गजेन्द्र मोक्ष स्त्रोत | Gajendra Moksha Stotra | Gajendra Stotra

श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध के तीसरे अध्याय में गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र दिया गया है. इसमें कुल तैतीस श्लोक हैं इस स्त्रोत में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन किया गया है, जिसमें गजेन्द्र ने ग्राह के मुख से छूटने के लिए श्री हरि की स्तुति की थी और प्रभ श्री हरि ने गजेन्द्र की पुकार सुनकर उसे ग्राह से मुक्त करवाया. गजेन्द्र मोक्ष का माहात्म्य बतलाते हुए कहा गया है कि इसको समस्त पापों का नाशक, साधक कहा गया है.

इसका प्रतिदिन स्मरण करने से व्यक्ति के संकट दूर होते हैं तथा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है. यह एक ऎसा स्त्रोत है जो व्यक्ति को घोर संकट से भी उबारदेता है. इस स्त्रोत पाठ को करने से पूर्व अपनी समस्या का स्मरण करते हुए उससे मुक्ति की कामना हेतु गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का पाठ आरंभ करना चाहिए भगवान विष्णु जी के सम्मुख दिप प्रज्जवलित करके इस स्त्रोत का जाप आरंभ करें. सच्चे मन एवं श्रद्धा से किया गजेन्द्र मोक्ष का पाठ सभी संकटों को दूर करने वाला होता है.

श्री शुक उवाच | Sri Shukra Uvach

एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो ह्रदि।

जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥1॥

गजेन्द्र उवाच | Gajendra Uvach

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।

पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥2॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्|

योऽस्मातपरस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।३।।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।

अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः।।४।।

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।

तमस्तदाऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।५।।

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।

यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।६।।

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः।

चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भुतात्मभूताः सुह्रदः स मे गतिः।।७।।

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरुपे गुणदोष एव वा।

तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया यः तान्यनुकालमृच्छति।।८।।

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।

अरुपायोरुरुपाय नम आश्चर्यकर्मणे।।९।।

नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।

नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।१०।।

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्विता

नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे।।११।।

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे।

निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च।।१२।।

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।

पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः।।१३।।

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।

असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः।।१४।।

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय।

सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय।।१५।।

गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।

नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।१६।।

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।

स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते।।१७।।

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।

मुक्तात्मभिः स्वह्रदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।१८।।

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।

किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्।।१९।।

एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।

अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः।।२०।।

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।

अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।२१।।

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।

नामरुपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः।।२२।।

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः।

तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।२३।।

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः।

नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः।।२४।।

जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।

इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्।।२५।।

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।

विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्।।२६।।

योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते।

योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्।।२७।।

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।

प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।२८।।

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।

तं दुरत्ययामाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।२९।।

श्री शुक उवाच | Shri Shuk Uvach

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।

नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्।।३०।।

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।

छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।३१।।

सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्।

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते।।३२।।

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।

ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिमूमुचदुस्त्रियाणाम्।।३३।।