राहु केतु और काल सर्प दोष (Rahu, Ketu and Kalsarp Dosha)
राहु केतु अशुभ और पीड़ादायक ग्रह माने जाते हैं. धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र में कई स्थान पर यह उल्लेख आया है कि यह दोनों ग्रह भले दो हैं परंतु वास्तव में यह एक ही शरीर के दो भाग हैं. इनका शरीर सर्प के आकार का है राहु जिसका सिर है और केतु पूंछ. अंग्रेजी भाषा में राहु को ड्रैगन हेड और केतु को ड्रैगन टेल कहा गया है. ज्योतिषशास्त्र में जिन नौ ग्रहों की चर्चा की जाती है उनमें राहु और केतु ही मात्र ऐसे ग्रह हैं जो सदैव वक्री चाल चलते हैं शेष सभी ग्रह मार्गी और वक्री होते रहते हैं.सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि ये सभी ग्रह जब गोचर में भ्रमण करते हुए राहु और केतु के बीच में आ जाते हैं उस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उसकी कुण्डली में कालसर्प योग बनता है. यह योग अशुभ फलदायक होने के कारण कालसर्प दोष कहलाता है. इस दोष की चर्चा जैमिनी, पराशर, वराहमिहिर, बादरायण, गर्ग एवं बादरायण ऋषियों ने भी किया है. राहु केतु के बीच में आ जाने के कारण शेष सातों ग्रहों की शक्ति कमज़ोर पड़ जाती है जिससे वह अपना पूर्ण शुभ फल नहीं दे पाते हैं.
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इस दोष के विषय में विद्वानों ने यह भी कहा है कि जब सातों ग्रहों में से कोई भी एक या दो ग्रह राहु और केतु के चक्र से बाहर निकल आते हैं तब कालसर्प योग नहीं बनता है. लेकिन, इसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि जो ग्रह राहु केतु के चक्र से बाहर हों उनका अंश राहु केतु से अधिक होना चाहिए। यदि, उन ग्रहों का अंश राहु केतु से कम है तो कुण्डली कालसर्प दोष से प्रभावित ही मानी जाएगी. कालसर्प दोष के विषय में कुछ ज्योतिषशास्त्रियों का मानना है कि कालसर्प दोष की जांच करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जन्मपत्री में यदि राहु केतु द्वितीय, षष्टम, अष्टम या एकादश में हो और सभी एक ही तरफ एक गोलर्द्ध में हो तब कालसर्प दोष मानना चाहिए. जबकि, सातों ग्रहों एक ही ओर इसके विपरीत दिशा में हों तब कालसर्प दोष की बजाय अर्धचन्द्र योग बनता है.