गुरुवायुर एकादशी पूजा विधि और शुभ मुहूर्त
हिंदू धर्म में एकादशी को शुभ माना जाता है. साल में पड़ने वाली एकादशियों में से मलयालम महीने वृश्चिकम में आने वाली वृश्चिका एकादशी का विशेष महत्व है. केरल के गुरुवायुर में श्री कृष्ण मंदिर में भगवान विष्णु की पूजा का एक महत्वपूर्ण दिन है. इस दिन व्रत रखना, मंदिर जाना, प्रार्थना और तुलसी के पत्ते चढ़ाना और गायों को चारा खिलाना जैसे कई अनुष्ठान किए जाते हैं.
गुरुवायुर मंदिर में, जिसके मुख्य देवता भगवान कृष्ण हैं, उनके निमित्त पूजन होता है. एकादशी विलक्कू जिसका का अर्थ है जला हुआ दीपक यह कार्य एकादशी के दिन से एक महीने पहले शुरू होता है. यह भक्तों द्वारा एक भेंट के रूप में किया जाता है.
मंदिर में महीने भर चलने वाले एकादशी उत्सव के मुख्य आकर्षण उदयाष्टमन पूजा जो सुबह से शाम तक की पूजा होती है. प्रसिद्ध मंदिर के हाथी गजराजन केशवन के लिए एक स्मारक सेवा और प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार चेम्बाई वैद्यनाथ भागवतार की याद में आयोजित ग्यारह दिवसीय कर्नाटक संगीत समारोह. और एकादशी के दिन शाम की पूजा के बाद हाथी जुलूस के साथ प्रसिद्ध एकादशी विलक्कु निकाली जाती है.
गुरुवायुर एकादशी कब मनाई जाती है
गुरुवायुर एकादशी को गीता जयंती और गीतोपदेशम दिवस के रूप में भी मनाया जाता है. भारत के दक्षिण में स्थित केरल में गुरुवायुर एकादशी का पर्व पूरी आस्था के साथ मनाया जाता है. मलयालम कैलेंडर के अनुसार गुरुवायुर एकादशी की तिथि वृश्चिक मास के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन होती है. यह एकादशी 41 दिनों तक चलने वाले प्रसिद्ध मंडला पूजा उत्सव के दौरान आती है.
गजराजन गुरुवायुर केशवन के सम्मान में हाथी जुलूस निकाला जाता है. एकादशी को एक शुभ दिन माना जाता है इस समय पर भगवान विष्णु की बड़ी श्रद्धा के साथ पूजा की जाती है. गुरुवायूर एकादशी केरल के गुरुवायूर स्थित श्री कृष्ण मंदिर में मनाई जाती है. अन्य क्षेत्रों में इस एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी और देवउठनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. मलयालम कैलेंडर के अनुसार, यह एकादशी वृश्चिकम महीने में मनाई जाती है.
गुरुवयूर एकादशी पूजा विशेष
गुरुवायुर एकादशी का अपना धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है और यह दिन पूरी तरह से केरल के गुरुवायुर में श्री कृष्ण मंदिर में भगवान कृष्ण की पूजा करने के लिए समर्पित है. गुरुवायुर एकादशी के इस शुभ दिन पर, हाथियों की एक बड़ी जुलूस निकाली जाती है जिसमें कई हाथी शामिल होते हैं. मान्यता के अनुसार, एक बार एक हाथी गजराजन गुरुवायुर केशवन था, जिसकी मृत्यु इस शुभ एकादशी पर हुई थी.
गुरुवायुर मंदिर के पन्नाथुर कोट्टा में हाथियों के नेता गुरुवायुर केशवन की मूर्ति पर माला चढ़ाते हैं और अन्य सभी हाथी मूर्ति के चारों ओर बैठते हैं और पूजा करते हैं. हाथी जुलूस पार्थसारथी मंदिर भी जाते हैं क्योंकि भगवान कृष्ण ने इस शुभ दिन अर्जुन को भगवद गीता सुनाई थी. इस दिन को गीता जयंती, गीतोपदेशम दिवस के रूप में भी मनाया जाता है.
गुरुवायुर एकादशी कथा
द्वारकापुरी में एक विशेष मूर्ति थी, जिसे श्री हरि विष्णु ने ब्रह्माजी को प्रदान किया था. इस दिव्य मूर्ति का प्राचीन इतिहास रहा कथा अनुसार एक बार महाराज सुतपा और उनकी रानी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ब्रह्माजी की आराधना की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वह मूर्ति महाराज सुतपा को प्रदान की और उनसे इस मूर्ति की नियमित पूजा करने को कहा. महाराज ने पूरी श्रद्धा के साथ इस मूर्ति की पूजा शुरू कर दी. उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि 'मैं स्वयं विष्णु तुम्हारी रानी के गर्भ से अनेक रूपों में जन्म लूंगा.'
अगले जन्म में उन्हीं राजा सुतपा और उनकी रानी ने राजा कश्यप और रानी अदिति के नाम से जन्म लिया. इस बार भगवान विष्णु ने बावन के रूप में उनके घर जन्म लिया. इसके बाद अगले जन्म में सुतपा ने वसुदेव के रूप में जन्म लिया. उनकी पत्नी देवकी के गर्भ से कृष्ण का जन्म हुआ. कंस का वध करने के बाद वसुदेव ने यह प्राचीन मूर्ति ऋषि धौम्य को दे दी. ऋषि धौम्य ने इस मूर्ति को द्वारका में स्थापित किया.
बहुत समय बीतने के बाद एक बार श्री कृष्ण ने अपने मित्र उद्धव को देव गुरु बृहस्पति के पास एक विशेष संदेश लेकर भेजा. संदेश यह था कि द्वारकापुरी शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है. उस समय वह मूर्ति वहीं विराजमान थी. भगवान कृष्ण ने उद्धव से कहा कि वह मूर्ति असाधारण है और कलियुग में मेरे भक्तों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होगी.
बृहस्पति और वायु देव ने की प्राण प्रतिष्ठा
श्री कृष्ण का संदेश पाकर जब देवगुरु बृहस्पति द्वारका पहुंचे, तब तक द्वारका समुद्र में डूब चुकी थी. देवगुरु बृहस्पति ने वायुदेव की सहायता से इस मूर्ति को समुद्र से निकाला और इसे स्थापित करने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज शुरू कर दी. वर्तमान में यह मूर्ति केरल में स्थापित है. कहा जाता है कि जिस मंदिर में यह मूर्ति स्थापित की गई थी, वहां एक सुंदर सरोवर था.
भगवान शिव, देवी पार्वती के साथ इसी झील के किनारे जलक्रीड़ा करते थे. बृहस्पति जी ने शिव से अनुमति लेकर उस प्राचीन मूर्ति को यहां स्थापित किया था. गुरु और वायु देव ने केरल के उस पवित्र स्थान पर इस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की थी, इसलिए इसका नाम गुरुवायुर पड़ा.
गुरुवायुर एकादशी महत्व
केरल के गुरुवायुर कृष्ण मंदिर में गुरुवायुर एकादशी पर विभिन्न आयोजन किए जाते हैं. मान्यता है कि इस एकादशी पर गुरुवायुर मंदिर में विधि-विधान से भगवान कृष्ण की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं. केरल के प्रसिद्ध गुरुवायुर कृष्ण मंदिर में गुरुवायुर एकादशी बड़े ही उत्साह के साथ मनाई जाती है. इस एकादशी पर उदयस्थमन पूजा यानी सुबह से शाम तक पूजा, देवस्वोम द्वारा आयोजित की जाती है.
दक्षिण भारत में गुरुवायुर एकादशी पर सुबह की सीवेली एक छोटी पूजा के बाद पार्थसारथी मंदिर में हाथियों की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. इस दिन को गीतोपदेशम दिवस के रूप में भी मनाया जाता है. इस तिथि पर रात्रि में पूजा करने के बाद शोभायात्रा के साथ दीपदान किया जाता है, जिसे एकादशी विलक्कू कहते हैं. इसके साथ ही यह पर्व समाप्त हो जाता है. इस दिन मंदिरों में निर्माल्य दर्शन किए जाते हैं, जो सुबह से शुरू होकर अगले दिन यानी द्वादशी तिथि तक चलते हैं. द्वादशी के दिन मंदिरों में द्वादशी पणम के नाम से अपनी क्षमता के अनुसार धन चढ़ाने की भी परंपरा है.