वक्री ग्रहों के बारे में यह विचार करना की वह किस प्रकार के फलों को देने वाले होते हैं, इस तथ्य की पुष्टी में कई विचारों का समावेश मिलता है. इसके विषय में प्राचीन ज्योतिषी ग्रंथों में कुछ बातें कहीं गई हैं कुछ के अनुसार वक्री ग्रह अपने फलों को पूर्ण रूप से देने वाले बनते हैं.

वक्री को पूर्ण बल प्राप्त होता है अत: जब वह अपने फल को देते हैं उसमें पूर्णता: रखते हैं. इसी के साथ कुछ के अनुसार यह ग्रह शुभ हों तो शुभता को और अधिक बढा़ देते हैं किंतु यदि यह अशुभ हैं तो अशुभता में वृद्धि कर देते हैं. परंतु कहीं कहीं इस बात के विषय में भी अनेक मतभेद प्राप्त होते हैं जिनके अनुसार ग्रहों के वक्री होने पर उनके शुभ या अशुभ होने पर फल वैसे नहीं मिलते जैसे वह होते हैं अपितु इसके स्वामित्व और दृष्टि प्रभाव के अनुरूप ही फल मिल पाते हैं.

वक्री ग्रहों से अरिष्ट का प्रभाव | Effects of Arishta through Retrograde Planets

वक्री ग्रहों के द्वारा अरिष्ट का आंकलन करने में भी काफी सहायता मिलती है. कुंडली में वक्री ग्रह स्थिति, गोचर तथा वक्री ग्रह दशा-अन्तर्दशा से अरिष्ट योगों को समझा जा सकता है. रोगों का विचार अष्टमेश और आठवें भाव में स्थित निर्बल ग्रहों से किया जाता है. अप्रत्यक्ष कारणों से होने वाले रोगों का विचार षष्ठेश, छठे भाव में स्थित वक्री ग्रहों तथा जनमकुंडली में पीड़ित राशि व पीड़ित ग्रहों से किया जाता है.

  • शुभ ग्रह 6 या 8वें भाव में वक्री पाप ग्रहों से दृष्टि संबंध बना रहे हों और साथ ही साथ इन पर कोई शुभ दृष्टि नहीं पड़ रही हो तो जातक को बहुत कष्ट और मृत्यु तुल्य कष्ट मिल सकता है.
  • इसके अतिरिक्त लग्न से दूसरे, बारहवें, या छठे और आठवें भाव में पाप ग्रह दोनों और स्थित हों या कहें कि पाप कर्तरी में हों तथा इन पर कोई भी शुभता दृष्टि नही डाल रही हो तो ऎसी स्थिति में जातक को कष्ट की प्राप्ति होती है.
  • जन्म कुण्डली का लग्नेश व जन्म राशीश दोनों ही अस्त हो रखें हो तथा छठे, आठवें और बारहवें भावों में कहीं भी स्थित हों तो जिस राशि में स्थित हो उतनी ही संख्या के वर्षों में जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट होता है.
  • लग्नेश सप्तम भाव में अगर पाप ग्रहों से ग्रह युद्ध में पराजित हो रहा हो या चंद्रमा अथवा जन्म राशीश सप्तम में पाप ग्रह पराजित हो और यहां किसी भी शुभ दृष्टि का प्रभाव नही हो तो यह स्थिति एक वर्ष के दौरान अरिष्ट से मृत्यु तुल्य कष्ट देने वाली बनती है.
  • चंद्रमा के साथ सूर्य व मंगल दूसरे व पांचवें भाव में स्थित हों और शुभ दृष्टि से प्रभावित नहीं हों तो नवें वर्ष में जातक को अरिष्ट का भय रहता है.
  • लग्नेश यदि आठवें भाव में स्थित हो और उसे सभी या कई पाप ग्रह मजबूत होकर देख रहे हों तो यह स्थिति अच्छी नहीं होती ओर अरिष्ट का कारण बनती है.
  • चंद्रमा सिंह राशि में स्थित हो और जन्म राशीश सूर्य वक्री शनि के साथ आठवें भाव में स्थित हो और उसे वक्री शुक्र देख रहा हो तो जातक को अरिष्ट की संभावना बनी रहती है और उसके लिए यह समय बहुत नाजुक होता है.

वक्री ग्रहों के साथ ही कुंडली में जो भाव या राशि पाप ग्रह से पीड़ित हो या जिसका स्वामी बुरे भाव मे हो तो उक्त राशि तथा भाव से संबंधित रोग जातक के लिए घातक हो सकते हैं. छठा भाव एक खराब भाव बनकर रोगों का भाव बनता है. इसे शुभ भाव नहीं कहा जाता है. जब वक्री लगनेश का संबंध इस भाव से होता है तो जातक को कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ सकता है.

अरिष्ट होने की संभावनाओं में वृद्धि बनी रहती है. जब वक्री लग्नेश का संबंध अष्टम भाव से होता है तब स्वास्थ्य के खराब होने का योग बनता है. अष्टम भाव अर्थात आयु जिस पर किसी वक्री पाप ग्रह का संबंध बने तो व्यक्ति मानसिक तथा शारीरिक परेशानियों का कारण बनता है.