माध्वाचार्य जयंती, द्वैतवाद सिद्धांत के विचारक और प्रचारक

माध्वाचार्य जी का समय काल 1199-1317 लगभग के आस पास का बताया गया है. उनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था. माध्वाचार्य एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे. उन्होने द्वैतमत को आधार प्रदान किया. माध्वाचार्य जी ने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं को समझा और लोगों तक उन विचारों को पहुंचाने का प्रयास भी किया. माध्वाचार्य जी ने उपनिषदों और वेद सूत्रों पर अनेकों टीकाएं रची थीं. भारतवर्ष में इन्हों ने अनेक मठों की स्थापना की थी. इन स्थानों को आज भी बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माना जाता है. अनेक लोगों को धर्म में दीक्षित किया था. माध्वाचार्य जी को वायुदेव का अवतार माना गया है. माध्वाचार्य जी ने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है.

माध्वाचार्य जीवन परिचय

माध्वाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के कन्नड जिले के उडुपी शिवल्ली नामक स्थान के पास पाजक नामक गांव में हुआ था. बहुत कम उम्र में ही इन्होंने वेद और वेदांगों की शिक्षा ग्रहण कर ली थी और इनके अच्छे ज्ञाता हुए. इन्होंने संन्यास को अपना लिया. अपने संन्यास और शिक्षा काल में अच्युतपक्षाचार्य नामक आचार्य से भी विद्या प्राप्त की थी.

द्वैतवाद क्या होता है.

द्वैतवाद, “वेदांत” की दार्शनिक विचारधारा का एक महत्त्वपूर्ण मत है. द्वैतवाद दर्शन को सभी के समक्ष लाने और उसे बढ़ाने का मुख्य कार्य विचारक मध्वाचार्य जी को बताया जाता है. “द्वैतवाद” का अर्थ है एक से अधिक मत की स्वीकृति होना. यही इसके नाम को अभिव्यक्त करता है. द्वैत मत के अनुसार प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों का अस्तित्त्व स्वीकार्य है. माध्वाचार्य जी ने अभाव अर्थात किसी भी चीज की कमी को भ्रम का मूल कारण को बताया. इस मत में विभिन्न दर्शनों में से अनेक बातों को संग्रहित किया गया.

दर्शन में द्वैतवाद सबसे अधिक लोकप्रिय विचारधारा में से एक है. इस विचारधारा में ईश्वर को सर्वत्र स्थापित किया गया है. विश्व का निर्माण और शासन का संपूर्ण भार ईश्वर के ही अधीन है. द्वैतवादियों की मान्यता है की इस सृष्टि में तीन चीजों का अस्तित्व है- ईश्वर, प्रकृति और जीवात्मा. यह तीनों ही नित्य हैं. प्रकृति और जीवात्मा में परिवर्तन होते रहते हैं. लेकिन ईश्वर में कोई परिवर्तन नहीं है. ईश्वर तो शाश्वत है. ईश्वर सगुण है उसमे दयालुता, न्याय, शक्ति इत्यादि गुण विद्यमान हैं.

माध्वाचार्य थे द्वैत मत के प्रचारक

द्वैतवाद में ईश्वर की पूजा को दर्शाया गया. द्वैतवाद का विरोध भी किया गया. एक तरफ वो कहते हैं कि ईश्वर में कोई ऎसा गुण नहीं है जिसे गलत या व्यर्थ कहा जाए. लेकिन जब वह कहते हैं ईश्वर प्रसन्न होता है तो यहां कई बातें उठती हैं. विवाद इस बात में होता है की जब कहा जाता है ईश्वर अप्रसन्न होता है, तो वो ये स्पष्ट नहीं करते की वो अप्रसन्न क्यों होता है क्योंकि ये अच्छा मानवीय गुण नहीं है. द्वैतवाद में इसी तरह के आन्य विरोधी सिद्धांत भी बताए गए हैं.

द्वैतवाद के संस्थापक माधवाचार्य जी थे, जिन्हें आनंदतीर्थ के नाम से भी पुकारा जाता है. कर्नाटक राज्य में उनके अब भी बहुत से अनुयायी हैं. माध्वाचार्य को उनके जीवनकाल में ही “वायु देवता” का अवतार बताया जाने लगा था. उनके अनुयायी और शिष्य उन्हें इसी रुप में मानते थे.

माधव का मत है कि विष्णु सर्वोच्च ईश्वर है. वह उपनिषदों में मौजूद ब्रह्मा को वैयक्तितक ईश्वर के रूप में मानते हैं. रामानुज जी, ने भी उनसे पहले इस मत को माना था. माधवाचार्य की पद्धति में तीन व्यवस्थाएं हैं. ईश्वर, आत्मा और जड़ प्रकृति. ईश्वर को सभी सिद्धियों का सार बताया गया है. यह निराकार है, माधवाचार्य के परमात्मा ही ब्रह्मांड का कर्ता है. ईश्वर ने खुद को बांट कर विश्व का सृजन नहीं किया और न ही किसी अन्य तरह से.

माध्वाचार्य के सुधार कार्य

मध्वाचार्य जी ने अनेकों धार्मिक कार्यों के साथ साथ ही समाज में सुधार के काम भी किए. भारत में जब भक्ति आन्दोलन का दौर आरंभ होता है तो उस समय पर सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे माधवाचार्य जी. अपने कार्यों के कारण ही उन्हें वे पूर्णप्रज्ञ और आनंदतीर्थ जैसे नामों से पुकारा गया.

मंदिरों और मठ की स्थापना द्वारा ज्ञान का प्रचार किया. इसके साथ ही साथ पशुबलि बन्द कराने का काम भी किया. मध्वाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना, अपनी रचनाओं में उन्होंने अनेक प्रकार के पाखण्डवाद को दूर करने का प्रयास किया. भगवान की भक्ति का प्रचार करके लाखों लोगों को उचित मार्ग भी दिखाया. माध्वाचार्य जी ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए बहुत से ग्रंथ लिखे. इनके ग्रंथों की संख्या 30 या 37 के आस पास की बतायी जाती है.

मध्वाचार्य और अच्युतपक्षाचार्य के मध्य क्यों हुआ विवाद

अच्युतपक्षाचार्य अद्वैतमत के समर्थक थे. माध्वाचार्य के दीक्षा गुरु होने के कारण माधवाचार्य ने उनसे अनेकों बातें सिखी. पर कुछ स्थानों पर वे उनसे सहमत नहीं हो पाए. इस कारण वह अपने तर्क को सदैव अपने गुरु के सामने अवश्य रखते थे. कुछ बातों पर वह उनके समर्थक नही होने के कारण अपने गुरु के साथ उनका शास्त्रार्थ होता है. गुरु और शिष्य के मध्य तर्क की समाप्ति न होने के कारण. माधवाचार्य ने अपना एक अलग मत बनाया जिसे "द्वैत दर्शन" के नाम से जाना गया.

इनके अनुसार विष्णु ही परमात्मा हैं. श्री विष्णु के परम भक्त्त बनते हुए माधवाचार्य जी ने श्री विष्णु भगवान के चिन्हों और आभूषणों को खुद पर भी सजाया. माध्वाचार्य जी ने शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिन्हों से अपने अंगों को सजाने की प्रथा का आरंभ किया. इनके विचार को आगे भी समर्थन प्राप्त हुआ. देश भर में इन्हों भ्रमण किया. इनके अनेकों अनुयायी बनते हैं. उडुपी स्थान में श्रीकृष्ण के मंदिर की स्थापना का श्रेय भी इन्हें जाता है. यह स्थान आज भी माध्वाचार्य के मानने वालों के लिए एक विशेष स्थान है.

ग्रंथों की रचना करना

माध्वाचार्य जी ने अपने जीवन काल में अनेक प्रकार के ग्रंथों की रचना की. सुमध्वविजय और मणिमंजरी नामक ग्रन्थ में मध्वाचार्य जी द्वारा की गई रचनाओं और उनके कामों का वर्णन मिलता है. भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक स्थान माध्वाचार्य जी को प्राप्त है. मध्वाचार्य जी अपने समय के अग्रदूत थे, प्रचलित रीतियों के विरुद्ध जाते हुए उन्हेंने अनेकों कार्य भी किए.

द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा है. वेदांत की तार्किक रुप से पुष्टि के लिये एक अनुव्याख्यान लिखा जिसमें ब्राह्ममणा ग्रंथों का वह भाग जो कठिन सूत्रों और मंत्रों की व्याख्या करता है. श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएं भी लिखीं. महाभारततात्पर्यनिर्णय और श्रीमद्भागवतपुराण नामक कुछ ग्रंथ भी इनके द्वारा रचे गए. इनके द्वारा ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका प्राप्त होती है.