नरसिंह द्वादशी 2024 : भगवान का पूजन करने से पूर्ण होंगे सभी मनोरथ

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को नरसिंह द्वादशी के रुप में पूजा जाता है. भगवान श्री विष्णु के दो स्वरुप इस दिन विशेष रुप से पूजे जाते हैं. इस दिन भगवान को नृसिंह रुप में और  गोंविद रुप में भी पूजा जाता है. नृसिंह अवतार में भगवान भक्तों के कष्टों को हर लेने वाले हैं. श्री विष्णु के अनेक अवतारों में एक अवतार है नृसिंह अवतार. श्री हरि ने अपने इस अवतार में भी सृष्टि के कल्याण हेतु कार्य किया. भगवान नरसिंह का पूजन करने से भक्तों को कई प्रकार की शुभता प्राप्त होती है. 

श्री नरसिंह भगवान पौराणिक महत्व 

श्री विष्णु भगवान के समस्त अवतारों का उल्लेख मिलता है. इसमें विष्णु पुराण, इत्यादि में नरसिंह भगवान के स्वरुप एवं उनकी महत्ता के बारे में समझ पाना आसान होता है. श्री नृसिंह देव को शक्ति एवं साहस का परिचायक माना गया है. भगवान श्री विष्णु का ये स्वरुप भक्तों को शक्ति एवं समृद्धि को प्रदान करने वाला होता है. नृसिंह द्वादशी के संबंध में कुछ कथाएं प्राप्त होती हैं. इन कथाओं में भगवान का स्वरुप हिरण्यकाशपु के वध के लिए अवतार लेने का समय को दिखाता है. 

नरसिंह द्वादशी कथा 

एक प्रमुख कथा विष्णुपुराण में मिलती है इस कथा के अनुसार ऋषि कश्यप एवं उनकी पत्नी दिती को दो संताने होती हैं. इन संतानों का नाम था हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु. दोनों की प्रवृत्ति असुरी थी ओर इस कारण वह देवताओं के शत्रु रुप में ही अधिक स्थापित होते हैं. दोनों ही भाई बेहद शक्ति संपन्न एवं साहस उदंड प्रवृत्ति के रहते हैं. अपने कार्यों द्वारा वह देवताओं को सताने में भी आगे रह सकते हैं.  एक बार हिरण्याक्ष अपनी शक्ति के अहंकार में चूर होकर पृथ्वी को रसातल में ले जाता है, तब श्री विष्णु भगवान ने वाराह का अवतार लेकर हिरण्याण का वध किया और पृथ्वी को राक्षस से मुक्त कराकर पुन: स्थापित करते हैं. 

हिरण्यकशिपु की तपस्या एवं वरदान प्राप्ति

हिरण्यकशिपु श्री विष्णु से बदला लेने हेतु कठिन तप करता है.  हिरण्यकशिपु भगवान ब्रह्मा की साधना करता है. वह समस्त कठोर तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न करते हैं. ब्रह्मा जी उसकी साधना से प्रसन्न होकर हरिण्यकशिपु के समक्ष जाते हैं और उसे वरदान मांगने को कहते हैं तब  हिरण्यकशिपु भगवान से अपने आप को अजय एवं मृत्यु से मुक्त होने का वरदान मांगता है. ऎसे में ब्रह्म अजी कहते हैं की जो जन्मा है उसकी मृत्यु संभव होगी ऎसे में  हिरण्यकशिपु कहता है कि तो वह उसे ये वरदान दें की उसे कोई न कोई पशु न कोई मनुष्य मार सके, न उसे दिन में मारा जा सके और न उसे रात्रि में मारा जा सके, न उसे घर के अंदर मारा जा सके और न घर के बाहर ,मारा जा सके. न किसी अस्त्र से न किसी शस्त्र से उसकी मृत्यु हो इस प्रकार वर मांगने पर ब्रह्मा जी उसे वरदान दे कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं. 

वरदान को पर  हिरण्यकशिपु के अत्याचारों में और अधिक वृद्धि होने लगती है. उसने अपने इस वरदान के बल पर दूसरों को प्रताडि़त करना आरंभ कर दिया. इंद्र का पद छीन कर उसने देवताओं को परेशान करना शुरु कर दिया. श्री विष्णु से शत्रुता के कारण उसने भगवान की पूजा को समाप्त करवा दिया अपने आप को भगवान के पद पर स्थापित कर दिया. अब जो भी श्री विष्णु करता था तो वह उन्हें कठोर दंण्ड देता था.  हिरण्यकशिपु का एक पुत्र था प्रह्लाद जो जन्म समय से ही श्री विष्णु का परम भक्त था. जब अपने पुत्र के मुख से उसने श्री विष्णु की उपासना को सुना तो उसे अत्यंत क्रोध आया और उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को कई तरह की यातनाएं दी हर प्रकार से उसे श्री विष्णु भगवान के पूजन से विमुख करने का प्रयास किया लेकिन प्रह्लाद की भक्ति कम न हो पाई. 

प्रह्लाद की भक्ति और नरसिंह अवतार

प्रह्लाद अपनी भक्ति से जरा भी नहीं डिगा तब  हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका को उसे मारने का आदेश दिया क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था की वह अग्नि में नहीं जल सकती है ऎसे में वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठा जाती है लेकिन यहां होलिका जल कर मर जाती है किंतु प्रह्लाद को कुछ नहीं होता है. अंतिम प्रयास में वह उसे मारने के लिए स्वयं उद्दत होता है और इस दौरान बहस में वह अपने पुत्र से कहता है कि तुम्हें श्री विष्णु पर इतना विश्वास है तो क्या वह इस खंबे में भी मौजूद है तब प्रह्लाद कहता है की भगवान कण कण में मौजूद हैं इस पर  हिरण्यकशिपु उस खंबे पर प्रहार करता है और तभी उस खंबे से श्री विष्णु नृसिंह के रुप में अवतरित होते हैं जो आधा मनुष्य आधा सिंह का अवतार था. हिरण्यकशिपु को नरसिंह देव पकड़ कर उसे उसके महले की दहलीज पर ले जाकर अपनी जंघा पर लेटा कर गोधुली बेला में अपने नाखूनों से उसकी छाति फाड़ देते हैं ओर इस प्रकार  हिरण्यकशिपु का अंत होता है ओर देवता पुन: दैत्यों के आतंक सेमुक्त होते हैं.