आमलकी एकादशी तिथि, शुभ मुहूर्त और पारण का समय

फाल्गुन माह आमलकी एकादशी

आमलकी एकादशी हिन्दू पंचांग के अनुसार हर साल फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है. इसे आमलकी द्वादशी भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन आमलकी अर्थात आंवला के वृक्ष की पूजा का महत्व है. यह एकादशी विशेष रूप से भगवान विष्णु के भक्तों के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है. आमलकी एकादशी का धार्मिक दृष्टिकोण से विशेष स्थान है.

आमलकी एकादशी का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है, क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु के भक्त अपने पापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए व्रत रखते हैं. आमलकी का फल आंवला स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक फायदेमंद माना जाता है. आमलकी के वृक्ष की पूजा और इसके फलों का सेवन करने से शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की शुद्धि होती है.

हिन्दू धर्म में एकादशी का व्रत विशेष रूप से भगवान विष्णु की उपासना के लिए होता है, और आमलकी एकादशी में विशेष रूप से भगवान विष्णु की पूजा होती है. इस दिन भक्त दिनभर उपवास रखते हैं और रातभर भगवान विष्णु की पूजा, भजन और कीर्तन करते हैं. इस दिन भक्त को मानसिक शुद्धता की प्राप्ति होती है.

आमलकी एकादशी पूजा विधि
आमलकी एकादशी की पूजा विधि भी बहुत सरल और प्रभावशाली होती है. इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करना चाहिए और शुद्ध वस्त्र पहनने चाहिए. फिर, आमलकी के पेड़ के नीचे जाकर या मंदिर में आमलकी के पौधे की पूजा की जाती है. आमलकी के फल को भगवान विष्णु को अर्पित करते हुए उनका ध्यान और स्मरण करना चाहिए. इस दिन विशेष रूप से भगवान विष्णु के “विष्णु सहस्त्रनाम” का पाठ करने का महत्व है.व्रत का संकल्प लिए भक्त इस दिन फलाहार करते हैं और रातभर भगवान विष्णु की भक्ति में लीन रहते हैं.

आमलकी एकादशी का धार्मिक दृष्टिकोण से यह भी महत्व है कि यह भगवान विष्णु की उपासना का सर्वोत्तम दिन माना जाता है. इस दिन विशेष रूप से भक्तों को भगवान विष्णु के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को प्रकट करने का अवसर मिलता है. एकादशी के दिन व्रत रखने से पापों का नाश होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है. भगवान विष्णु के भक्त मानते हैं कि इस दिन उनका व्रत रखने से न केवल पाप समाप्त होते हैं, बल्कि आत्मा को भी शांति और संतोष प्राप्त होता है. यह दिन विशेष रूप से तात्कालिक रूप से भगवान विष्णु के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उपयोगी है.

आमलकी एकादशी व्रत उपासना
आमलकी एकादशी के व्रत के दौरान कुछ परहेज किए जाते हैं. इस दिन विशेष रूप से मांसाहार, शराब और तंबाकू का सेवन वर्ज्य किया जाता है. साथ ही, इस दिन सोने और विश्राम करने से भी परहेज किया जाता है, ताकि भक्त पूरी रात भगवान विष्णु की भक्ति में लगे रहें. इस दिन भगवान विष्णु के नाम का जाप और पूजा अधिक से अधिक की जाती है, ताकि भक्त का मन पूर्ण रूप से भगवान में रमा रहे और वे मानसिक शांति प्राप्त कर सकें.

आमलकी का सेवन आयुर्वेद में विशेष रूप से भी फायदेमंद माना जाता है. इसे ‘आंवला’ के नाम से भी जाना जाता है, और यह शरीर के लिए कई प्रकार के लाभकारी तत्वों का स्रोत है. आयुर्वेद के अनुसार, आंवला शरीर में “पित्त” और “कफ” को संतुलित करता है और “वात” को नियंत्रित करता है. यह शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है और रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाता है. साथ ही, आंवला में भरपूर मात्रा में विटामिन होता है, जो शरीर के इम्यून सिस्टम को मजबूत करता है.

आंवला का उपयोग विभिन्न आयुर्वेदिक औषधियों में भी किया जाता है. यह पाचन क्रिया को सुधारने, त्वचा के रोगों को ठीक करने, और बालों की समस्याओं को दूर करने में मदद करता है. इस प्रकार, आमलकी एकादशी के दिन आंवला का सेवन शरीर को शुद्ध करने और ताजगी प्रदान करने के रूप में भी महत्वपूर्ण होता है.

आमलकी एकादशी का महत्व
आमलकी एकादशी का महात्म्य न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है. इस दिन विशेष रूप से मंदिरों में विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है, इस दिन लोग अपने घरों में भी आमलकी के पेड़ या पौधे लगाते हैं, ताकि इस दिन के महत्व को अपने जीवन में लाकर इसके विशेष प्रभावों का अनुभव कर सकें.

आमलकी एकादशी का व्रत न केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी बढ़ाता है. इस दिन के दौरान भगवान विष्णु की उपासना, आमलकी के वृक्ष की पूजा और आंवला का सेवन जीवन में सकारात्मक बदलाव लाता है. यह व्रत व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण, साधना, और भक्ति की ओर प्रेरित करता है, और समाज में भी शांति और समृद्धि का वातावरण बनाता है.

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फूलैरा दूज : राधा कृष्ण की खास होली

फूलैरा दूज एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है, जो विशेष रूप से उत्तर भारत में मनाया जाता है. यह त्योहार होली से जुड़ा हुआ है और प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है. इस दिन का विशेष महत्व है क्योंकि इसे होली के आगमन का संकेत माना जाता है. फूलैरा दूज को एक प्रकार से होली की तैयारियों का आरंभ माना जाता है. इस दिन लोग अपने घरों में रंग, गुलाल, और फूलों से सजावट करते हैं, साथ ही साथ एक-दूसरे के साथ खुशियां बांटते हैं.

फूलैरा दूज का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक है. यह त्योहार भगवान श्री कृष्ण और राधा के प्रेम को भी दर्शाता है. विशेष रूप से, मथुरा, वृंदावन, और गोकुल जैसे स्थानों पर इस दिन की विशेष धूम होती है, क्योंकि यहाँ भगवान कृष्ण और राधा के प्रेम संबंधों को याद किया जाता है. माना जाता है कि इस दिन भगवान कृष्ण और राधा की पूजा करने से भक्तों के जीवन में सुख-शांति और समृद्धि आती है.

इसके अलावा, फूलैरा दूज का एक सामाजिक और पारिवारिक महत्व भी है. यह दिन भाई-बहन के रिश्ते को प्रगाढ़ करने का अवसर होता है, ठीक वैसे ही जैसे भाई दूज पर भाई अपनी बहन को तिलक करके उसकी लंबी उम्र की कामना करता है. इस दिन को भाई-बहन एक-दूसरे के साथ प्रेम और खुशी से मनाते हैं, जिसमें वे अपने रिश्ते को मजबूत करने के लिए एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं.

फूलैरा दूज और होली का संबंध
फूलैरा दूज और होली का संबंध बहुत गहरा है. फूलैरा दूज के दिन होली की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. माना जाता है कि इस दिन से ही रंगों और खुशियों का पर्व होली का आगाज होता है. होली का पर्व खुशी, प्रेम और भाईचारे का प्रतीक है, और फूलैरा दूज इस पर्व की शुरुआत का संकेत होता है. फूलैरा दूज पर लोग अपने घरों में रंग, गुलाल, और फूलों से सजावट करते हैं और एक-दूसरे के साथ प्रेम और सौहार्द का आदान-प्रदान करते हैं. यह पर्व रंगों और प्रेम की भाषा को व्यक्त करता है, जो समाज में एकता और भाईचारे को बढ़ावा देता है.

फूलैरा दूज पौराणिक महत्व
फूलैरा दूज का संबंध प्राचीन भारतीय परंपराओं से जुड़ा हुआ है. मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने राधा के साथ एक सुंदर वन में खेलते हुए फूलों से होली खेली थी. इसलिए इस दिन को फूलैरा दूज कहा जाता है, क्योंकि इस दिन फूलों का विशेष महत्व होता है. इसके साथ ही, यह दिन होली के पर्व की शुरुआत का संकेत भी होता है, जो रंगों और खुशियों का प्रतीक है.
कई जगहों पर इस दिन को “फूलों की होली” के रूप में मनाया जाता है. लोग एक-दूसरे को फूलों के हार पहनाते हैं और रंग-बिरंगे फूलों से अपने घरों को सजाते हैं. यह दिन प्रेम, भाईचारे और एकता का प्रतीक होता है, क्योंकि इसमें लोग बिना किसी भेदभाव के एक-दूसरे से मिलकर खुशियाँ बाँटते हैं.

फूलैरा दूज की पूजा विधि
फूलैरा दूज के दिन पूजा की विशेष विधि होती है. लोग इस दिन सुबह-सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनते हैं और घर के मंदिर में भगवान कृष्ण और राधा की पूजा करते हैं. पूजा में विशेष रूप से फूलों और गुलाल का उपयोग होता है, क्योंकि यह दिन फूलों की होली के रूप में मनाया जाता है.
स्नान : इस दिन पूजा से पहले स्नान करना आवश्यक होता है. साफ-सुथरे वस्त्र पहनकर लोग पूजा के लिए तैयार होते हैं.
दीप जलाना: पूजा स्थान पर दीपक जलाया जाता है और भगवान श्री कृष्ण और राधा की प्रतिमा के सामने फूलों की माला अर्पित की जाती है.
फूलों से पूजा: इस दिन फूलों का विशेष महत्व है, इसलिए भगवान श्री कृष्ण और राधा को ताजे फूलों से पूजा जाता है.
गुलाल और रंग: फूलैरा दूज के दिन लोग एक-दूसरे को गुलाल और रंग लगाते हैं और होली की मस्ती का आनंद लेते हैं.

फूलैरा दूज की सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका
फूलैरा दूज का सामाजिक महत्व भी बहुत बड़ा है. यह दिन लोगों को एक साथ लाने और सामाजिक संबंधों को मजबूत करने का एक अवसर प्रदान करता है. इस दिन लोग अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलकर एक-दूसरे को बधाई देते हैं और उनके साथ इस दिन की शुभता को बांटते हैं. फूलैरा दूज के अवसर पर लोग अपने घरों को सजाते हैं और समाज में खुशी का माहौल बनाते हैं. घरों के आंगन और बरामदों में फूलों की सजावट की जाती है और रंग-बिरंगे कपड़े पहनने का रिवाज भी होता है. बच्चे विशेष रूप से इस दिन का इंतजार करते हैं, क्योंकि उन्हें इस दिन अपने दोस्तों के साथ रंग खेलते और गुलाल लगाते हुए आनंद आता है.

फूलैरा दूज का महत्व
फूलैरा दूज एक ऐसा त्योहार है जो भारतीय संस्कृति में प्रेम, भाईचारे, और खुशी का प्रतीक है. यह दिन भगवान श्री कृष्ण और राधा के रिश्ते को याद करने और होली के आगमन का संकेत होता है. इस दिन को पारिवारिक और सामाजिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. लोग इस दिन को खुशी से मनाते हैं और एक-दूसरे के साथ प्रेम और सम्मान साझा करते हैं. फूलैरा दूज न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह समाज में एकता और प्रेम की भावना को भी बढ़ावा देता है.

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जानकी अष्टमी: जाने व्रत विधि और पूजा महत्व

जानकी अष्टमी, जिसे सीता अष्टमी भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो भगवान राम की पत्नी सीता की पूजा के रूप में मनाया जाता है. यह पर्व विशेष रूप से भारत के विभिन्न हिस्सों में मनाया जाता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां रामायण के चरित्रों और घटनाओं का विशेष महत्व है. यह पर्व फाल्गुन माह की अष्टमी को मनाया जाता है. इस दिन को लेकर हिन्दू धर्म में विशेष श्रद्धा और आदर है क्योंकि इसे भगवान राम की अर्धांगिनी सीता के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है.

सीता माता का स्थान हिन्दू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण है. वे केवल भगवान राम की पत्नी ही नहीं, बल्कि एक आदर्श महिला के रूप में पूजी जाती हैं. उनका जन्म मिथिला के राजा जनक के घर हुआ था. उनके जन्म के समय एक अद्भुत घटना घटी थी, जिससे यह सिद्ध हुआ कि सीता देवी का धरती पर आगमन कोई साधारण घटना नहीं थी. सीता का जन्म धरती से हुआ था, और यह घटना जनक जी के खेत में हल चलाते समय घटी थी, जब उन्होंने एक सुंदर कन्या को देखा था.

जानकी अष्टमी के दिन की पूजा विधि
जानकी अष्टमी के दिन विशेष रूप से सीता माता की पूजा की जाती है. लोग इस दिन व्रत रखते हैं और मंदिरों में जाकर विशेष पूजा-अर्चना करते हैं. इस दिन की पूजा में सबसे पहले घर को साफ किया जाता है और फिर दीपों से सजाया जाता है. पूजा स्थल पर सीता माता की मूर्ति या चित्र रखकर उन्हें सुंदर फूलों से सजाया जाता है बहुत से भक्त इस दिन व्रत रखते हैं और उपवास करते हैं. व्रत के दौरान वे केवल फलाहार करते हैं और पानी पीते हैं. सीता माता की पूजा में विशेष रूप से ‘सीता अष्टकशर मंत्र’ का जाप किया जाता है. इस मंत्र का जाप करने से भक्तों को शांति और सुख की प्राप्ति होती है.

इस दिन रामायण की कथा विशेष रूप से सुनाई जाती है, जिसमें सीता माता के जन्म, उनके विवाह, और उनके जीवन की कठिनाइयों का वर्णन किया जाता है. कथा में उनके धर्म, त्याग, और सत्य के प्रतीक के रूप में उनके योगदान पर विशेष ध्यान दिया जाता है. पूजा के बाद भक्त सीता माता को भोग अर्पित करते हैं और फिर प्रसाद वितरण करते हैं. जानकी अष्टमी का महत्व इसलिए विशेष है क्योंकि इस दिन भगवान राम की पत्नी सीता का जन्म हुआ था. सीता की पूजा करने से व्यक्ति को मानसिक शांति, सौम्यता और जीवन में सफलता मिलती है. सीता माता ने अपने जीवन में जो कठिनाइयाँ और संघर्ष झेले, वह आज भी मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं. उनका जीवन सत्य, धर्म और त्याग का प्रतीक है.

सीता माता के जीवन से शिक्षा
सीता माता के जीवन से हमें कई महत्वपूर्ण शिक्षाएं मिलती हैं. उनके जीवन में जो भी घटनाएँ घटीं, वे हमें एक आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं.
धर्म और सत्य का पालन: सीता माता ने अपने पूरे जीवन में सत्य और धर्म का पालन किया. चाहे वह उनके पिता की आज्ञा मानने का विषय हो, या फिर राम के साथ वनवास जाने का, उन्होंने कभी भी धर्म से परे नहीं किया.

त्याग और सहनशीलता: सीता माता ने हमेशा कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी भी साहस नहीं खोया. वनवास के दौरान उन्होंने अपने पति राम के साथ कठिनाइयों का सामना किया, और अपने बच्चे लव और कुश को अकेले ही पाला.

समर्पण और प्रेम: सीता माता ने राम के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को हमेशा बनाए रखा. उनके जीवन में प्रेम, विश्वास, और समर्पण की भावनाएँ प्रमुख थीं.

धैर्य और साहस: जब सीता माता का हरण रावण ने किया, तो उन्होंने कभी भी धैर्य नहीं खोया. उनका विश्वास और साहस उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी.

जानकी अष्टमी का प्रभाव
जानकी अष्टमी का पर्व महिलाओं के सम्मान, शक्ति, और उनके अधिकारों की याद दिलाता है. सीता माता को समाज में उच्च स्थान देने से महिलाओं के लिए आदर्श प्रस्तुत किया जाता है. इसके अलावा, यह पर्व परिवार और समाज में शांति और समृद्धि की कामना करता है. जानकी अष्टमी का दिन हमें अपने जीवन में सत्य, धर्म, प्रेम, और त्याग को अपनाने की प्रेरणा देता है.

सीता माता के जीवन से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं, विशेष रूप से उनके साहस, धैर्य, और कठिन परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्यों का पालन करने की भावना. इस दिन की पूजा से न केवल धार्मिक लाभ मिलता है, बल्कि यह सामाजिक एकता और शांति का संदेश भी देता है. इस दिन को मनाकर हम सीता माता के आदर्शों को अपनाते हुए अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं और जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं.

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शबरी जयंती का महत्व और पूजा विधि

फाल्गुन मास की सप्तमी तिथि को शबरी जयंती का उत्सव मनाया जाता है. शबरी जयंती का समय देश के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष रुप से मनाया जाता है. गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में इसकी अलग ही धूम देखने को मिलते है. शबरी जयंती के दिन विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. दक्षिण भारत के भद्राचलम के सीतारामचंद्रम स्वामी मंदिर में इस दिन को बड़े उत्सव के रूप में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. 

शबरी जयंती के दिन शबरी माता की देवी के रूप में पूजा की जाती है. रामायण, भागवत रामचरितमानस आदि ग्रंथों में राम भक्त शबरी की कई कहानियां बताई गई हैं. भगवान श्री राम ने अपनी सबसे बड़ी भक्त शबरी के जूठे बेर ग्रहण किए थे. इसी वजह से इस दिन को शबरी माता के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है. और पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ उनकी पूजा की जाती है. 

शबरी जयंती पूजा   

शास्त्रों में शबरी को परम भक्त एवं देवी का स्थान दिया गया है. शबरी जयंती के दिन माता शबरी की देवी के रूप में पूजा की जाती है.  शबरी जयंती को आस्था और भक्ति से मोक्ष प्राप्ति का प्रतीक माना जाता है. मान्यताओं के अनुसार, शबरी एवं माता की पूजा से भक्ति से व्यक्ति को उसी तरह भक्ति की कृपा प्राप्त होती है, जैसे शबरी को भगवान राम की भक्ति प्राप्त हुई थी.

शबरी जयंती के दिन रामायण का पाठ किया जाता है. देवी शबरी का वास्तविक नाम ‘श्रमणा’ था और उनका जन्म भील जाती में हुआ था. शबरी के पिता भील समुदाय के राजा थे. जब शबरी विवाह के योग्य हुई तो उसके पिता ने उसका विवाह एक भील राजकुमार से तय कर दिया. उस समय विवाह में पशुओं की बलि दी जाती थी. माता शबरी के विवाह में बलि के लिए बकरे और भैंसे एकत्र किए गए थे.जब शबरी को इस बात का पता चला तो उसने अपने पिता से पूछा, तब शबरी के पिता ने बताया तुम्हारे विवाह के अवसर पर इन सभी पशुओं की बलि दी जाएगी. यह बात सुनकर शबरी को बहुत दुख हुआ और रात में अपने घर से भाग गई. घर से भागने के बाद उसने अपना पूरा जीवन भगवान राम की भक्ति में समर्पित कर दिया. घर से निकलने के बाद शबरी जंगल में रहने लगी और ऋषि मतंग की शिष्या  

शबरी जयंती पूजा विधि-

शबरी जयंती के दिन भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए मंदिर में विशेष पूजा की जाती है. भक्ति और विश्वास के साथ इस दिन शबरी और भगवान विष्णु की पूजा की जाती है.

इस दिन शबरी और भगवान विष्णु को बेर चढ़ाए जाते हैं. शबरी जयंती के दिन माता शबरी और भगवान विष्णु को बेर चढ़ाने के बाद पूरा परिवार प्रसाद के रूप में बेर खाता है. इस दिन भगवान विष्णु या शबरी की पूजा में सफेद चंदन से शबरी और भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. 

शबरी जयंती कथा 

शबरी जयंती की कथा का संबंध रामायण से रहा है. रामायण के विभिन्न पात्रों में से एक शबरी भी एक महान पात्र है. शबरी के जीवन और उनकी श्री राम से भेंट का उल्लेख रामायण में मिलता है.  शबरी भगवान श्री राम की बहुत बड़ी भक्त थीं और उन्होंने अपना पूरा जीवन राम की भक्ति में समर्पित कर दिया था. रामायण की कथा अनुसार शबरी अपनी कुटिया में बैठकर भगवान श्री राम के आने का इंतजार किया करती थीं और उसकी साधना भक्ति को देख कर भगवान ने उन्हें दर्शन भी दिये थे. जो भी भक्त सच्ची श्रद्धा से भगवान की स्तुति करता है, उसे भगवान की कृपा  मिलती है. उसी तरह भक्ति की धारा में बहते हुए शबरी को भी श्री राम जी के दर्शन हुए और वह उनसे मिलने आते हैं.  

शबरी का आरंभिक जीवन और भक्ति का प्रादुर्भाव

कथाओं के अनुसार, शबरी भील समुदाय से थीं, भील समुदाय में किसी भी शुभ अवसर पर जानवरों की बलि दी जाती थी, लेकिन शबरी को पशु-पक्षियों से बहुत लगाव था. इसलिए पशुओं को बलि से बचाने के लिए शबरी ने विवाह नहीं किया और ऋषि मतंग की शिष्या बन गईं और ऋषि मतंग से धर्म और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया.

ऋषि मतंग के आश्रम में आने के बाद शबरी हमेशा भगवान श्री राम की भक्ति में लीन रहने लगीं. शबरी की भगवान के प्रति ऐसी भक्ति देखकर ऋषि मतंग ने अपने अंतिम समय में शबरी से कहा कि शबरी को श्री राम के दर्शन होंगे और मोक्ष मिलेगा. यह सुनकर शबरी प्रतिदिन अपनी कुटिया में भगवान के आने का इंतजार करने लगी. 

वह नियमित रुप से मार्ग के रास्ते में आने वाले पत्थर और कांटे हटाती और प्रभु के आने की प्रतिक्षा किया करती थी. शबरी प्रतिदिन ताजे फल और बेर तोड़कर श्री राम के लिए रखतीं. जीवन भर राम का इंतजार करने वाली शबरी की इच्छा आखिरकार पूरी हुई. वन में माता सीता की खोज करते हुए श्री राम और लक्ष्मण शबरी की कुटिया में पहुंचे. जब शबरी ने श्री राम को देखा तो उसकी आंखों से आंसू बहने लगे. वह उनके पैरों से लिपट गई. शबरी ने श्री राम को केवल मीठे बेर स्वयं चखकर खिलाए और श्री राम ने बचे हुए बेर प्रेम से खाए. श्री राम शबरी की अपार भक्ति से बहुत प्रसन्न होते हैं और अंत में शबरी को मोक्ष प्रदान होता है.

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यशोदा जयंती : संतान सुख के लिए किया जाता है यशोदा जयंती का व्रत

यशोदा जयंती का पर भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है, माता यशोदा भगवान श्री कृष्ण की माता के रुप में सदैव ही पूजनीय रही हैं और उनके मातृत्व प्रेम की परिभाषा संतान और माता के प्रेम की परकाष्ठा को दर्शाती रही है. भारतीय संस्कृति और विशेषकर हिन्दू धर्म के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पात्र के रूप में जानी जाती हैं. वे भगवान श्री कृष्ण की माता थीं और उनके जीवन से जुड़े अनेक प्रेरणादायक प्रसंग धार्मिक ग्रंथों में मिलते हैं.

यशोदा जी का जीवन मातृत्व का आदर्श है और उनके त्याग, स्नेह और श्रद्धा का भी अद्वितीय उदाहरण है. यशोदा जयंती का उत्सव मथुरा से जुड़े तमाम क्षेत्रों में बहुत ही धूम धाम से मनाया जाता रहा है. इस दिन माता यशोदा जी का पूजन होता है और साथ ही श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भाव के साथ इस दिन को मनाते हैं.

यशोदा जयंती की ब्रज में धूम
शास्त्रों के अनुसार यशोदा जी का जन्म ब्रज क्षेत्र के गोकुल गांव में हुआ था. उनके पति नंद बाबा थे, जो एक प्रमुख गोकुलवासी थे. यशोदा का जीवन एक सामान्य महिला का नहीं था, क्योंकि वे भगवान श्री कृष्ण की माँ थीं. यशोदा का जीवन मातृत्व और भक्ति के योग से सशक्त और प्रेरणादायक रूप में सामने आता है. भगवान श्री कृष्ण के जन्म के समय, यशोदा के पास भगवान की वास्तविक माता बनने का अवसर था, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें कृष्ण की पालक मां बना दिया. यशोदा का प्रेम और उनकी ममता कृष्ण के प्रति अद्वितीय थी, और उनका जीवन भगवान कृष्ण के साथ बिताया हर पल एक प्रेम और भक्ति की मिसाल था. वे न केवल एक माँ थीं, बल्कि श्री कृष्ण की पहली गुरु भी थीं, जिन्होंने कृष्ण को प्रेम, निष्ठा और आस्था के साथ जीने का पाठ पढ़ाया.

यशोदा का ममतामयी प्रेम
यशोदा का ममता और प्रेम भगवान श्री कृष्ण के प्रति अद्वितीय था. उनकी गोदी में श्री कृष्ण का खेलना, उनका अपनी माँ के साथ स्नेहपूर्ण संवाद करना, उनके द्वारा यशोदा को “माँ” कहकर पुकारना और उनके साथ बिताए गए पल हिन्दू धर्म के अनमोल पल हैं. यशोदा ने भगवान श्री कृष्ण को अपनी संतान माना, और उनके प्रति ऐसा स्नेह और आदर दिखाया, जो किसी भी आम माँ से भी कहीं अधिक था. उनका प्रेम न केवल एक माँ का था, बल्कि उन्होंने एक सच्चे भक्त की तरह कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति का प्रदर्शन किया.

यशोदा जयंती पूजन से मिलता है संतान सुख का आशीर्वाद
यशोदा जयंती न केवल एक धार्मिक अवसर है, बल्कि यह एक विशेष योग भी है जो संतान सुख को प्रदान करता है. यशोदा जयंती के दिन माता का पूजन श्री कृष्ण के साथ बाल स्वरुप में होता है. इस दिन निसंतान योग वालों को भी माता यशोदा के आशीर्वाद से संतान सुख प्राप्त होता है. भगवान के प्रति भक्ति और एक माँ का प्रेम, दोनों ही हमारे जीवन में शक्ति और शांति लाते हैं. यशोदा जयंती का पर्व जीवन में भक्ति, प्रेम और स्नेह को अपनाना चाहिए, ताकि हम आत्मिक और मानसिक शांति प्राप्त कर सकें.

यशोदा जयंती का पूजा महत्व
यशोदा जयंती का आयोजन विशेष रूप से उन लोगों द्वारा किया जाता है जो भगवान श्री कृष्ण के भक्त हैं और जो यशोदा के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करते हैं. यह दिन माँ-बच्चे के रिश्ते को सम्मानित करने का दिन होता है, और साथ ही यह भी दर्शाता है कि भगवान और भक्त का संबंध किस प्रकार प्रेम और श्रद्धा से जुड़ा होता है. यशोदा जयंती पर श्रद्धालु विशेष रूप से कृष्ण की पूजा करते हैं और यशोदा के जीवन के आदर्शों का पालन करने का संकल्प लेते हैं.


यशोदा जयंती के दिन विशेष रूप से गोकुल व्रत और अन्य धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं, जो कृष्ण और यशोदा की भक्ति में समर्पित होते हैं. इस दिन को विशेष रूप से भक्ति, प्रेम और त्याग के दिन के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर लोग भजन, कीर्तन, कथा और पूजा का आयोजन करते हैं.

माता यशोदा का पुत्र कृष्ण के लिए वात्सल्य
यशोदा और श्री कृष्ण का संबंध केवल एक माँ और बेटे का ही नहीं था, बल्कि वह एक गहरे आध्यात्मिक बंधन का प्रतीक भी था. यशोदा के साथ कृष्ण का संबंध सच्चे प्रेम और विश्वास का था. एक प्रसिद्ध प्रसंग है जब श्री कृष्ण ने यशोदा के साथ माखन चुराया और उनकी ममता से उन्हें किसी भी प्रकार से बचाने का प्रयास किया. यशोदा ने कृष्ण को इस प्रकार दृष्टि से देखा कि उन्हें लगा जैसे वे स्वयं भगवान हैं, और फिर उन्होंने अपनी आँखों में कृष्ण की समस्त सृष्टि को देखा. यह दृश्य एक अत्यधिक अद्भुत था और यशोदा के ममता के अविभाज्य बंधन को दर्शाता है.


यशोदा का सच्चा प्रेम कृष्ण के प्रति किसी भी भौतिकवादी दृष्टिकोण से परे था. वे कृष्ण को अपनी संतान मानती थीं और भगवान होने के बावजूद उन्हें अपने गोद में खिलाती थीं. यह भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से एक अत्यंत गहरे बंधन को दर्शाता है.

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भीष्म एकादशी : जानें एकादशी कथा और महत्व

भीष्म एकादशी का व्रत हिंदू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. यह विशेष रूप से महाभारत के भीष्म पितामह से संबंधित भी है. भीष्म एकादशी का व्रत प्रत्येक वर्ष माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है. इस दिन का महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि महाभारत के महान योद्धा, भीष्म पितामह ने इसी दिन अपने जीवन के अंतिम समय को प्राप्त किया था और इस दिन उन्होंने अपनी देह का त्याग किया था. उनके जीवन, त्याग और वीरता के कारण यह एकादशी खास महत्व रखती है.

भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महान और प्रतापी योद्धाओं में से एक थे. उनका असली नाम देवव्रत था, लेकिन उनके वचन निभाने और त्याग ने उन्हें “भीष्म” नाम दिया, जो कि उनके जीवन में किए गए महान व्रत और उनकी निष्ठा को दर्शाता है. भीष्म पितामह के जीवन में कई मोड़ आए, जिनमें से सबसे प्रमुख उनका वचन था कि वे कभी भी राजा नहीं बनेंगे. वे अपने पिता और उनकी इच्छा के प्रति पूरी तरह से समर्पित थे. उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी सेवा में समर्पित कर दी थी.

भीष्म पितामह ने कई युद्धों में भाग लिया और अपनी वीरता से दुश्मनों को हराया. उनकी महानता सिर्फ युद्ध में नहीं, बल्कि उनके आदर्शों और उनके द्वारा निभाए गए व्रतों में भी थी. महाभारत के युद्ध में उनका योगदान अत्यधिक था, लेकिन जब उन्होंने कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध के बाद शारीरिक रूप से अपंग होने के बाद युद्ध भूमि पर अपने जीवन के अंतिम क्षणों को बिताया, तो उनकी त्याग और धैर्य की मिसाल दी. उन्होंने उस समय के प्रचलित धर्म के अनुसार किसी भी प्रकार के द्वंद्व युद्ध से बचने का प्रयास किया और केवल धर्म के रास्ते पर चलने की शिक्षा दी.

भीष्म एकादशी व्रत की विधि

भीष्म एकादशी का व्रत करने के लिए कुछ खास नियम होते हैं, जिन्हें श्रद्धालु श्रद्धा भाव से पालन करते हैं. इस दिन प्रात:काल स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. भक्त लोग उपवास करते हैं, जिसका उद्देश्य केवल भगवान के प्रति भक्ति और समर्पण को दर्शाना होता है. इस दिन विशेष रूप से व्रति को एकादशी तिथि के दिन किसी भी प्रकार के तामसिक भोजन से दूर रहना चाहिए और केवल सात्विक भोजन करना चाहिए. इस दिन विष्णु भगवान की पूजा करते हैं. वे ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करते हैं और भगवान के सामने दीपक लगाकर उनकी पूजा करते हैं. व्रत का पालन करते समय श्रद्धालु भगवान से आशीर्वाद मांगते हैं कि वे उनके जीवन से दुखों को दूर करें और उन्हें सुख-शांति की प्राप्ति हो.

भीष्म एकादशी का व्रत हिंदू धर्म में विशेष रूप से पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है. यह एकादशी माघ माह की शुक्ल पक्ष की होती है और इसे पितामह भीष्म के द्वारा दी गई महान शिक्षा और उनके प्राणों के त्याग की याद में मनाया जाता है. पितामह भीष्म ने इस दिन अपने प्राणों का त्याग किया था,  अपने जीवन को एक महान उद्देश्य के लिए समर्पित किया था, और इस कारण उनका त्याग भी एक महान उदाहरण बन गया. . इस दिन उपवास रखने से व्यक्ति के पापों का नाश होता है और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है. इसके साथ ही, यह व्रत व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी माना जाता है.

भीष्म एकादशी महत्व

भीष्म एकादशी को धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व दिया जाता है, क्योंकि यह दिन भगवान विष्णु के साथ भीष्म पितामह के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर होता है. भगवान विष्णु की पूजा करने से भगवान की कृपा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है. पितामह भीष्म का त्याग और उनकी भक्ति का जीवन संदेश भी इस दिन को और भी खास बना देता है. भीष्म एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति को न केवल धर्म की प्राप्ति होती है, बल्कि यह जीवन में मानसिक शांति, समृद्धि और स्वास्थ्य को भी प्रदान करता है. इस दिन व्रत करने से उनके दुखों का निवारण होता है.

इस प्रकार, भीष्म एकादशी का व्रत न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमें अपने जीवन में त्याग, समर्पण, और ईश्वर के प्रति भक्ति की महत्वता को समझाता है. यह दिन भीष्म पितामह के महान आदर्शों और उनके जीवन से प्रेरणा लेने का एक अवसर है. उनके जीवन की तरह हमें भी अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करना चाहिए और अपने जीवन में सद्गुणों को अपनाकर एक उच्च लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए. इस व्रत के माध्यम से हम अपने पापों का नाश कर सकते हैं और भगवान की कृपा प्राप्त कर सकते हैं. साथ ही, यह हमें जीवन में सुख-शांति और समृद्धि की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाता है. इसलिए, भीष्म एकादशी का व्रत प्रत्येक श्रद्धालु के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है और यह हमें एक आदर्श जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है.

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द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी पर दूर होंगे सभी संकट

फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी के नाम से मनाया जाता है. हिंदू धर्म में चतुर्थी तिथि का विशेष महत्व है क्योंकि इस दिन भगवान गणेश जी क अपूजन होता है. चतुर्थी तिथि विशेष रूप से भगवान गणेश की पूजा के दिन के रूप में प्रसिद्ध है, जिसे गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है.

प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि को “संकष्टी चतुर्थी” का व्रत मनाया जाता है, जो विशेष रूप से भगवान गणेश के प्रति भक्तों के प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक है. इसे द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी भी कहा जाता है क्योंकि इस दिन द्विज अर्थात ब्राह्मणों और साधु-संतों का विशेष सम्मान किया जाता है. इस व्रत का पालन विशेष रूप से मान सम्मान, पुण्य और समृद्धि की प्राप्ति के लिए किया जाता है.

द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी प्रभाव

संकष्टी चतुर्थी का व्रत उन सभी व्यक्तियों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है जो जीवन में किसी न किसी प्रकार की परेशानियों या दुखों का सामना कर रहे हैं. यह व्रत व्यक्ति के जीवन से समस्त कष्टों को दूर करने के लिए किया जाता है. “संकष्टी” शब्द का अर्थ है कष्टों का निवारण. इस दिन का व्रत और पूजा विशेष रूप से उन भक्तों के लिए है जो किसी भी प्रकार की मानसिक, शारीरिक या आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहे होते हैं. इसके अलावा, संकष्टी चतुर्थी का व्रत भगवान गणेश की पूजा पर आधारित है, जो विघ्नहर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं. इस दिन गणेश जी की पूजा से हर प्रकार की विघ्न-बाधाएं समाप्त होती हैं और जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन होता है.

द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी पूजा विधि
द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी के दिन भक्त प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नान करते हैं और शुद्धता का ध्यान रखते हुए पूजा स्थल को साफ करते हैं. इसके बाद, भक्त व्रत का संकल्प करते हैं और पूरे दिन का उपवास रखते हैं. इस दिन कोई भी अन्न-जल ग्रहण नहीं किया जाता. द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी के दिन भगवान गणेश की पूजा बड़े श्रद्धा भाव से की जाती है. विशेष रूप से, इस दिन गणेश जी को मोदक और दूर्वा अर्पित की जाती है. पूजा के दौरान भगवान गणेश के मंत्रों का जाप किया जाता है, जैसे “ॐ गं गणपतये नम:”. इस दिन गणेश जी के भजन और आरती गाना भी लोकप्रिय होता है.

द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी का नाम इस कारण भी है क्योंकि इस दिन ब्राह्मणों और संतों का विशेष सम्मान किया जाता है. उन्हें भोजन कराया जाता है और उनका आशीर्वाद लिया जाता है. उपवास रखने के बाद, शाम को चतुर्थी तिथि के समापन के समय व्रति पारण करते हैं, अर्थात उपवास खोलते हैं.

द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी पौराणिक कथा
द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी से जुड़ी एक प्रसिद्ध कथा है, जो भगवान गणेश के संबंध में है. कहा जाता है कि एक समय भगवान गणेश के भक्तों को कई प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ रहा था. तभी भगवान गणेश ने अपनी मां पार्वती से यह प्रार्थना की कि वह उनके भक्तों की सभी समस्याओं को दूर करने का कोई उपाय बताएं.

इस पर देवी पार्वती ने संकष्टी चतुर्थी के दिन उपवास करने और गणेश जी की पूजा करने का आदेश दिया. भक्त ने भगवान गणेश की उपासना की और उनका प्रिय मोदक अर्पित किया. भगवान गणेश ने उन भक्तों को आशीर्वाद दिया और उनके सभी कष्टों को समाप्त कर दिया. तभी से संकष्टी चतुर्थी का महत्व बढ़ गया और इसे श्रद्धा पूर्वक मनाया जाने लगा.

द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी महत्व
द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी का पालन शुभता देता है व्रत के दौरान उपवास से शरीर में होने वाली विषाक्तता बाहर निकलती है, जिससे स्वास्थ्य में सुधार होता है. इसके अलावा, इस दिन का उपवास आत्म-नियंत्रण की भावना को भी बढ़ावा देता है, जिससे मानसिक शांति और सुकून प्राप्त होता है. इसके अलावा, गणेश पूजा से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति मिलती है. गणेश जी की पूजा से जीवन में संतुलन और सुख-शांति का आगमन होता है.

संकष्टी चतुर्थी का व्रत विघ्न-बाधाओं को दूर करता है इस दिन ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन कराना शुभता को प्रदान करता है. माघ माह की द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी, विशेष धार्मिक उत्सव है, यह भक्तों के जीवन में सुख, समृद्धि और कष्टों के निवारण का एक उत्तम साधन है. इस दिन भगवान गणेश की पूजा और व्रत से जीवन में शुभता का संचार होता है, और साथ ही कल्याण होता है. इस व्रत का पालन करने से न केवल भक्तों को भौतिक सुख-समृद्धि प्राप्त होती है, बल्कि उनका मानसिक और आत्मिक विकास भी होता है.

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गोंतरी तृतीया (माघ माह) का महत्व और प्रभाव

माघ माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को गोंतरी तृतीया के रुप में मनाया जाता है. माघ शुक्ल तृतीया तिथि को गौरी पूजन करने का महत्व है. भविष्यपुराण के अनुसार माघ मास की शुक्ल तृतीया अन्य मास की तृतीया से श्रेष्ठ है. माघ मास की तृतीया स्त्रियों को विशेष लाभ पहुंचाती है. सौभाग्य बढ़ाने वाला गौरी तृतीया व्रत माघ मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है. 

गोंतरी तृतीया के दिन किया गया व्रत, पूजन स्नान, दान सौभाग्य, धन, सुख, पुत्र, सौंदर्य, लक्ष्मी, दीर्घायु और आरोग्य को देने वाला होता है. माघ माह की गोंतरी तृतीया को गौरी तृतीया या गौरी व्रत भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण व्रत है. यह विशेष रूप से उत्तर भारत में मनाया जाता है, और इसका संबंध माता गौरी, यानी देवी पार्वती से होता है. माघ माह की तृतीया तिथि को मनाए जाने वाले इस व्रत का महत्व धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक है और यह विशेष रूप से महिलाओं के लिए बहुत शुभ माना जाता है.

गोंतरी तृतीया पूजा अनुष्ठान 

गौरी तृतीया का महत्व विशेष रूप से पूजा के उद्देश्य, तिथि और देवी पार्वती के साथ जुड़ी धार्मिक मान्यताओं के कारण है. यह व्रत विशेष रूप से महिलाओं के जीवन में सुख, समृद्धि और परिवार में सुख-शांति की कामना करने के लिए किया जाता है. गौरी तृतीया के दिन देवी गौरी की पूजा की जाती है. देवी गौरी, जिन्हें माता पार्वती भी कहा जाता है, शंकर भगवान की पत्नी और शिव शक्ति का प्रतीक मानी जाती हैं. पार्वती का स्वरूप अत्यंत सौम्य और कल्याणकारी माना जाता है. उनका पूजन करने से घर में सुख, समृद्धि और शांति का वास होता है.

गोंतरी तृतीया का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के जीवन को सुखमय बनाना होता है. विशेष रूप से विवाहित स्त्रियां इस दिन व्रत करती हैं ताकि उनके पति की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य की कामना कर सकें. वहीं, अविवाहित लड़कियां इस दिन व्रत करती हैं ताकि उन्हें अच्छे और सच्चे जीवनसाथी की प्राप्ति हो सके.

गोंतरी तृतीया व्रत की विधि

गोंतरी तृतीया का व्रत पूरे दिन उपवास रहकर किया जाता है. महिलाए विशेष रूप से इस दिन गौरी माता की पूजा करती हैं, साथ ही संतान सुख, पति की लंबी उम्र और परिवार की सुख-शांति के लिए प्रार्थना करती हैं. पूजा में खासतौर पर तिल, गुड़, चिउड़े, फल और फूल अर्पित किए जाते हैं. इस दिन विशेष रूप से देवी की मूर्ति को स्नान कराकर, सुंदर वस्त्र पहनाकर पूजन की जाती है.

इस व्रत का प्रभाव बहुत सकारात्मक रूप से परिणाम देता है. गोंतरी तृतीया का व्रत पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाता है और परिवार में सुख-शांति का वास होता है. इस दिन किए गए व्रत से घर में समृद्धि, धन और समृद्धि का आशीर्वाद मिलता है. इसके साथ ही महिलाओं की सेहत भी बेहतर रहती है और उनके जीवनसाथी की उम्र बढ़ती है.

गोंतरी तृतीया का प्रभाव

इस दिन किए गए पूजा और व्रत का धार्मिक प्रभाव बहुत अधिक होता है. मान्यता है कि इस दिन देवी गौरी के पूजन से पुण्य की प्राप्ति होती है. इसके साथ ही इस दिन किए गए व्रत और पूजा से जीवन में सकारात्मकता आती है और जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं.

गोंतरी तृतीया का व्रत महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी माना जाता है. इस दिन उपवासी रहकर पूजा करने से मनोबल और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है. साथ ही परिवार में सुख-शांति बनी रहती है, जिससे महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य भी बेहतर रहता है.

गोंतरी तृतीया के दिन किए गए व्रत का प्रभाव पति-पत्नी के संबंधों पर भी सकारात्मक रूप से पड़ता है. मान्यता है कि इस दिन पूजा करने से दंपत्ति के बीच प्रेम और सौहार्द में वृद्धि होती है, और संबंधों में कोई कड़वाहट नहीं आती. यह व्रत पति की लंबी उम्र और उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए भी होता है, जिससे दोनों के जीवन में सामंजस्य बना रहता है.

गोंतरी तृतीया के दिन देवी गौरी की पूजा करने से आध्यात्मिक उन्नति होती है. इस दिन की गई पूजा और व्रत से भक्त के जीवन में शांति और संतोष की प्राप्ति होती है. यह व्रत मनुष्य को आत्मिक शांति और भगवान के प्रति आस्था में वृद्धि करता है, जिससे जीवन में संतुलन और समृद्धि आती है.

गोंतरी तृतीया फल 

गौरी तृतीया, माघ माह की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण व्रत है, जो विशेष रूप से महिलाओं के लिए बेहद शुभ माना जाता है. यह व्रत न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके सामाजिक और पारिवारिक प्रभाव भी बहुत गहरे होते हैं. 

महिलाओं की संतान सुख, पति की लंबी उम्र, और परिवार की सुख-शांति के लिए यह व्रत अत्यंत लाभकारी माना जाता है. साथ ही इस व्रत से मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति और शांति की प्राप्ति भी होती है. इसलिए, यह दिन विशेष रूप से धार्मिक अनुष्ठान, पूजा और आत्मिक उन्नति का दिन माना जाता है.

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थाई पूसम : थाईपूसम की कथा और महत्व

माघ माह में आने वाली पूर्णिमा तिथि के दौरान थाई पूसम का पर्व मनाया जाता है. तमिल संस्कृति में इस दिन का बहुत महत्व रहा है. इस दिन को भक्त भक्ति और उत्साह के साथ मनाते हैं. थाई पूसम एक हिंदू तमिल त्यौहार है जो भगवान मुरुगन की सुरपद्मन नामक राक्षस पर विजय के सम्मान में मनाया जाता है.  तमिलनाडु और दक्षिण भारत में मनाया जाता है. इस त्यौहार में कई तरह की रस्में शामिल होती हैं,  थाई पूसम का समय माघ माह की पूर्णिमा का समय होता है. 

थाई पूसम 2025: तिथि

थाई पूसम एक त्यौहार है, जो मुख्य रूप से तमिलनाडु में मनाया जाता है. थाई पूसम त्यौहार भगवान मुरुगन जिन्हें स्कंद भगवान के नाम से भी जाना जाता है उनकी सुरपद्मन पर जीत के उपलक्ष्य में मनाते हैं. जहां उत्तर भारत में इसे पौष पूर्णिमा के रुप में मनाते हैं वहीं इसे दक्षिण भारत में थाईपुसम बहुत धूमधाम से मनाया जा रहा है.

थाई पूसम मंगलवार, 11 फरवरी, 2025 को

पूसम् नक्षत्रम् प्रारम्भ – 10 फरवरी, 2025 को 06:01 पी एम बजे

पूसम् नक्षत्रम् समाप्त -11 फरवरी, 2025 को 06:34 पी एम बजे

थाईपुसम महत्व

थाईपुसम त्यौहार हिंदू तमिल त्यौहार है जो थाई महीने की पहली पूर्णिमा के दिन पूसम नक्षत्र पर मनाया जाता है. थाईपुसम त्यौहार हर साल पौष पूर्णिमा के इस शुभ दिन पर मनाया जाता है. लोग व्रत रखते हैं और भगवान मुरुगन की पूजा करते हैं. भक्त इस आयोजन के लिए पहले से ही शुद्धिकरण करते हैं और यह उत्सव कई दिनों तक चल सकता है.

थाई पूसम कुछ स्थानों पर दुर्गा विजय तो कुछ स्थानोम पर मुरुगन की विजय के रुप में उल्लेखित किया गया है. हिंदू शास्त्रों के अनुसार, भगवान मुरुगन ने सुरपद्म के साथ युद्ध किया था, जो एक क्रूर राक्षस था जिसने तीनों लोगों पर अधिकार कर लिया था. उसके कारण सभी ओर कष्ट ही कष्ट उत्पन्न थे. भगवान मुरुगन की माँ पार्वती ने अपने पुत्र को उस राक्षस के अंत करने का आशीर्वाद दिया और जब भगवान मुरुगन युद्ध के मैदान में गए और सुरपद्म नामक राक्षस को परास्त कर दिया और असुरों का अंत करके समस्त सृष्टि में शुभता को स्थापित किया. तब से इस दिन को थाई पूसम के रूप में मनाया जाता है.

थाइ पुसम कथा

स्कंद पुराण का तमिल पुनरावृति कांडा पुराणम, सुरपद्म की कथा का वर्णन करता है. कथा अनुसार दैत्य ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की थी, तब भगवान असुर को वरदान देने के लिए प्रकट होते हैं और तब उस दैत्य ने 108 युगों तक जीवित रहने और 1008 लोकों पर राज्य करने का वरदान मांगा. उन्होंने पद्मकमलाई से शादी की, जिनके साथ उन्होंने कई बेटों को जन्म दिया, जिनमें से सबसे बड़ा बनुकोपन है.

समुद्र के किनारे स्थित विरामकेन्द्रम नामक नगर में अपनी राजधानी स्थापित कर उसने संपूर्ण लोकों पर शासन किया. देवों को वह परेशान करना शुरू कर देता है, और इंद्र के कई पुत्रों पर हमला करता है. वह इंद्र की पत्नी इंद्राणी को भी चाहता है. जब इंद्र और उनकी पत्नी पृथ्वी पर भाग गए, तो मुरुगन ने वीरवाकुटेवर नाम के अपने दूत को सुरपद्म से अपने कार्यों को रोकने के लिए भेजते हैं, लेकिन इससे कोई लाभ नहीं होता है तब भगवान मुरुगन ने सुरपद्म पर युद्ध की घोषणा की.

दैत्य अपनी हार को स्वीकार करने की इच्छा न रखते हुए, सूरपद्म आम के पेड़ का रूप धारण कर समुद्र में पीछे हट गया. मुरुगन पेड़ को दो भागों में काट देता है, जिसमें से एक मुर्गा और एक मोर निकलता है. जिसे वे अपना प्रतीक और वाहन बना लेते हैं. तमिल परंपरा में, सुरपद्मा की उत्पत्ति उसी तारकासुर के रूप में हुई है, जो असुर शिव, मुरुगन के पुत्र के जन्म की आवश्यकता है. मुरुगन द्वारा सुरपद्म की हत्या को भी कलियुग की शुरुआत के रूप में वर्णित किया गया है.  

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अभिजित मुहूर्त और इसका महत्व

हिंदू पंचांग के अनुसार, हर व्यक्ति का जीवन नक्षत्रों और ग्रहों की स्थिति से प्रभावित होता है. नक्षत्रों का विशेष महत्व होता है, क्योंकि यह जीवन के प्रत्येक पहलु को प्रभावित करते हैं. नक्षत्रों का असर विवाह, जन्म, शिक्षा, यात्रा, व्यापार, तथा अन्य महत्वपूर्ण कार्यों पर पड़ता है. नक्षत्रों की गणना चंद्रमा के आधार पर की जाती है, और इन्हें मुख्य रूप से 27 भागों में विभाजित किया गया है. हर नक्षत्र का अपना विशिष्ट महत्व होता है.

अभिजित नक्षत्र विशेष रूप से मुहूर्त, विवाह, कार्य शुभारंभ और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. यह नक्षत्र ज्योतिषीय दृष्टिकोण से बहुत ही शुभ माना जाता है. इस नक्षत्र के अंतर्गत आने वाले दिन विशेष रूप से शुभ कार्यों के लिए होते हैं. अभिजित नक्षत्र का संबंध विशेष रूप से सफलता, यश, और समृद्धि से जुड़ा होता है. इस नक्षत्र के प्रभाव में होने वाले कार्यों में सफलता की संभावना अधिक रहती है, यही कारण है कि इसे शुभ मुहूर्त के रूप में माना जाता है.

अभिजित नक्षत्र का महत्व
अभिजित नक्षत्र का महत्व हिंदू धर्म में कई दृष्टिकोणों से देखा जाता है. यह नक्षत्र खासतौर पर उन कार्यों के लिए उपयुक्त होता है जिनमें संकल्प, सफलता और विकास की आवश्यकता हो. यही कारण है कि विवाह, घर-घर की पूजा, महत्वपूर्ण व्यवसायिक कार्य, नए उपक्रमों की शुरुआत, और शैक्षिक क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए इसे आदर्श मुहूर्त माना जाता है.


विवाह मुहूर्त: अभिजित नक्षत्र को विवाह के लिए शुभ माना जाता है. इस नक्षत्र में किए गए विवाह अच्छे परिणाम देने वाले होते हैं. इस नक्षत्र में विवाह करने से दांपत्य जीवन सुखमय और संपन्न रहता है.

कार्य शुभारंभ: यदि किसी नए व्यापार, व्यवसाय, या नौकरी की शुरुआत करनी हो, तो अभिजित नक्षत्र का मुहूर्त एक बेहतरीन विकल्प माना जाता है. इस नक्षत्र में शुरू किए गए कार्य में यश और समृद्धि की प्राप्ति होती है.

शैक्षिक कार्य: छात्रों के लिए अभिजित नक्षत्र एक अच्छा मुहूर्त होता है. इस नक्षत्र में शिक्षा की शुरुआत करने से सफलता की संभावना बढ़ जाती है. परीक्षा, शोध या नई शिक्षा की शुरुआत करने के लिए यह नक्षत्र उपयुक्त समय होता है.

पूजा और अनुष्ठान: देवी-देवताओं की पूजा और विशेष धार्मिक अनुष्ठान भी अभिजित नक्षत्र में किए जाते हैं. इस समय किए गए पूजा-पाठ से विशेष लाभ और पुण्य की प्राप्ति होती है.

अभिजित नक्षत्र आरम्भ तिथि 2025
01 जनवरी, 2025, बुधवार को 05:52 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
02 जनवरी, 2025, बृहस्पतिवार को 01:20 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
29 जनवरी , 2025, बुधवार को 02:33 ए एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
29 जनवरी, 2025, बुधवार को 09:53 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
25 फरवरी, 2025, मंगलवार को 12:42 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
25 फरवरी, 2025, मंगलवार को 08:03 पी एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
24 मार्च, 2025, सोमवार को 10:29 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
25 मार्च, 2025, मंगलवार को 06:01 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
21 अप्रैल, 2025, सोमवार को 06:29 ए एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
21अप्रैल, 2025, सोमवार को 02:15 पी एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
18 मई, 2025, रविवार को 12:38 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
18 मई, 2025, रविवार को 08:32 पी एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
14 जून, 2025, शनिवार को 06:08 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
15 जून, 2025, रविवार को 02:01 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
12 जुलाई, 2025, शनिवार को 12:28 ए एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
12 जुलाई , 2025, शनिवार को 08:14 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
08 अगस्त 2025, शुक्रवार को 08:24 ए एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
09 अगस्त, 2025, शुक्रवार को 04:04 पी एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
04 सितम्बर, 2025, बृहस्पतिवार को 05:39 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
05 सितम्बर, 2025, शुक्रवार को 01:20 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
02 अक्टूबर, 2025, बृहस्पतिवार को 03:00 ए एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
02 अक्टूबर, 2025, बृहस्पतिवार को 10:52 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
29 अक्टूबर, 2025, बुधवार को 11:07 ए एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
29 अक्टूबर, 2025, बुधवार को 07:11 पी एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
25 नवम्बर, 2025, मंगलवार को 05:29 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
26 नवम्बर, 2025, बुधवार को 01:41 ए एम बजे
अभिजित नक्षत्र आरम्भ
22 दिसम्बर, 2025, सोमवार को 11:05 पी एम बजे

अभिजित नक्षत्र अन्त
23 दिसम्बर, 2025, मंगलवार को 07:15 ए एम बजे

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