वट सावित्रि अमावस्या पूजा और व्रत प्रभाव

वट सावित्री अमावस्या जिसे विशेष रूप से विवाहित स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और परिवार की खुशहाली के लिए मनाती हैं. यह पर्व सावित्री और सत्यवान की अमर कथा पर आधारित है जो पत्नी की तपस्या, भक्ति और दृढ़ संकल्प की प्रतीक मानी जाती है. यह व्रत हिन्दू धर्म में विवाहित स्त्रियों के लिए अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण माना गया है. वट यानी वटवृक्ष (बड़ का पेड़), सावित्री यानी वह पवित्र स्त्री जिसने अपने पति को यमराज से वापस पाया. इस दिन महिलाएं उपवास रखती हैं वटवृक्ष की पूजा करती हैं और सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती हैं.

वट सावित्रि अमवास्या कब मनाई जाती है

वट सावित्री अमावस्या हर वर्ष ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाया जाता है. कुछ क्षेत्रों में इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा को भी मनाया जाता है, परंतु अधिकांश स्थानों पर अमावस्या को इसका विशेष महत्व है. इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति की दीर्घायु, अच्छे स्वास्थ्य और अखंड सौभाग्य की कामना करना है. यह व्रत स्त्रियों को अपने पारिवारिक और वैवाहिक जीवन के प्रति दायित्वबोध कराता है.

वट सावित्री अमावस्या का आधार प्रसिद्ध पौराणिक कथा है. इसके अनुसार, सावित्री एक राजकुमारी थीं जिन्होंने सत्यवान नामक वनवासी राजकुमार से विवाह किया. नारद मुनि ने सावित्री को पहले ही चेतावनी दी थी कि सत्यवान अल्पायु है, परंतु सावित्री ने उन्हें अपना जीवनसाथी स्वीकार किया. विवाह के बाद वह अपने पति के साथ वन में रहने लगीं. नियत दिन जब यमराज सत्यवान के प्राण लेने आए, तो सावित्री ने दृढ़ निश्चय किया कि वह अपने पति को नहीं खोएंगी. वह यमराज के पीछे-पीछे चलने लगीं और अपने ज्ञान, धैर्य और वाणी से उन्हें प्रभावित किया. अंततः यमराज ने सावित्री की निष्ठा से प्रसन्न होकर सत्यवान के प्राण लौटा दिए. इस प्रकार सावित्री ने अपने पति को मृत्यु से भी वापस ले लिया.

वट सावित्री अमावस्या और वट वृक्ष का पूजन 

वट सावित्री अमावस्या हिन्दू धर्म में विवाहित स्त्रियों के लिए अत्यंत पावन पर्व है. यह व्रत हर साल ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है. इस दिन महिलाएं अपने पति की दीर्घायु, संतान सुख और वैवाहिक जीवन की स्थिरता के लिए व्रत रखती हैं. इस अवसर पर वटवृक्ष (बड़ के पेड़) की पूजा की जाती है, और प्राचीन समय की दृढ़ नारी ‘सावित्री’ की कथा का स्मरण किया जाता है. यही कारण है कि यह व्रत वट सावित्री अमावस्या कहलाता है.

भारतीय परंपरा में इस व्रत को एक आदर्श नारी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है. स्कंद पुराण, भविष्योत्तर पुराण और अन्य धर्मग्रंथों में इस व्रत का महत्त्वपूर्ण वर्णन मिलता है. यह व्रत वट और सावित्री दोनों के पवित्र प्रतीक रूप को सामने लाता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और शिव का निवास माना जाता है, और इसकी छाया में व्रत-पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

इस दिन केवल सावित्री और सत्यवान की पूजा नहीं होती, बल्कि धर्म के देवता यमराज का भी पूजन किया जाता है. परंपरा के अनुसार मिट्टी या धातु से सावित्री, सत्यवान और यमराज की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं और उन्हें धूप, दीप, चंदन, फल, फूल आदि अर्पित किए जाते हैं.

वट सावित्रि अमावस्या पौराणिक कथा

सावित्री की कथा प्राचीन भारतीय इतिहास में दृढ़ संकल्प और नारी शक्ति का अद्वितीय उदाहरण है. एक समय भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान नहीं थी. वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद देवी सावित्री प्रसन्न हुईं और उन्हें एक पुत्री का आशीर्वाद दिया. इस पुत्री का नाम सावित्री रखा गया, जो बड़ी होकर अत्यंत सुंदर, बुद्धिमान और गुणों से परिपूर्ण बनीं.

जब विवाह योग्य उम्र हुई, तो राजा अश्वपति ने स्वयं योग्य वर खोजने की कोशिश की, लेकिन जब उन्हें कोई उपयुक्त वर नहीं मिला, तो उन्होंने सावित्री को स्वयं वर चयन की अनुमति दी. एक दिन वन भ्रमण के दौरान सावित्री की मुलाकात साल्व देश के वनवासी राजा द्युमत्सेन और उनके पुत्र सत्यवान से हुई. सत्यवान बलवान, गुणवान और धर्मपरायण था, सावित्री ने उसे ही अपना जीवनसाथी मान लिया.

जब नारद मुनि को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने राजा अश्वपति को सावधान करते हुए कहा कि सत्यवान अल्पायु है और एक वर्ष के भीतर उसकी मृत्यु निश्चित है. इस बात से राजा चिंतित हो गए और सावित्री से पुनः विचार करने को कहा, लेकिन सावित्री अडिग रही. उसने कहा, आर्य कन्या एक बार ही वर चुनती है और मैं अपने प्रण से पीछे नहीं हटूंगी. इस प्रकार सत्यवान और सावित्री का विवाह हुआ और वह अपने पति के साथ वन में रहने लगी.

समय बीतता गया और सावित्री को याद था कि सत्यवान का जीवन अब सीमित है. मृत्यु तिथि के तीन दिन पूर्व ही उसने उपवास करना शुरू कर दिया और ध्यान तथा व्रत का पालन करते हुए दिन व्यतीत करने लगी. नियत दिन सत्यवान रोज की तरह लकड़ी काटने वन गया और सावित्री भी साथ गई.

वन में सत्यवान को अचानक तेज सिरदर्द हुआ और वह अचेत हो गया. तभी यमराज, मृत्यु के देवता, प्रकट हुए और सत्यवान के प्राण लेकर दक्षिण दिशा की ओर बढ़ने लगे. सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल दी. यमराज ने उसे रोका और समझाया कि यह सृष्टि का नियम है, लेकिन सावित्री अपनी दृढ़ निष्ठा पर अडिग रही.

यमराज उसकी भक्ति और निष्ठा से प्रभावित हुए और बोले वर मांगो.

सावित्री ने कहा मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें दृष्टि प्राप्त हो. यमराज ने यह वर दिया. कुछ दूर और चलते हुए यमराज ने फिर कहा एक और वर मांगो. सावित्री ने मांगा मेरे ससुर को पुनः उनका राज्य मिल जाए. यह वर भी दिया गया.

लेकिन सावित्री अब भी पीछे-पीछे चलती रही. यमराज ने तीसरा वर मांगने को कहा. इस बार सावित्री बोली मैं सत्यवान से सौ पुत्रों की मां बनूं. यमराज ने तथास्तु कहा, लेकिन तब भी सावित्री नहीं रुकी.यमराज कुछ क्रोधित हुए और बोले अब तो लौट जाओ. 

सावित्री ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया आपने मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का आशीर्वाद दिया है, पर यदि मेरे पति ही जीवित नहीं रहे तो यह कैसे संभव होगा यमराज सावित्री की बुद्धिमत्ता और भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए और सत्यवान के प्राण उसे लौटा दिए.

सावित्री सत्यवान को लेकर उसी वटवृक्ष के नीचे लौटीं, जहां वह अचेत पड़ा था. सत्यवान ने धीरे-धीरे आंखें खोलीं और स्वस्थ हो गया. जब दोनों घर लौटे, तो देखा कि उनके सास-ससुर को दृष्टि प्राप्त हो चुकी थी और उनका राज्य भी वापस मिल गया था. इस प्रकार सावित्री के धैर्य, भक्ति और विवेक के बल पर उसके पूरे परिवार को सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हुई.

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