ऋषि दुर्वासा | Durvasa | Rishi Durvasa | Durvasa Biography | Durvasa Muni
ऋषि मुनियों की परंपरा में दुर्वासा ऋषि का अग्रीण स्थान रहा है इतिहास के आदिकालीन महान ऋषियों में यह प्रमुख स्थान रखते हैं, ऋषि दुर्वासा सतयुग, त्रैता एवं द्वापर युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि माने गए हैं हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं जो अपने क्रोध के लिए जाने जाते रहे ऋषि दुर्वासा को भगवान शिव का अवतार माना जाता है. अपने ज्ञान एवं तपोबल के कारण उन्हें सभी से सम्मान प्राप्त हुआ सभी उन्हें आदरणीय मानते थे परंतु उनके क्रोध के कारण सभी उनसे भयभीत भी रहते थे वह छोटी- छोटी बातों पर श्राप दे दिया करते थे किंतु जल्द ही शांत भी हो जाते थे तथा अपने शाप को दूर करने का उपाय भी स्वयं ही बता देते थे.
ऋषि दुर्वासा जन्म कथा | Birth story of Saint Durvasa
ऋषि दुर्वासा जी भगवान शिव के अंश से आविर्भूत हुए माने जाते हैं. इनके पिता महर्षि आत्रि और माता सती अनुसूइया जी थीं .महर्षि अत्रि जी ब्रह्मा के मानस पुत्र थे और उनकी पत्नी अनुसूया जी पतिव्रता थी जिस कारण एक बार उनके पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु देवी सरस्वती, लक्ष्मी ओर पर्वती जी अपने पतियों को उनके पास जाकर उनके सतीत्व की परीक्षा लेने को विवश करती हैं अत: ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी के समक्ष प्रकट होते हैं.
परंतु सती अनुसूइया जी के तपोबल के आगे वह हार जाते हैं और शिशु रूप में तीनों देव माता के पुत्र बन कर रहने लगेते हैं बाद में देव देवियों के अनुरोध पर अनसूया जी उन्हें मुक्त कर देती हैं और देव उन्हें वरदान देते हैं कि वह उन्हें पुत्रों के रूप में प्राप्त होंगे अत: ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और शिव जी दुर्वासा के रूप में उपस्थित होते हैं
एक अन्य कथा अनुसार कहा जाता है कि एक बार महर्षि अत्रि जी ने संतान की प्राप्ति के लिए ब्रह्मा जी से प्रार्थना करते हैं अत: भगवान ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार अपनी पत्नी सती अनुसूइया सहित वह ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना के लिए कठोर तपस्या करते हैं. इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश् उन्हें दर्शन देते हैं और उन्हें वरदान देते हैं कि वह तीनों उनके पुत्र रूप में जन्म लेंगे.
कुछ समय पश्चात त्रिदेवों के अंश स्वरूप महर्षि अत्री के घर में तीन बच्चों का जन्म होता है जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले पुत्र होते हैं. इन तीनों पुत्रों के रूप में ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा का जन्म हुआ, विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त जी का जन्म हुआ तथा भगवान शिव के अंश से महान ऋषि दुर्वासा का जन्म होता है
ऋषि दुर्वासा का स्वभाव | General Character of Saint Durvasa
ऋषि दुर्वासा जी जीवन-भर भक्तों की परीक्षा लेते रहे अपने महा ज्ञानी स्वरूप होने तथा सभी सिद्धियों के ज्ञान के बावजूद भी ऋषि दुर्वासा जी अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाते थे जो उनकी सबसे बड़ी कमी भी रही. उन्हें कभी-कभी अकारण ही भयंकर क्रोध भी आ जाता था. अपने क्रोध के लिए प्रचलित मुनि दुर्वासा जी किसी को भी श्राप दे देते थे. उन्होंने शकुन्तला को श्राप दिया और जिस कारण शकुंतला को अनेक कष्ट सहन करने पड़े. इसी प्रकार उनके क्रोध से कोई भी नहीं बच पाया आम जन से लेकर राजा, देवता , दैत्य, असुर सभी उनके इस क्रोध के भागी बने.
ऋषि दुर्वासा के जीवन की प्रमुख घटनाएँ | Significant incidents of Saint Durvasa’s life
दुर्वासा ऋषि जी ने अपनी साधना एवं तपस्या द्वारा अनेक सिद्धियों को प्राप्त किया था अष्टांग योग का अवलम्बन कर उन्हें अनेक महत्वपुर्ण उपलब्धियां प्राप्त हुई थीं उनके जीवन में अनेकों ऎसी घटनाएं रहीं हैं जो सदियों तक अविस्मरणिय रहीं हैं और जिनके होने से कई घटना क्रमों की उत्पत्ति हुई
ऋषि दुर्वासा और कुंती | Saint Durvasa and Kunti
एक बार कुंती के अतिथ्य सत्कार से प्रसन्न होकर वह उसे एक मंत्र प्रदान करते हैं जिसके द्वारा वह किसी भी देव का आहवान करके उस देव के अंश को जन्म दे सकती थी. इसी वरदान स्वरुप कुंती को कर्ण जैसे पुत्र समेत पांच पांडव प्राप्त हुए और जिनकी उत्पत्ति ने इतिहास में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए.
दुर्वासा और कृष्ण | Saint Durvasa and Lord Krishna
एक बार दुर्वासा कृष्ण के स्वभाव की परीक्षा लेते हैं की प्रकार से उन्हें विचलित करने का प्रयास करते हैं पर कृष्ण हर अवस्था में शांत स्वभाव व्यक्त करते हैं और एक दिन ऋषि उन्हें अपनी जूठी खीर को शरीर पर मलने को कहते हैं. उनके आदेशनुसार कृष्ण अपने पूरे शरीर पर खीर लगा लेते हैं तो दुर्वासा प्रसन्न होकर कृष्ण को वरदान देते हैं कि सृष्टि का जितना प्रेम अन्न में होगा उतना ही तुम में भी होगा
दुर्वासा और राजा अंबरीष |Saint Durvasa and Kind Ambarisha
एक बारा दुर्वासा ऋषि महाराज अम्बरीष के राजभवन में पधारते हैं उस दिन राजा अंबरीष निर्जला एकादशी उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे. पूजा पाठ करने के पश्चात राजा ने ऋषि दुर्वासा को प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन करते हैं ताकी वह अपना वर्त पूर्ण कर सकें परंतु ऋषि दुर्वासा यमुना स्नान करके ही कुछ ग्रहण करने की बात कहते हैं ओर चले जाते हैं. इधर पारण का समय समाप्त हो रहा होता है. अत: ब्राह्मणों के परामर्श पर राजा चरणामृत ग्रहण कर पारण करते हैं.
इस पर जब ऋषि दुर्वासा वहां पहुंच जाते हैं और जब उन्हें इस बात का बोध होता है तो उन्हें बहुत क्रोध आता है और वह राजा अम्बरीश को भस्म करने के लिए अपनी जटा से क्रत्या राक्षसी उत्पन्न करते हैं किंतु राजा बिना विचलित हुए भगवान विष्णु का स्मरण करने लगते हैं और वह राक्षसी जैसे ही उन पर आक्रमण करती है तो स्वत: ही अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र उसे भस्म कर देता है और दुर्वासा ऋषि को मारने के लिए सक्रिय हो जाता है.
अपनी रक्षार्थ दुर्वासाजी वहां से भागने लगते हैं परंतु उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिलती तब वह शिवजी के पास जाते हैं भगवान शिव उन्हें विष्णु के पास भेजते हैं तब विष्णु जी उनसे कहते हैं कि यदि वह अपनी रक्षा करना चाहते हैं तो राजा अम्बरीष से क्षमा मांगें. इस पर ऋषि दुर्वासा अंबरीष के पास जाते हैं तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगते हैं महर्षि दुर्वासा की यह दशा देखकर अंबरीष सुदर्शन चक्र की स्तुति कर उसे लौट जाने को कहते हैं इस प्रकार दुर्वासा ऋषि राजा के इस व्यवहार से अत्यंत प्रसन्न हो उन्हें आशीर्वाद देते हैं. इस तरह से अनेकों घटनाएँ है जिनसे हमें ऋषि दुर्वासा के जीवन का ज्ञान होता है और अनेक शिक्षाऐं भी प्राप्त होती है.