी कहा जाता है. इस दिन विश्णु पूजा, पितृ पूजा करने का विशेष लाभ मिलता है. इस दौरान गंगा स्नान भी करते हैं और कई तरह की वस्तुओं का दान भी किया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु और शिव की पूजा करते हैं,

मगसर अमावस्या और इसकी विशेषता

यह त्यौहार हिंदू धर्म और ज्योतिष में महत्वपूर्ण है, इस दिन, हम खुद को नकारात्मक ऊर्जाओं से शुद्ध करने के लिए विभिन्न पूजा अनुष्ठान करते हैं, जैसे भगवान शिव ने तांडव नृत्य किया था, तिल तर्पण और पिंड दान करने से हमारे पितृ मुक्ति पाते हैं, मगसर अमावस्या से जुड़ी लोगों की कई पौराणिक मान्यताएं और कथाएं ग्रंथों में मिलती हैं, कुछ के अनुसार इस दिन सृष्टि  के निर्माता भगवान ब्रह्मा का जन्म हुआ था.

भगवान शिव ने इस अमावस्या पर तांडव नृत्य किया था, इस दिन, भगवान विष्णु ने भगवान वामन का रूप धारण किया था, अमरता का अमृत पाने के लिए असुरों और देवताओं ने क्षीर सागर का मंथन किया, दूसरी कहानी भगवान कृष्ण के बारे में है, जो वृंदावन की गोपियों को किसी भी पवित्र नदी में डुबकी लगाने के लिए कहते हैं, अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे उन्हें प्राप्त कर सकते हैं,

मगसर अमावस्या स्नान दान लाभ 

मगसर अमावस्या पर लोगों को आवश्यक चीजें दान करने से अच्छे कर्म मिलते हैं, इस दिन की गई रुद्राभिषेक और महामृत्युंजय पूजा हमें खुशी, सकारात्मकता और समृद्धि ला सकती है, ज्योतिष इस त्यौहार को सूर्य और शनि शनि ग्रह से जोड़ता है. इस दिन सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए, इससे हमें सूर्य देव का आशीर्वाद और दिव्य गुण प्राप्त होते हैं सूर्य के शुभ प्रभाव कुंडली में बढ़ते हैं.  

इस दिन गंगा में स्नान करने से मन पवित्र होता है ओर कष्ट दूर होते हैं. मन और आत्मा पवित्र होते हैं. सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव मिलता है. इस दिन शनि पूजा करते हैं, शनि से संबंधित वस्तुओं का दान करते हैं तो इससे शनि ग्रह के अशुभ प्रभाव कम हो सकते हैं और आपको सौभाग्य प्राप्त हो सकता है,

मगसर पूजा पूजा विधि और लाभ 

मगसर अमावस्याके दिन कई तरह के विशेष पूजा अनुष्ठान किए जाते हैं. इस दिन व्रत रखते हैं, तो पानी में तिल डालना शुभ होता है. पवित्र नदी में स्नान करके प्रार्थना करनी चाहिए, भगवान विष्णु और शिव की पूजा करनी चाहिए, पितृ पूजा पवित्र नदी के तट पर की जानी चाहिए, यह हमारे पूर्वजों की मुक्ति के लिए किया जाता है, मगसर अमावस्या के दिन व्रत धारण करने वाले को पर कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए, बहुत आवश्यक होने पर फलाहार किया जा सकता है.  

मगसर अमावस्या को एक बहुत ही पवित्र समय माना गया है, अगर भक्त पूरी श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं, तो उन्हें आशीर्वाद मिलता है और इच्छाएं पूरी होती हैं, जो भक्त जीवन में मानसिक तनाव से अधिक परेशान रहते हैं उनके लिए मगसर अमावस्या का पूजन बहुत उत्तम फल देता है.  इस समय पर स्नान करने से आप ग्रहों के बुरे प्रभावों को खत्म कर सकते हैं, स्नान हमारे शरीर और आत्मा को विषाक्त पदार्थों से मुक्त करता है और हमारे स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, स्नान हमें चिंता और तनाव को कम करने और हमें शांत मन देने में मदद कर सकता है, इस स्नान से त्वचा संबंधी बीमारियों से बचा जा सकता है.

मगसर अमावस्या पूजा मंत्र 

मगसर अमावस्या के दिन कुछ मंत्रों के जाप से पूजा लाभ विशेष फल प्रदान करता है. इस समय पर मिलता है भक्तों को विशेष लाभ 

ॐ नम: शिवाय

ॐ कुल देवताभ्यो नमः

ॐ आपदामपहर्तारम दातारं सर्वसम्पदाम्,लोकाभिरामं श्री रामं भूयो-भूयो नामाम्यहम

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे, रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नम:! 

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्

ॐ ग्रह देवताभ्यो नमः। · ॐ लक्ष्मीपति देवताभ्यो नमः। · ॐ विघ्नविनाशक देवताभ्यो नमः

मगसर महीना और इसका महात्म्य 

मगसर महीना भगवान कृष्ण से संबंधित है, ऐसा माना जाता है कि यह महीना मगसर नक्षत्र से संबंधित है, मगसर नक्षत्र 27 नक्षत्रों में से एक है और इस महीने की पूर्णिमा इसी नक्षत्र से आती है, इसी कारण से इस महीने को मगसर माह के नाम से जाना जाता है, इस महीने को मगसर, अगहन और अग्रहायण के नाम से भी जाना जाता है. इस महीने में दान, स्नान आदि का बहुत महत्व है. भगवान कृष्ण ने गोपियों को इस महीने का महत्व बताते हुए कहा था कि इस महीने में यमुना नदी में स्नान करने से व्यक्ति अपने करीब आ जाता है, इसलिए इस महीने में नदी में स्नान करना बहुत पवित्र माना जाता है. 

मगसर अमावस्या में गंगा नदी में स्नान करना कार्तिक, माघ, वैशाख आदि अन्य महीनों की तरह ही पवित्र माना जाता है, मगसर अमावस्या के दिन भगवान शिव सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिए क्योंकि इससे सभी समस्याओं और पापों से मुक्ति मिलती है, उदयतिथि के दिन दान और पुण्य करने से व्यक्ति के सभी पापों से मुक्ति मिलती है, मान्यता है कि इस दिन ये काम करने से सामान्य दिनों की अपेक्षा कई गुना अधिक फल प्राप्त होते हैं, इसलिए मगसर को इतना विशेष माना गया है. 

Posted in Fast, Festivals, Hindu Maas, Muhurta, Puja and Rituals, Remedies | Tagged , , , , , , | Leave a comment

सुब्रहमन्य षष्ठी : सुब्रहमन्य षष्ठी कथा और पूजा महत्व

हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सुब्रहमन्य षष्ठी के नाम से मनाया जाता है. सुब्रहमन्य भगवान का पूजन इस दिन भक्ति भाव के साथ किया जाता है. शिव के दूसरे पुत्र को सुब्रहमन्य या कार्तिकेय नाम से जाना जाता है और इनके जन्म का दिन सुब्रहमन्य षष्ठी के रुप में मनाते हैं. दक्षिण भारत में इस दिन को विशेष धूमधाम से मनाया जाता है. 

सुब्रहमन्य भगवान के जन्म की कथा भी भक्तों को शुभ फल प्रदान करती है. कथाओं के अनुसार जब भगवान शिव की पत्नी सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ की अग्नि में कूदकर भस्म हो गईं, तो शिव विलाप करते हुए घोर तपस्या में लीन हो गए. ऐसा करने से सृष्टि शक्तिहीन हो गई. इस स्थिति को देखते हुए तारकासुर नामक राक्षस ने पूरी धरती पर आतंक फैला दिया. देवताओं को पराजय का सामना करना पड़ा. चारों ओर हाहाकार मच गया, तब सभी देवता ब्रह्मा से प्रार्थना करते हैं. तब ब्रह्मा कहते हैं कि शिव का पुत्र तारक का अंत करेगा.

पुराणों के अनुसार भगवान कार्तिकेय का जन्म षष्ठी तिथि को हुआ था, इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विशेष महत्व है. शिव के सबसे बड़े पुत्र कार्तिकेय को सुब्रमण्यम, मुरुगन और सुब्रहमन्य के नाम से भी जाना जाता है. कार्तिकेय की पूजा मुख्य रूप से दक्षिण भारत में की जाती है. अरब में यजीदी समुदाय भी उनकी पूजा करता है, वे उनके मुख्य देवता हैं. उन्होंने उत्तरी ध्रुव के पास के क्षेत्र उत्तर कुरु के विशेष क्षेत्र में सुब्रहमन्य नाम से शासन किया. सुब्रहमन्य पुराण का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है.

सुब्रहमन्य षष्ठी पूजा ग्रह शांत लाभ 

सुब्रहमन्य षष्ठी के दिन पूजा करने से कई तरह के पाप प्रभावों का नाश होता है. मंगल शांति से लेकर काल सर्पदोष शांति के लिए सुब्रहमन्य भगवान कि पूजा को बहुत विशेष माना गया है. ज्योतिष में मंगल देव के अधिपति के रुप में सुब्रहमन्य भगवान को स्थान प्राप्त है. भगवान का पूजन करने से मंगल दोष शांत होते हैं. वास्तु उपायों के लिए इस पूजा को उत्तम माना गया है. 

सुब्रहमन्य षष्ठी पूजा नियम

षष्ठी तिथि भगवान सुब्रहमन्य को समर्पित है. ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म इसी तिथि को हुआ था, इसलिए इस दिन को उनके जन्मदिन के रूप में भी मनाया जाता है. षष्ठी तिथि पर भक्त पूजा और व्रत रखते हैं. भगवान सुब्रहमन्य को अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे कार्तिकेय, मुरुगन और सुब्रमण्यम. यह पर्व मुख्य रूप से दक्षिण भारत में मनाया जाता है. दक्षिण भारत में इस पर्व को मनाने के लिए विशेष पूजा और रैलियां आयोजित की जाती हैं. भगवान सुब्रहमन्य को देवी पार्वती और भगवान शिव का पुत्र माना जाता है. भगवान सुब्रहमन्य को सभी देवताओं का सेनापति माना जाता है. 

सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत पौराणिक महत्व 

सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत और पूजा से जुड़े कई तथ्य हैं. धर्म सिंधु और निर्णय सिंधु ग्रंथों के अनुसार, यदि सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच के समय में पंचमी तिथि समाप्त हो रही हो या षष्ठी तिथि शुरू हो रही हो, तो यह दिन इस व्रत को करने के लिए शुभ माना जाता है. षष्ठी तिथि और पंचमी तिथि का मिलन सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत के लिए शुभ माना जाता है. इस दिन इस व्रत को करने का विधान बताया गया है. कभी-कभी सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत पंचमी तिथि को भी किया जाता है.

दक्षिण से भगवान सुब्रहमन्य का संबंध

यद्यपि भगवान सुब्रहमन्य की पूजा पूरे भारत में की जाती है, लेकिन दक्षिण भारत में उनका बहुत महत्व है. दक्षिण भारत में उन्हें अलग-अलग नामों से पूजा जाता है और उनके कई मंदिर भी हैं. दक्षिण भारत से उनके संबंध को बताने वाली एक बहुत ही प्रचलित कथा है. कथा के अनुसार एक बार भगवान सुब्रहमन्य अपनी माता देवी पार्वती, पिता भगवान शिव और भाई भगवान गणेश से नाराज हो गए थे. इसके बाद वे मल्लिकार्जुन चले गए. इस कारण दक्षिण भारत उनका मूल स्थान बन गया.  

सुब्रहमन्य षष्ठी कथा

भगवान सुब्रहमन्य के पीछे की कहानी इस प्रकार है:- तारकासुर नामक राक्षस को वरदान प्राप्त था कि उसे कोई नहीं मार सकता, केवल भगवान शिव का पुत्र ही उसे मार सकता है. इस वरदान का लाभ उठाकर उसने सभी पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. तारकासुर की शक्ति बढ़ती जा रही थी. उसने अपनी शक्ति का उपयोग सभी देवताओं को हराने और इंद्र का स्थान लेने के लिए किया. जब देवताओं को तारकासुर की योजना का पता चला, तो उन्होंने त्रिदेवों से सुरक्षा मांगी.

भगवान विष्णु ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया. इंद्र और अन्य देवता भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शंकर पार्वती के प्रेम की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ मुहूर्त में शिव और पार्वती का विवाह हो जाता है. इस तरह कार्तिकेय का जन्म होता है. कार्तिकेय तारकासुर का वध कर देवताओं को उनका स्थान दिलाते हैं. उन्होंने भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती से करवाया. 

दोनों अपनी ऊर्जा का उपयोग करते हैं और एक पुंज बनाते हैं. इस पुंज को अग्निदेव ले जाते हैं, लेकिन वे इसकी गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते और इसे गंगा में डाल देते हैं. गंगा भी इसकी गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाती. वे पुंज को लेकर श्रवण वन में रख देती हैं. इससे उस पुंज से एक बहुत ही सुंदर बालक का जन्म होता है. छह कृतिकाएं उस बालक को देख लेती हैं और उसे गोद ले लेती हैं. इस प्रकार बालक का नाम कार्तिकेय रखा जाता है.

सुब्रहमन्य भगवान को देवताओं का सेनापति बनाया जाता है. इसके बाद वे तारकासुर पर आक्रमण करते हैं और उसे पराजित करते हैं. तारकासुर की मृत्यु से फिर से शांति आती है. देवताओं को भी राहत मिलती है.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Puja and Rituals | Tagged , , , , , | Leave a comment

अगहन एकादशी : मार्गशीर्ष माह की विशेष एकादशी

अगहन माह एकादशी

अगहन माह में आने वाली एकादशी तिथि को बहुत ही शुभ और खास माना गया है. चतुर्मास में हर प्रबोधनी के पश्चात आने वाली ये एकादशी श्री हरि पूजन और एकादशी के जन्म को दर्शाती है. अगहन माह में आने वाली पहली एकादशी तिथि को एकादशी जन्म से भी संबंधित माना गया है. उत्पन्ना एकादशी का व्रत अगहन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है.  इस व्रत का परम फल मोक्ष बताया गया है. इस दिन एकादशी का जन्म भी हुआ था इसी कारण इसे उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजा जाता है. 

अगहन माह में आने वाली दूसरी एकादशी को मोक्षदा एकादशी के नाम से जाना गया है. इस एकादशी का समय अगहन माह के शुक्ल पक्ष में होता है. अपने नाम के अनुसार ये एकादशी मोक्ष का फल प्रदान करती है.  जहां एक एकादशी उत्पन्न होती है वहीं दूसरी एकादशी मोक्ष की प्राप्ति को दर्शाती है. दोनों एकादशियों का प्रभाव जीवन को श्रेष्ठ परिणाम देने वाला होता है. 

अगहन एकादशी धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व  

अगहन माह में आने वाली एकादशी का व्रत करने मात्र से व्यक्ति को पुण्य फलों की प्राप्ति होती है. जीवन के सभी शुभ फल मिल जाते हैं. एकादशी के समय पर ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल इस एकादशी के पुण्य के दसवें भाग के बराबर होता है. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. व्रत करने वाले व्यक्ति को दशमी की रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए. एकादशी के दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में भगवान की पुष्प, दीप, धूपबत्ती और अक्षत से पूजा की जाती है. एकादशी का व्रत करने वाले मनुष्य को सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं तथा मृत्यु के पश्चात भगवान विष्णु की शरण मिलती है.

एकादशी के दिन प्रातःकाल उठकर स्नान आदि नित्य कर्म करने चाहिए. स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की दीप, धूप, नैवेद्य आदि से पूजा करनी चाहिए. रात्रि में दीपदान करना चाहिए. यह कार्य पूर्ण श्रद्धा से करना चाहिए. एकादशी की रात्रि में निद्रा का त्याग किया जाता है. एकादशी की रात्रि में भजन, कीर्तन या जागरण किया जाता है. एकादशी के दिन ब्राह्मणों को दान दिया जाता है तथा भूलों के लिए क्षमा मांगी जाती है. यदि संभव हो तो इस मास के दोनों पक्षों में एकादशी का व्रत करना चाहिए जिसके द्वारा आध्यात्मिक और धार्मिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त होता है.

अगहन उत्पन्ना एकादशी कथा

उत्पन्ना एकादशी व्रत प्राचीन काल में एक भयंकर राक्षस हुआ करता था. उसका नाम मुर था. उसने इंद्र आदि देवताओं को जीतकर उनके स्थान से नीचे गिरा दिया था. तब इन्द्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे मुर के अत्याचारों से उन्हें बचाएं तथा मृत्यु लोक में अपना जीवन व्यतीत करें. यह सुनकर भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे उस राक्षस को मारकर उनके प्राण बचाएंगे. भगवान विष्णु उनके साथ चल दिए, राक्षसों ने भगवान विष्णु पर अस्त्र-शस्त्र चलाना शुरू कर दिया. भगवान विष्णु का मुर के साथ कई वर्षों तक युद्ध चलता रहा, परंतु मुर को पराजित नहीं किया जा सका.

अंत में भगवान विष्णु विश्राम करने के लिए बद्रीकाश्रम की एक गहरी गुफा में चले गए. मुर भी भगवान विष्णु को मारने के लिए वहां पहुंच गया. उस समय गुफा में एक सुंदर कन्या प्रकट हुई तथा मुर से युद्ध करने लगी. उसने उसे धक्का देकर अचेत कर दिया. तथा उसका सिर काट दिया. जब भगवान विष्णु की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि किसी ने राक्षस को मार डाला है. कन्या ने बताया कि राक्षस तुम्हें मारने आ रहा था, इसलिए मैं तुम्हारे शरीर से उत्पन्न हुई तथा उसे मार डाला. भगवान विष्णु ने उसका नाम एकादशी रखा क्योंकि उसका जन्म एकादशी के दिन हुआ था.

अगहन मोक्ष एकादशी कथा

वैखानस नामक राजा ने जब अपने पितरों को कष्ट में देखा तो वह व्याकुल हो गया. वह ब्राह्मण के पास पहुंचा और स्वप्न सुनाया, उसने कहा कि पिता और पितरों  की यह दशा देखकर उसे सभी सुख-सुविधाएं व्यर्थ लगने लगी हैं. तब ब्राह्मण ने उसे पर्वत नामक मुनि के बारे में बताया, जो भूत और भविष्य के बारे में जानते थे. उन्होंने राजा को मुनि से समाधान पाने का सुझाव दिया.

राजा मुनि के आश्रम पहुंचे, मुनि ने उन्हें बताया कि उनके पिता ने पिछले जन्म में कुछ गलत काम किए थे, इसलिए वे मृत्यु के बाद नरक में गए. यह सुनकर राजा ने मुनि से अपने पिता के उद्धार का उपाय बताने की प्रार्थना की. मुनि ने उसे अगहन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने को कहा, और राजा ने इस व्रत को भक्ति भाव के साथ किया एकादशी व्रत के पुण्य से राजा के पिता और पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति संभव हो जाती है. 

अगहन एकादशी लाभ 

इस माह में आने वाली एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के कई तरह के पाप दूर होते हैं. . मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण ने महाभारत के आरंभ होने से पहले अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था. इस एकादशी पर भगवान कृष्ण और गीता की पूजा करने से शुभ फल प्राप्त होते हैं. ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जाती है. इस दिन धूप-दीप, नैवेद्य आदि से भगवान दामोदर की पूजा की जाती है. मोक्ष एकादशी पूजा व्रत रखने वाले व्यक्ति को स्नान करने के बाद मंदिर में जाकर पूजा करनी चाहिए. भगवान के सामने व्रत का संकल्प लेते हुए मंदिर या घर पर ही विष्णु पाठ करना चाहिए. द्वादशी (एकादशी के एक दिन बाद) को ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देने के बाद व्रत का समापन किया जाता है. व्रत की रात्रि में जागरण करने से व्रत से प्राप्त होने वाले पुण्यों में वृद्धि होती है. मोक्षदा एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के पूर्वज, जो मृत्यु के पश्चात नरक में निवास कर रहे थे, स्वर्ग को प्राप्त होते हैं.

Posted in Ekadashi, Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Puja and Rituals | Tagged , , , | Leave a comment

अगहन अमावस्या : साल की सबसे खास अमावस्या

अगहन मास भक्ति और समर्पण से भरा होता है. ऎसे में इस माह में आने वाली अमावस्या को अगहन अमावस्या के नाम से जाना जाता है. साल भर में आने वाली सभी अमावस्या में से विशेष यह अगहन अमावस्या काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है. अगहन अमावस्या के समय पर श्री विष्णु पूजन किया जाता है और साथ में पितरों को याद करते हैं. चातुर्मास के बाद आने वाली इस अमावस्या को पितरों के लिए विशेष माना जाता है. 

इस वर्ष अगमन अमावस्या कब है?

इस साल अगहन अमावस्या 01 दिसंबर 2024 के दिन मनाई जाएगी. अगहन माह समय पर भगवान श्री कृष्ण पूजन का बहुत महत्व माना गया है. इस महीने में धार्मिक स्थलों पर जाना और तर्पण करना शुभ माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि इस महीने में पितृ पूजा करने से पितरों की आत्मा को शांति और मोक्ष मिलता है. जो लोग श्राद्ध नहीं कर पाए हैं वे इस महीने की अमावस्या पर मृत पितरों की मुक्ति के लिए तर्पण कर सकते हैं.

अगहन अमावस्या पितरों का विशेष समय 

अमावस्या के दिन पितरों को भोजन कराकर उन्हें प्रसन्न करना बहुत महत्वपूर्ण होता है. धर्म ग्रंथों शास्त्रों के अनुसार, यह अगहन महीना पूरी तरह से भगवान कृष्ण को समर्पित है. धर्म गीता में उल्लेख है कि भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि वह अन्य सभी महीनों में से अगहन माह है. सतयुग में देवता अगहन माह के पहले दिन को वर्ष का आरंभ मानते थे.

इस पवित्र महीने में लोगों को गंगा, यमुना और अन्य पवित्र नदियों में स्नान करना चाहिए.   ऐसा माना जाता है कि जिन लोगों की कुंडली में पितृ दोष होता है, उन्हें इस विशेष दिन पितृ तर्पण अवश्य करना चाहिए और अगहन अमावस्या पर पितृ पूजा भी की जाती है. कुछ लोग पिंडदान भी करते हैं, जिससे पितरों को मुक्ति और शांति मिलती है.

अगहन अमावस्या स्नान दान महिमा

अगहन अमावस्या के दौरान स्नान दान की विशेष महिमा मानी गई है. इस समय भक्त भजन और कीर्तन जैसे धार्मिक कार्यों को करते हैं. इस महीने को मगसर और अगहन के नाम से भी जाना जाता है. इस माह में नदियों में स्नान करना चाहिए तथा दान करना विशेष होता है. शुभ फल प्रदान करता है.

इस समय पर तुलसी के पौधे की जड़ में जल अर्पित करना चाहिए. स्नान करते समय नारायणाय मंत्र या गायत्री मंत्र का जाप करना शुभस्थ होता है. इस पूरे माह में भक्त भजन, कीर्तन आदि करने की महिमा है. इस माह में सुबह-सुबह धर्म नगरियों में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है. अगहन अमावस्या का महत्व कार्तिक, माघ, वैशाख आदि अन्य महीनों की तरह इस माह में भी गंगा नदी में स्नान करना पवित्र माना जाता है. 

अगहन अमावस्या पूजा नियम

अगहन अमावस्या के नियम काफी विशेष होता है. अगहन अमावस्या के दिन सुबह जल्दी उठ कर सूर्य नमस्कार और पवित्र स्नान करते हैं. इस दिन दीया जलाते हें और दीप दान किया जाता है. पितरों की पूजा करते हैं. ब्राह्मण या पुजारी को सात्विक भोजन अर्पित करते हैं. पुजारी या ब्राह्मण के माध्यम से पितृ तर्पण करवाया जाता है. इस दिन कई लोग पवित्र स्नान करने के लिए गंगा, यमुना, शिप्रा, नर्मदा या किसी अन्य पवित्र नदी में स्नान कर सकते हैं. गरीब लोगों को भोजन, कपड़े और दक्षिणा दान करते हैं.  

प्राचीन शास्त्रों के अनुसार, सर्वशक्तिमान ईश्वर से पहले मृत पितरों को प्रसन्न करना बहुत महत्वपूर्ण है. जिन लोगों की कुंडली में पितृ दोष है, संतान सुख से वंचित हैं या नवम भाव में राहु नीच का है, उन्हें इस अमावस्या पर व्रत अवश्य रखना चाहिए. इस व्रत को पूरा करने से मनोवांछित फल मिलता है.

विष्णु पुराण के अनुसार इस व्रत को करने से सभी देवता ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, पक्षी, पशु, दुष्टों के साथ-साथ मृत पितरों को भी प्रसन्न किया जा सकता है. इस माह में भगवान कृष्ण का विशेष महत्व है. भगवद् गीता में भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि वे सभी महीनों में अगहन माह हैं. सतयुग में देवगण अगहन माह के प्रथम दिन को वर्ष का आरंभ मानते थे. 

अगहन अमावस्या और मृगशिरा नक्षत्र विशेष 

अगहन अमावस्या समय पर किए गए धार्मिक कार्यों का बहुत महत्व माना जाता है. अगहन अमावस्या पर श्री कृष्ण, चंद्र देव, सूर्य देव की पूजा करनी चाहिए क्योंकि इससे सभी समस्याओं और पापों से मुक्ति मिलती है. अगहन मास की अमावस्या में दान-पुण्य का विशेष महत्व माना जाता है. व्रतियों को इस दिन भगवान हरि की पूजा करनी चाहिए, अमावस्या कथा का पाठ करने से सुखद फल की प्राप्ति होती है. अगहन मास अगहन मास की शुरुआत भगवान कृष्ण की भक्ति में मनाई जाती है. इस महीने का संबंध मृगशिरा नक्षत्र से है. 

इस महीने की पूर्णिमा तिथि मृगशिरा नक्षत्र से शुरू होती है. यही कारण है कि इस महीने को अगहन मास के नाम से जाना जाता है. इस महीने को मगसर, अगहन और अग्रहायण के नाम से भी जाना जाता है. इस महीने में दान, स्नान आदि का बहुत महत्व है. भगवान कृष्ण ने गोपियों को इस महीने का महत्व बताते हुए कहा था कि इस महीने में यमुना नदी में स्नान करने से व्यक्ति उनके करीब हो जाता है. इसलिए इस महीने में नदी में स्नान करना अत्यंत पवित्र माना जाता है.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals | Tagged , , , , , , | Leave a comment

गणाधिप संकष्टी चतुर्थी पूजा विधि

मार्गशीर्ष माह में आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का दिन गणाधिप संकष्टी चतुर्थी के रुप में पूजा जाता है. इस दिन भगवान श्री गणेश जी का पूजन विधि विधान के साथ करते हैं. भक्त इस दिन व्रत रखते हैं और गणेश जी की पूजा वंदना करते हैं. कृष्ण पक्ष की चतुर्थी गणेश पूजन का विशेष समय होता है.

हिंदू पंचांग के अनुसार गणेश चतुर्थी के दिन भगवान का जन्म हुआ था जो भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाई जाती है मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान गणेश का जन्म हुआ था. इस कारण से हर माह आने वाली चतुर्थी खास होती है. इस शुभ दिन बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य के देवता भगवान गणेश की विधिवत पूजा की जाती है. 

गणाधिप संकष्टी चतुर्थी पूजा विधि 

गणाधिप संकष्टी चतुर्थी के दिन स्नान के बाद भगवान गणेश जी का पूजन किया जाता है. भगवान के पूजन में भगवान को सिंदूर, चंदन, यज्ञोपवीत, दूर्वा, लड्डू या गुड़ से बनी मिठाई का भोग लगाकर धूप-दीप से आरती करने का विशेष महत्व है. भगवान गणेश स्वयं शुभता और ऋद्धि-सिद्धि के दाता हैं. भगवान सभी भक्तों के विघ्न, संकट, रोग, दोष और दरिद्रता को दूर करते हैं.

शास्त्रों के अनुसार माना जाता है कि गणेश चतुर्थी श्री गणेश जी की विशेष पूजा का दिन है. भगवान गणेश बुध ग्रह के भी अधिपति हैं. इस दिन विधि-विधान से भगवान गणेश की पूजा करने से नवग्रह दोष से मुक्ति मिलती है. गणेश जी की विभिन्न प्रकार की पूजा से कई प्रकार के ग्रह दोषों का निवारण किया जा सकता है. ग्रहों के दोषों का निवारण भी गणेश पूजा से किया जा सकता है.

शास्त्रों के अनुसार भगवान श्री गणेश की विशेष पूजा के लिए गणेश चतुर्थी सबसे उपयुक्त दिन है. मान्यताओं के अनुसार गणेश चतुर्थी पर गणेश जी की पूजा और उपाय करने से हर समस्या का समाधान हो जाता है. साधक की सभी परेशानियां दूर होती हैं. गणेश चतुर्थी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करके भगवान श्री गणेश को दूर्वा की ग्यारह या इक्कीस गांठें अर्पित करना शुभ होता है.

गणेश चतुर्थी के दिन गणेश जी को सिंदूर, चंदन, यज्ञोपवीत, दूर्वा अर्पित करें और मोदक अर्पित करना चाहिए. गणेश चतुर्थी के दिन धूप-दीप से भगवान गणेश की आरती करने से भी पापों से मुक्ति मिलती है. जीवन के कष्टों एवं समस्या से मुक्ति पाने के लिए गणेश चतुर्थी के दिन भगवान गणेश की विशेष पूजा करनी चाहिए. मान्यता है कि गणेश जी के स्त्रोत, मंत्र एवं चालीसा का पाठ करने से साधक को कई लाभ मिलते हैं.  

श्री गणेश चालीसा

जय गणपति सद्गुण सदन कविवर बदन कृपाल।

विघ्न हरण मंगल करण जय जय गिरिजालाल॥

जय जय जय गणपति राजू। मंगल भरण करण शुभ काजू॥

जय गजबदन सदन सुखदाता।विश्व विनायक बुद्धि विधाता॥

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन।तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥

राजित मणि मुक्तन उर माला।स्वर्ण मुकुट सिर नयन विशाला॥

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं।मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥

सुन्दर पीताम्बर तन साजित।चरण पादुका मुनि मन राजित॥

धनि शिवसुवन षडानन भ्राता।गौरी ललन विश्व-विधाता॥

ऋद्धि—सिद्धि तव चँवर डुलावे।मूषक वाहन सोहत द्वारे॥

कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी।अति शुचि पावन मंगल कारी॥

एक समय गिरिराज कुमारी।पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी॥

भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा।तब पहुंच्यो तुम धरि द्विज रूपा।

अतिथि जानि कै गौरी सुखारी।बहु विधि सेवा करी तुम्हारी॥

अति प्रसन्न ह्वै तुम वर दीन्हा।मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥

मिलहि पुत्र तुहि बुद्धि विशाला।बिना गर्भ धारण यहि काला॥

गणनायक गुण ज्ञान निधाना।पूजित प्रथम रूप भगवाना॥

अस कहि अन्तर्धान रूप ह्वै। पलना पर बालक स्वरूप ह्वै॥

बनि शिशु रुदन जबहि तुम ठाना।लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना॥

सकल मगन सुख मंगल गावहिं।नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं॥

शम्भु उमा बहुदान लुटावहिं।सुर मुनि जन सुत देखन आवहिं॥

लखि अति आनन्द मंगल साजा।देखन भी आए शनि राजा॥

निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं।बालक देखन चाहत नाहीं॥

गिरजा कछु मन भेद बढ़ायो।उत्सव मोर न शनि तुहि भायो॥

कहन लगे शनि मन सकुचाई।का करिहौ शिशु मोहि दिखाई॥

नहिं विश्वास उमा कर भयऊ।शनि सों बालक देखन कहऊ॥

पड़तहिं शनि दृग कोण प्रकाशा।बालक शिर उड़ि गयो आकाशा॥

गिरजा गिरीं विकल ह्वै धरणी।सो दुख दशा गयो नहिं वरणी॥

हाहाकार मच्यो कैलाशा।शनि कीन्ह्यों लखि सुत को नाशा॥

तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधाए।काटि चक्र सो गज सिर लाए॥

बालक के धड़ ऊपर धारयो।प्राण मन्त्र पढ़ शंकर डारयो॥

नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे।प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हे॥

बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा।पृथ्वी की प्रदक्षिणा लीन्हा॥

चले षडानन भरमि भुलाई।रची बैठ तुम बुद्धि उपाई॥

चरण मातु-पितु के धर लीन्हें।तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥

धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे।नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥

तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई।शेष सहस मुख सकै न गाई॥

मैं मति हीन मलीन दुखारी।करहुं कौन बिधि विनय तुम्हारी॥

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा।लख प्रयाग ककरा दुर्वासा॥

अब प्रभु दया दीन पर कीजै।अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै॥

दोहा

श्री गणेश यह चालीसा पाठ करें धर ध्यान।

नित नव मंगल गृह बसै लहे जगत सन्मान॥

सम्वत् अपन सहस्र दश ऋषि पंचमी दिनेश।

पूरण चालीसा भयो मंगल मूर्ति गणेश॥

गणाधिप संकष्टी चतुर्थी पूजा लाभ 

मार्गशीर्ष माह में आने वाली गणाधिप संकष्टी चतुर्थी बहुत ही शुभ फल प्रदान करती है. गणेश जी की पूजा के लिए गणेश चतुर्थी का दिन शुभ माना जाता है. कठिन और विपरीत परिस्थितियों पर विजय प्राप्त होती है. भगवान गणेश की पूजा से सुख, वैभव, शांति और समृद्धि प्राप्त की जा सकती है. किसी भी काम की सफलता में आ रही है बाधा, गणेश पूजा से दूर होती है. गणेश जी की पूजा से करें बुध ग्रह की शांति होती है. गणेश जी को दूर्वा अर्पित करने से कार्यों में आ रही रुकावटें खत्म होती है.संकष्टी चतुर्थी का व्रत करने से चंद्रमा के शुभ फल मिलते हैं. गणेश जी के मंत्रों का जाप करने से भी शनि दोष से पीड़ित व्यक्ति को राहत मिलती है

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals, Stotra | Tagged , , , , | Leave a comment

त्रिपुरारी पूर्णिमा : जानें त्रिपुरारी पूर्णिमा कथा और महत्व

त्रिपुरारी पूर्णिमा एक ऐसा त्यौहार है जो हिंदुओं, सिखों और जैनियों द्वारा की पूर्णिमा पर मनाया जाता है. यह उत्सव मनाने वालों के लिए साल का सबसे पवित्र महीना है. त्रिपुरी पूर्णिमा को बहुत से नामों के रुप में मनाया जाता है जिसमें से एक है कार्तिक पूर्णिमा. वैसे त्रिपुरारी पूर्णिमा  जाने वाला यह त्यौहार भगवान शिव की राक्षस त्रिपुरासर पर जीत का उत्सव है. यह त्यौहार भगवान विष्णु के सम्मान में भी मनाया जाता है. इस दिन उन्होंने मत्स्य के रूप में अवतार लिया था, जो उनका पहला अवतार है.

त्रिपुरारी पूर्णिमा मुहूर्त 2024

मान्यताओं के अनुसार इस शुभ दिन पर देवता पवित्र नदियों में स्नान हेतु धरती पर उतरे हैं. यही कारण है कि त्रिपुरारी पूर्णिमा के दौरान भक्त पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और मानते हैं कि उन्हें देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस साल त्रिपुरारी पूर्णिमा 15 नवंबर 2024, शुक्रवार को पड़ रही है. इस त्यौहार का महत्व तब और बढ़ जाता है जब यह नक्षत्र कृतिका में पड़ता है. इस समय इसे महात्रिपुरारी कहा जाता है.

त्रिपुरारी पूर्णिमा पांच दिवसीय त्यौहार

त्रिपुरारी पूर्णिमा पांच दिवसीय त्यौहार है. प्रबोधनी एकादशी से ही मुख्य उत्सव शुरू होता है. यह पृथ्वी पर अवतरित देवताओं के आगमन का प्रतीक है. यह चतुर्मास के अंत का भी प्रतीक है, जो चार महीने की अवधि है जब भगवान विष्णु सो रहे थे. हिंदू शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन एकादशी और पंद्रहवें दिन पूर्णिमा मनाते हैं. 

त्रिपुरारी पूर्णिमा त्यौहार के दौरान भक्त कई रीति-रिवाजों का पालन करते हैं. हिंदू शास्त्रों के अनुसार, इस दिन सभी भक्तों को गंगा या किसी अन्य पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए. भगवान विष्णु की विजय का उत्सव मनाने के लिए दीये भी जलाते हैं. माना जाता है कि भगवान वनवास खत्म होने के बाद वे अपने निवास पर वापस आ गए थे. 

इस दिन भक्त कई तरह की झाकियां भी निकालते हैं जिसमें भगवान शिव और श्री विष्णु जी की मूर्तियों को लेकर चलते हैं. मंदिरों में, सभी देवताओं को प्रसाद चढ़ाया जाता है. भक्त सूर्योदय या चंद्रोदय के समय पवित्र नदियों के किनारे भी इकट्ठा होते हैं और भगवान शिव की पूजा करते हैं. इसके बाद भक्त भंडारा और अन्न दान नामक अनुष्ठानों में भाग लेते हैं. यह आने वाले वर्ष में संपत्ति और समृद्धि प्राप्त करने के लिए किया जाता है.

त्रिपुरारी पूर्णिमा कथा

त्रिपुरोत्सव से जुड़ी एक बहुत ही प्रचलित पौराणिक कथा है. इस दिन यह कथा अवश्य सुननी चाहिए. एक बार त्रिपुर नामक एक बहुत शक्तिशाली राक्षस था. उस राक्षस ने देवताओं को जीतने के लिए कठोर तपस्या की. उसकी तपस्या इतनी प्रबल थी कि उसके तप से तिलक जलने लगे. कोई भी उसके सामने खड़ा नहीं हो सकता था, युद्ध करना तो दूर की बात है. उसकी कठोर तपस्या की चर्चा पूरे नगर में होने लगी और त्रिलोक पर देवताओं की शक्ति डगमगाने लगी. 

त्रिपुर की कठोर तपस्या को समाप्त करने के लिए देवताओं ने अनेक प्रयास किए. देवताओं ने त्रिपुर को विचलित करने और उसे माया में फंसाने के लिए अप्सराएं भेजीं. लेकिन राक्षस अत्यंत एकाग्र था और कोई भी उसे रोक नहीं सका. राक्षस की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उसके सामने प्रकट हुए. ब्रह्मा जी ने राक्षस से वरदान मांगने को कहा. राक्षस ने ब्रह्मा से वरदान के रूप में अमरता मांगी. ब्रह्मा जी ने राक्षस से कहा कि अमरता देना संभव नहीं है, क्योंकि इस संसार में जो भी जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है. 

यह सुनकर राक्षस ने दूसरा वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु देवताओं, पुरुष, स्त्री या किसी अन्य व्यक्ति के हाथों न हो. ब्रह्मा जी राक्षस को यह वरदान दे देते हैं. मनचाहा वरदान मांग लेने के बाद राक्षस त्रिपुर बहुत अहंकारी हो जाता है और सभी पर हुक्म चलाने लगता है. वह यह मानने लगता है कि वह अजेय है. वह देवताओं को देवलोक से बाहर निकाल देता है और देवलोक पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है. त्रिपुर अपनी शक्ति से देवताओं और मनुष्यों पर हावी होने लगता है और सभी को परेशान करने लगता है. 

भगवान शिव ने किया त्रिपुरासर का अंत 

त्रिपुरासर के अत्याचारों से हर जगह अराजकता और निराशा फैल जाती है. अंत में देवता ब्रह्माजी के पास पहुंचते हैं और उनसे त्रिपुर से उन्हें बचाने के लिए कहते हैं. ब्रह्मा जी देवताओं को बताते हैं कि कोई भी देवता या मनुष्य उन्हें नहीं मार सकता, उनका विनाश केवल भगवान शिव ही कर सकते हैं. इसके बाद देवता भगवान महादेव के पास जाते हैं. वे उनसे प्रार्थना करते हैं और उनसे त्रिपुर राक्षस के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए कहते हैं. 

भगवान शिव त्रिपुर राक्षस का वध करते हैं जिससे देवताओं और मनुष्यों का कल्याण होता है. राक्षस की मृत्यु से शांति और सुख की प्राप्ति होती है. इस अवसर पर देवों और दानवों ने भगवान शिव की जीत को चिह्नित करने के लिए दीप जलाए. इस जीत का जश्न मनाने के लिए आज भी त्रिपोर्त्सव का त्योहार मनाया जाता है. त्रिपुरोत्सव: भगवान शिव की पूजा त्रिपोत्सव के दिन भगवान शिव की विशेष पूजा की जाती है. जिस तरह भगवान शिव की पूजा की जाती है, उसी तरह त्रिपुरोत्सव के दिन भगवान शिव की पूजा की जाती है.

शिव ने एक ही बाण से राक्षस का वध कर दिया था, उसी तरह वे एक ही वार में सभी के दुख दूर कर देते हैं. शिव की पूजा से सभी तरह के रोग, दुख और पीड़ा दूर हो जाती है. इस दिन चंद्रोदय के समय दीपक जलाकर भगवान शिव की पूजा करने से भी जीवन में आने वाली परेशानियां दूर होती हैं. उसी रोशनी से जीवन रोशन होता है.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Rituals, Puja and Rituals | Leave a comment

बैकुंठ चौदस : जानें चतुर्दशी स्त्रोत और पूजा महत्व

बैकुंठ चतुर्दशी आरती

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को बैकुंठ चौदस के रुप में मनाया जाता है. चतुर्दशी तिथि का ये समय बहुत ही विशेष होता है. वैकुंठ चौदस के दिन  के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष 2024 में यह पर्व 14 नवंबर को मनाया जाएगा. वैकुंठ चौदस के दिन भगवान श्री हरि का वास और उनका कार्यभार आरंभ होता है और मान्यताओं के अनुसार इस दिन किया गया पूजन भक्त को श्री हरि के धाम का सुख प्रदान करता है. वैकुंठ की प्राप्ति होती है. 

बैकुंठ चौदस व्रत को संपन्न करने के लिए भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा की जाती है. इस दिन को बैकुंठ चौदस के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन भक्त व्रत रखते हैं. यह व्रत कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी के दिन रखा जाता है. इस दिन भगवान शिव और भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. व्रत रखा जाता है जो अगले दिन भोर के समय समाप्त होता है.

श्री विष्णु और भगवान शिव पूजन 

कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी भगवान शिव और भगवान विष्णु पूजन का विशेष शुभ समय होता है. मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु ने शपथ ली थी कि वह काशी में भगवान शिव को एक हजार कमल के फूल चढ़ाएंगे. भगवान शिव ने फूलों की संख्या में एक की कमी करके भगवान विष्णु की परीक्षा ली. तब भगवान विष्णु ने फूल के स्थान पर अपनी एक आंख अर्पित करने के लिए तैयार हो गए.

भगवान शिव प्रभावित हुए और उनके सामने प्रकट हुए. तब भगवान शिव ने कहा कि कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को कार्तिक बैकुंठ चौदस के नाम से जाना जाएगा. भगवान शिव ने इसी दिन भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र अर्पित किया था. इस दिन भगवान विष्णु और भगवान शिव ने कहा था कि स्वर्ग के द्वार खुल जाएंगे. इस दिन व्रत रखने वाला व्यक्ति स्वर्ग में अपना स्थान सुरक्षित कर सकता है.

वैकुंठ चौदस और पौराणिक महत्व 

बैकुंठ चौदस को लेकर ग्रंथों में विशेष उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार एक बार नारद मुनि पृथ्वी पर विचरण करते हुए बैकुंठ धाम पहुंचे. भगवान विष्णु ने उन्हें बैठने के लिए कहा और फिर उनके आने का कारण पूछा. नारद मुनि ने कहा कि उन्हें ऐसा लग रहा है कि जैसे आम लोग भगवान विष्णु के आशीर्वाद से वंचित रह गए हैं और केवल उनकी नियमित पूजा करने वाले लोग ही धन्य हो रहे हैं. 

भगवान विष्णु ने उत्तर दिया कि जो कोई भी व्यक्ति वैकुंठ चौदस के दिन उनकी पूजा करेगा, उसे भगवान का आशीर्वाद प्राप्त होगा और वह स्वर्ग जाएगा. वैकुंठ चौदस के दिन व्रत रखने का हिंदू संस्कृति में विशेष महत्व है. इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए. फिर साफ कपड़े पहनने चाहिए. भगवान विष्णु की पूजा फूल, दीप, चंदन से करनी चाहिए. एक प्राचीन मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु ने शपथ ली थी कि वे काशी में भगवान शिव को एक हजार कमल के फूल चढ़ाएंगे. जो व्यक्ति भगवान को दीप जलाता है और प्रभु को कमल के फूल चढ़ाता है, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है और मृत्यु के बाद वह बैकुंठ धाम जाता है. 

बैकुंठ चतुर्दशी स्त्रोत आरती 

श्री विष्णु मंत्र

मङ्गलम् भगवान विष्णुः, मङ्गलम् गरुणध्वजः। 

मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः, मङ्गलाय तनो हरिः।।

भगवान विष्णु की स्तुति

शान्ताकारं भुजंगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्ण शुभांगम् ।

लक्ष्मीकांत कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्व लौकेक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणैन्द्रु रुद्रमरुत: स्तुन्वानि दिव्यै स्तवैवेदे: ।

सांग पदक्रमोपनिषदै गार्यन्ति यं सामगा: ।

ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यति यं योगिनो

यस्यातं न विदु: सुरासुरगणा दैवाय तस्मै नम: ॥

॥नारायण स्तोत्र॥

नारायण नारायण जय गोपाल हरे॥

करुणापारावारा वरुणालयगम्भीरा ॥

घननीरदसंकाशा कृतकलिकल्मषनाशा॥

यमुनातीरविहारा धृतकौस्तुभमणिहारा ॥

पीताम्बरपरिधाना सुरकल्याणनिधाना॥

मंजुलगुंजा गुं भूषा मायामानुषवेषा॥

राधाऽधरमधुरसिका रजनीकरकुलतिलका॥

मुरलीगानविनोदा वेदस्तुतभूपादा॥

बर्हिनिवर्हापीडा नटनाटकफणिक्रीडा॥

वारिजभूषाभरणा राजिवरुक्मिणिरमणा॥

जलरुहदलनिभनेत्रा जगदारम्भकसूत्रा॥

पातकरजनीसंहर करुणालय मामुद्धर॥

अधबकक्षयकंसारेकेशव कृष्ण मुरारे॥

हाटकनिभपीताम्बर अभयंकुरु मेमावर॥

दशरथराजकुमारा दानवमदस्रंहारा॥

गोवर्धनगिरिरमणा गोपीमानसहरणा॥

शरयूतीरविहारासज्जनऋषिमन्दारा॥

विश्वामित्रमखत्रा विविधपरासुचरित्रा॥

ध्वजवज्रांकुशपादा धरणीसुतस्रहमोदा॥

जनकसुताप्रतिपाला जय जय संसृतिलीला॥

दशरथवाग्घृतिभारा दण्डकवनसंचारा॥

मुष्टिकचाणूरसंहारा मुनिमानसविहारा॥

वालिविनिग्रहशौर्यावरसुग्रीवहितार्या॥

मां मुरलीकर धीवर पालय पालय श्रीधर॥

जलनिधिबन्धनधीरा रावणकण्ठविदारा॥

ताटीमददलनाढ्या नटगुणगु विविधधनाढ्या॥

गौतमपत्नीपूजन करुणाघनावलोकन॥

स्रम्भ्रमसीताहारा साकेतपुरविहारा॥

अचलोद्घृतिद्घृञ्चत्कर भक्तानुग्रहतत्पर॥

नैगमगानविनोदा रक्षःसुतप्रह्लादा॥

भारतियतिवरशंकर नामामृतमखिलान्तर॥

Posted in Fast, Festivals, Mantra, Puja and Rituals, Remedies, Stotra | Tagged , , , | Leave a comment

कार्तिक एकादशी : मांगलिक कार्यों के आरंभ होने का समय

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कार्तिक शुक्ल एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस दिन को  देवउठनी एकादशी, देवउत्थान एकादशी, देवउठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी आदि नामों से जाना जाता है. इस दिन भगवान विष्णु निद्रा से जागते हैं. इस दिन का बहुत ही विशेष महत्व है. ये समय कई मायनों से लोगों के मध्य भक्ति और नव जीवन का संकेत देता है. आइये जन लेते हैं इस दिन से जुड़ी कुछ कथाओं और इसके महत्व के बारे में विस्तार पूर्वक. 

कार्तिक एकादशी से जुड़ी पहली कथा 

प्राचीन काल में एक राजा था उसके राज्य में प्रजा सुखी थी. एकादशी पर कोई भी अन्न नहीं बेचता था. सभी फल खाते थे. एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही. भगवान ने एक सुंदर स्त्री का रूप धारण किया और मार्ग में बैठ गए. तभी राजा उधर से आया और सुंदर स्त्री को देखकर आश्चर्यचकित हो गया. 

राजा ने पूछा, सुन्दरी तुम कौन हो और इस प्रकार यहाँ क्यों बैठी हो. तब सुन्दरी का वेश धारण किए भगवान ने कहा मैं विवश हूँ. मैं नगर में किसी को नहीं जानता, किससे सहायता मांगूं राजा उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया. उसने कहा मेरे महल में चलो और मेरी रानी बनकर रहो. सुन्दरी ने कहा मैं आपकी बात मानूंगी, किन्तु आपको राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा. 

राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा. मैं जो भी पकाऊंगी, तुम्हें खाना पड़ेगा. राजा उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया, अतः उसने उसकी सारी शर्तें मान लीं. अगले दिन एकादशी थी. रानी ने आदेश दिया कि अन्य दिनों की भांति बाजारों में अन्न बेचा जाए. उसने घर पर मांस-मछली आदि पकाकर परोस दिया और राजा से भोजन करने को कहा. यह देखकर राजा ने कहा रानी आज एकादशी है. मैं केवल फल खाऊंगा. तब रानी ने उसे शर्त याद दिलाते हुए कहा या तो भोजन करो, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी. राजा ने जब अपनी स्थिति बड़ी रानी से बताई तो बड़ी रानी ने कहा महाराज! आप अपना धर्म मत छोड़िए, बड़े राजकुमार का सिर दे दीजिए. आपको आपका पुत्र तो वापस मिल जाएगा, परंतु धर्म नहीं मिलेगा.

इसी बीच बड़ा राजकुमार खेलकर वापस आ गया. अपनी माता की आंखों में आंसू देखकर उसने रोने का कारण पूछा तो उसकी माता ने उसे सारा हाल बता दिया. तब उसने कहा मैं अपना सिर देने को तैयार हूं. पिता के धर्म की रक्षा होगी, उसकी रक्षा अवश्य होगी. राजा ने दुखी मन से राजकुमार का सिर देने की हामी भरी, तब भगवान विष्णु ने रानी के रूप में प्रकट होकर सत्य बताया राजन! आप इस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं. प्रभु ने प्रसन्न मन से राजा से वरदान मांगने को कहा तो राजा ने कहा- आपने तो सब कुछ दे दिया है. हमारा उद्धार कीजिए. उसी समय वहां एक विमान उतरा. राजा ने अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप दिया और विमान में बैठकर परमधाम को चले गए.

कार्तिक एकादशी दूसरी पौराणिक कथा

देवउठनी एकादशी की एक प्रमुख कथा शंखासुर नामक राक्षस की है. शंखासुर ने तीनों लोकों में बहुत उत्पात मचा रखा था. तब सभी देवताओं के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने उस राक्षस से युद्ध किया और यह युद्ध कई वर्षों तक चलता रहा. बाद में वह राक्षस मारा गया और इसके बाद भगवान विष्णु विश्राम करने चले गए. कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विष्णु निद्रा से जागे और सभी देवताओं ने भगवान विष्णु की आराधना की.

शिव महापुराण के अनुसार प्राचीन काल में दंभ नाम का एक दैत्यों का राजा हुआ करता था. वह बहुत बड़ा विष्णु भक्त था. कई वर्षों तक संतान न होने पर उसने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाया और उनसे श्री कृष्ण मंत्र प्राप्त किया. मंत्र प्राप्त करने के बाद उसने पुष्कर सरोवर में घोर तपस्या की. उसकी तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और उसे संतान प्राप्ति का वरदान दिया. भगवान विष्णु के वरदान से राजा दंभ के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ. इस पुत्र का नाम शंखचूड़ रखा गया. बड़ा होने पर शंखचूड़ ने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए पुष्कर में घोर तपस्या की.

ब्रह्मा जी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान मांगने को कहा. तब शंखचूड़ ने वरदान मांगा कि वह अमर रहे और कोई भी देवता उसका वध न कर सके. ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दिया और कहा कि तुम बदरीवन जाकर वहां तपस्या कर रही धर्मध्वज की पुत्री तुलसी से विवाह करो, शंखचूड़ ने वैसा ही किया और तुलसी से विवाह कर सुखपूर्वक रहने लगा.

अपने बल से उसने देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, नाग, किन्नर, मनुष्य और त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली. जब भगवान शिव को इस बात का पता चला तो वे अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए निकल पड़े. इस प्रकार देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध हुआ. परंतु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण देवता शंखचूड़ को पराजित नहीं कर सके.  

तब भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप धारण किया और तुलसी के पास गए. शंखचूड़ का रूप धारण किए भगवान विष्णु तुलसी के महल के द्वार पर गए और उसे अपनी विजय का समाचार सुनाया. यह सुनकर तुलसी बहुत प्रसन्न हुई और उसने अपने पति रूप में आए भगवान की पूजा की और उनके साथ सहवास किया. ऐसा करते ही तुलसी का सतीत्व भंग हो गया और भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया.

तब तुलसी को पता चला कि वह उसका पति नहीं बल्कि भगवान विष्णु थे, क्रोध में आकर तुलसी ने कहा कि तुमने छल से मेरा धर्म भ्रष्ट कर मेरे पति को मार डाला है. इसलिए मैं तुम्हें पत्थर बनकर धरती पर रहने का श्राप देती हूं.

तब भगवान विष्णु ने कहा तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पत्थर (शालिग्राम) के रूप में रहूंगा और तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बनोगी और सदैव मेरे साथ रहोगी.  

Posted in Ekadashi, Fast, Festivals, Puja and Rituals | Tagged , , | Leave a comment