केदार गौरी व्रत और पूजा विधि

केदार गौरी व्रत को दीपावली के दिन किया जाता है. शास्त्रों के अनुसार यह व्रत देवी पार्वती ने रखा था. देवी ने जब भगवान का आधा शरीर पाया तब भगवान अर्धनारीश्वर कहलाए.

कथाओं के अनुसार एक बार माता पार्वती के एक भक्त ने अपनी भक्ति छोड़कर भगवान शिव की पूजा शुरू कर दी. जिससे माता पार्वती बहुत क्रोधित हो गईं. माता पार्वती ने शिव के शरीर का अंग बनने के लिए गौतम ऋषि की तपस्या की. तब गौतम ऋषि ने माता पार्वती को पूरी श्रद्धा के साथ लगातार 21 दिनों तक केदार गौरी व्रत रखने को कहा. माता पार्वती ने सलाह अनुसार नियमानुसार 21 दिनों तक केदार गौरी व्रत रखा. इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने अपने शरीर का बायां हिस्सा माता पार्वती को दे दिया. तभी से उनका यह रूप अर्धनारीश्वर के नाम से जाना जाने लगा. तभी से इस दिन केदार गौरी व्रत रखा जाता है. माता पार्वती ने स्वयं भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए यह व्रत रखा था.

केदार गौरी व्रत : केदारेश्वर व्रत
केदार गौरी व्रत को लोकप्रिय रूप से केदारेश्वर व्रत के रूप में भी जाना जाता है और यह एक शुभ उत्सव है जो दिवाली के दौरान कार्तिक अमावस्या के दिन मनाया जाता है. यह व्रत भगवान शिव की पूजा करने एवं शक्ति के आहवान के लिए विशेष माना गया है. पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि देवी पार्वती ने भगवान शिव का अंश बनने के लिए केदार गौरी व्रत रखा था.

भारत के उत्तरी क्षेत्रों में, केदार गौरी व्रत कार्तिक महीने की अमावस्या को मनाया जाता है तो अन्य क्षेत्रों में इसे आश्विन अमावस्या पर भी मनाया जाता है. शुरू में भक्तों ने कार्तिक या आश्विन माह के दौरान कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन इस व्रत को करना आरंभ किया और दिवाली के दौरान अमावस्या को इसका समापन हुआ. लेकिन वर्तमान समय में, केदार गौरी व्रत केवल अमावस्या के दिन मनाया जाता है. यह पूरे भारत में, खासकर दक्षिणी राज्यों में बहुत ही धूमधाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है.

केदार गौरी पूजा और व्रत नियम
केदार गौरी व्रत को हमारे शास्त्रों में बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. केदार गौरी व्रत करने से व्यक्ति की सभी इच्छाएं और मनोकामनाएं पूरी होती हैं. मान्यताओं के अनुसार देवताओं ने भी अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए केदार गौरी व्रत किया . केदार गौरी व्रत का विशेष महत्व है. केदार गौरी व्रत शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शुरू होता है जो अमावस्या यानी दिवाली के दिन समाप्त होता है. केदार गौरी व्रत शिव को समर्पित है और यह 21 दिनों तक चलता है. इसे मुख्य रूप से दक्षिण भारत में मनाया जाता है. मान्यता है कि केदार गौरी व्रत रखने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और घर में सुख, समृद्धि और सौभाग्य आता है. आ

केदार गौरी व्रत पूजा विधि
केदार गौरी व्रत में भक्त सूर्योदय के समय उठते हैं और जल्दी स्नान करते हैं. भगवान शिव एवं देवी पार्वती जी का पूजन करते हैं. पूजा की शुरुआत भगवान केदार ईश्वर को जल से भरे कलश में स्थापित करके की जाती है. कलश के ऊपर एक मंडप या छत भी बनाई जाती है. फिर भक्त 21 गांठों वाले 21 रेशों को लेकर व्रत के धागे बनाते हैं. फिर इस धागे को कलश के चारों ओर बांधा जाता है और चंदन, चावल, फूल और फलों से पूजा की जाती है. केदार गौरी व्रत के दिन, 21 अलग-अलग प्रकार के भोग तैयार किए जाते हैं और भगवान को चढ़ाए जाते हैं. इस व्रत को करने वाले को इक्कीस ब्राह्मणों को भी आमंत्रित करना चाहिए और उन्हें भोजन, कपड़े और पैसे देने चाहिए.

उपवास इस दिन का एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है. कुछ क्षेत्रों में केदार गौरी व्रत 21 दिनों तक रखा जाता है, हालाँकि वर्तमान में अधिकांश भक्त एक दिन का उपवास रखते हैं. जो व्यक्ति इस व्रत का पालन करता है, वह पूजा पूरी होने तक कुछ भी नहीं पीता या खाता है. ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद केवल एक बार भोजन करने की अनुमति है. यदि किसी कारण से कोई पूर्ण उपवास नहीं रख सकता है, तो केदार गौरी व्रत पर आंशिक उपवास की अनुमति है. इसमें भक्त फल और दूध से बने पदार्थ ग्रहण करते हैं.

केदार गौरी कथा
केदार गौरी व्रत से जुड़ी एक पौराणिक कथा है. जिसके अनुसार भृङ्गी ऋषि, भगवान शिव के अनन्य एवं महान भक्त थे और वह भगवान शिव के अलावा किसी की भक्ति नहीं करना चाहते थे. ऋषि मात्र भगवान शिव पर विश्वास करते थे. भृङ्गी ऋषि भगवान शिव की उपासना में इतने लीन हो गये कि, देवी शक्ति की उपेक्षा करने लगे थे. ऋषि के इस व्यवहार से देवी आदिशक्ति क्रोधित हो गयीं तथा उन्होंने भृङ्गी ऋषि के शरीर से समस्त ऊर्जा हर ली.

ऋषि के शरीर से जो ऊर्जा बाहर निकल गयी, वो ऊर्जा स्वयं देवी गौरी ही थीं. भृङ्गी ऋषि के शरीर से निकली ऊर्जा भगवान शिव में विलीन होना चाहती थी. उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये केदार व्रत का पालन किया. शक्ति की तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान शिव ने उन्हें निवास के लिये अपने शरीर का बायाँ भाग दे दिया. तभी से, भगवान शिव एवं देवी शक्ति के इस स्वरुप को अर्धनारीश्वर के रूप में जाना जाने लगा.