रम्भा तृतीया व्रत 2024 - क्यों मनाई जाती है रम्भा तृतीया ?

ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को रंभा तृतीया के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष 08 जून   2024 के दिन रम्भा तृतीया का उत्सव मनाया जाएगा. इस दिन अप्सरा रम्भा की पूजा की जाती है. धर्म शास्त्रों में वेद पुराणों में अप्सराओं का वर्णन प्राप्त होता है. देवलोक में अप्सारों का वास होता है.

अप्सरा रम्भा समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से उत्पन्न हुई थी, ऎसे में इस दिन देवी रंभा की पूजा की जाती है. स्त्रियों द्वारा सौभाग्य एवं सुख की प्राप्ति के लिए इस दिन व्रत भी किया जाता है. इस व्रत को रखने से स्त्रियों का सुहाग बना रहता है, कन्याओं को योग्य वर की प्राप्ति होती है. अच्छे वर की कामना से इस व्रत को रखती हैं, रम्भा तृतीया का व्रत शीघ्र फलदायी माना जाता है.

अप्सराओं का पौराणिक संदर्भ

अप्सराओं का संबंध स्वर्ग एवं देवलोक से होता है. स्वर्ग में मौजूद पुण्य कर्म, दिव्य सुख, समृद्धि और भोगविलास प्राप्त होते हैं. इन्हीं में अप्सराओं का होना जो दर्शाता है रुपवान स्त्री को जो अपने सौंदर्य से किसी को भी मोहित कर लेने की क्षमता रखती हैं. अप्सराओं के पास दिव्य शक्तियां होती है जिनसे यह किसी को भी सम्मोहित कर लेनी की क्षमता रखती हैं.

अथर्वेद एवं यजुर्वेद में भी अप्सरा के संदर्भ में विचार प्रकट होते हैं. शतपथ ब्राह्मण में इन्हें चित्रित किया गया है. ऋग्वेद में उर्वशी प्रसिद्ध अप्सरा का वर्णन प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त पुराणों में भी तपस्या में लगे हुए ऋषि मुनियों की त्पस्या को भंग करने के लिए किस प्रकार इंद्र अप्सराओं का आहवान करते हैं . कुछ विशेष अप्सराओं में रंभा, उर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका आदि के नाम सुनने को मिलते हैं.

ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा, विश्वामित्र एवं मेनका की कथा, तिलोतमा एवं रंभा की कथाएं बहुत प्रचलित रही हैं. इन्हीं में रंभा का स्थान भी अग्रीण है. अप्सराएँ अपने सौंदर्य, प्रभाव एवं शक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं.

समुद्र मंथन रम्भा उत्पति कथा

दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर स्थापित था. इन्द्र सहित देवतागण भी बलि से भयभीत हो उठे. ऎसे में देवों के स्थान को पुन: स्थापित करने के लिए ब्रह्मा जी देवों समेत श्री विष्णु जी के पास जाते हैं. भगवान श्री विष्णु के आग्रह पर समुद्र मंथन आरंभ होता है. जो दैत्यों और देवों के संयुक्त प्रयास से आगे बढ़ता है. क्षीर सागर को मथ कर उसमें से प्राप्त अमृत का सेवन करने से ही देव अपनी शक्ति पुन: प्राप्त कर सकते थे.

ऎसे में समुद्र मंथन के लिये मन्दराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को नेती बनाया जाता है. भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रख लेते हैं और उसे आधार देते हैं . इस प्रकार समुद्र मंथन के दौरान बहुत सी वस्तुएं प्राप्त होती हैं. इनमें रम्भा नामक अप्सरा और कल्पवृक्ष भी निकलता है. इन दोनों को देवलोक में स्थान प्राप्त होता है. इसी में अमृत का आगमन होता है और जिसको प्राप्त करके देवता अपनी शक्ति पुन: प्राप्त करते हैं और इन्द्र ने दैत्यराज बालि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक पुन: प्राप्त किया.

अमृत मंथन में निकले चौदह रत्नों में रंभा का आगमन समुद्र मंथन से होने के कारण यह अत्यंत ही पूजनिय हैं और समस्त लोकों में इनका गुणगान होता है. समुद्र मंथन के ये चौदह रत्नों का वर्णन इस प्रकार है -

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः।

गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः।

रम्भा तीज कथा

रंभा तीज के उपल्क्ष्य पर सुहागन स्त्रियां मुख्य रुप से इस दिन अपने पति की लम्बी आयु के लिए और अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए इस व्रत को करती हैं. रम्भा को श्री लक्ष्मी का रुप माना गया है और साथ ही शक्ति का स्वरुप भी ऎसे में इस दिन रम्भा का पूजन करके भक्त को यह सभी कुछ प्राप्त होता है.

रम्भा तृतीया पर कथा इस प्रकार है की प्राचीन समय मे एक ब्राह्मण दंपति सुख पूर्वक जीवन यापन कर रहे होते हैं. व्ह दोनों ही श्री लक्ष्मी जी का पूजन किया करते थे. पर एक दिन ब्राह्मण को किसी कारण से नगर से बाहर जाना पड़ता है वह अपनी स्त्री को समझा कर अपने कार्य के लिए नगर से बाहर निकल पड़ता है. इधर ब्राह्मणी बहुत दुखी रहने लगती है पति के बहुत दिनों तक नहीं लौट आने के कारण वह बहुत शोक और निराशा में घिर जाती है. एक रात्रि उसे स्वप्न आता है की उसके पति की दुर्घटना हो गयी है. वह स्वप्न से जाग कर विलाप करने लगती है. तभी उसका दुख सुन कर देवी लक्ष्मी एक वृद्ध स्त्री का भेष बना कर वहां आती हैं और उससे दुख का कारण पुछती है. ब्राह्मणी सारी बात उस वृद्ध स्त्री को बताती हैं.

तब वृद्ध स्त्री उसे ज्येष्ठ मास में आने वाली रम्भा तृतीया का व्रत करने को कहती है. ब्राह्मणी उस स्त्री के कहे अनुसार रम्भा तृतीया के दिन व्रत एवं पूजा करती है ओर व्रत के प्रभाव से उसका पति सकुशल पुन: घर लौट आता है. जिस प्रकार रम्भा तीज के प्रभाव से ब्राह्मणी के सौभाग्य की रक्षा होती है, उसी प्रकार सभी के सुहाग की रक्षा हो.

अप्सरा रम्भा से संबंधित कुछ कथाएं

रम्भा का वर्णन रामायण काल में भी प्राप्त होता है. रम्भा तीनों लोकों में प्रसिद्ध अप्सरा थी. कुबेर के पुत्र नलकुबेर की पत्नी के रूप में भी रम्भा का वर्णन प्राप्त होता है. रावण द्वारा रम्भा के साथ गलत व्यवहार के कारण रम्भा ने रावण को श्राप भी देती है.

एक कथा अनुसार विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए जब रम्भा आती हैं तो विश्वामित्र रम्भा को शिला रुप में बन जाने का श्राप देते हैं. फिर एक ब्राह्मण द्वारा रम्भा को शाप से मुक्त प्राप्त होती है.

रम्भा तृतीया पूजन महत्व

रम्भा तीज के दिन दिन विवाहित स्त्रियां गेहूं, अनाज और फूल के साथ चूड़ियों के जोड़े की भी पूजा करती हैं।.अविवाहित कन्याएं अपनी पसंद के वर की कामना की पूर्ति के लिए इस व्रत को रखती हैं. रम्भा तृतीया के दिन पूजा उपासना करने से आकर्षक सुन्दरतम वस्त्र, अलंकार और सौंदर्य प्रसाधनों की प्राप्ति होती है. काया निरोगी रहती है और यौवन बना रहता है.