चन्द्र प्रज्ञाप्ति - ज्योतिष इतिहास | Chandra Pragyapati | Jyotishkarandka | Jyotishkarandka | Jyotisha History

चन्द्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ में सूर्य और चन्द्र दोनों का वर्णन किया गया है. चन्द्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ विशेष रुप से "छाया साधना" पर आधारित है. इस ग्रन्थ में 25 प्रकार की छाया बताई गई है. इन छायाओं का विश्लेषण कर व्यक्ति के भविष्य का ज्योतिष किया जाता है. इन 25 छायाओं में से प्रमुख कीलक छाया और शंकू छाया है. इस शास्त्र का आधार चन्द्र की कलाओं या छायाओं के आधार पर फलित करना है.  

यह ग्रन्थ भी अपने मौलिक रुप में आज उपलब्ध नहीं है. सूर्या प्रज्ञाप्ति और चन्द्र प्रज्ञाप्ति दोनों लगभग एक समान ग्रन्थ है. यह सूर्य प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ का सुधरा हुआ रुप है.  इस ग्रन्थ में सूर्य की प्रतिदिन की गति को वर्गीकृ्त किया गया है. तथा उत्तरायण और दक्षिणायण की गणना करने के बाद सूर्य और चन्द्र की गति निश्चित किया गया है. यह शास्त्र यह भी बताता है, कि चन्द्र व सूर्य दोनों का ताप क्षेत्र किस प्रकार निर्धारित किया जाता है. चन्द्र की सोलह कलाओं के आकार के आधार पर सोलह विथियों का वर्णन किया गया है. इस शास्त्र में कृ्ष्ण पक्ष में श्रावण माह की प्रतिपदा तिथि से वर्ष का प्रारम्भ माना गया है. 

चन्द्र प्रज्ञाप्ति छाया साधन ग्रन्थ | Chandra Pragyapati Chhaya Shastra 

चन्द्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ विशेष रुप से छाया साधन ग्रन्थ् के रुप में जाना जाता है. जब छाया अर्धपुरुष रुप में बन रही हो तो, दिन का कितना समय व्यतीत हो चुका है, और कितना समय बचा हुआ है. दोपहर के समय छाया का आकार कितना होगा, और दिन के चौथाई समय पर छाया किस आकार -प्रकार की होती है.

चन्द्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ विवरण | Chandra Pragyapati Texts Details

इस ग्रन्थ में गोल, त्रिकोण, लम्बी, चौकोर वस्तुओं की छाया पर से दिनमान जानना चाहिए. इस ग्रन्थ के कुछ् भागों में नक्षत्रों की गति, और चन्द्र के साथ नक्षत्रों के बनने वाले योगों का वर्णन किया गया है. इन योगों में श्रवण, घनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्चिनी, कृ्तिका, मृ्गशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुणी,  हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा पन्द्रह नक्षत्रों को शामिल किया गया है. 

इस ग्रन्थ के अध्याय में चन्द्र स्वप्रकाशवान बताया गया है. और साथ ही इसके घटने बढने का कारण भी दिया गया है. व राहू केतु के अन्य नाम भी

दिए गये है. 

ज्योतिष्करण्डक शास्त्र 

ज्योतिष का यह ग्रन्थ प्राचीन और मौलिक ग्रन्थ है. वर्तमान में उपलब्ध यह ग्रन्थ अधूरी अवस्था में है. इस ग्रन्थ में भी नक्षत्र का भी वर्णन किया गया है. इस ग्रन्थ में अस्स नाम अश्चिनी और साई नाम स्वाति नक्षत्र ने विषुवत वृ्त के लग्न नक्षत्र माने गये है. इस ग्रन्थ में राशि की अवस्थाओं के अनुसार नक्षत्रों का लग्न माना जाता है. इस ज्योतिष ग्रन्थ में व्यक्ति के जन्म नक्षत्र को लग्न मानकर फलित करने के नियम का प्रतिपादन किया गया है.  

ज्योतिष्करण्डक ग्रन्थ विवरण | Jyotishkarandka  Texts Details 

यह ग्रन्थ प्राकृ्ति भाषा में लिखा गया है, जैन न्याय, ज्योतिष और दर्शन का ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ में माना जाता है, कुल 167 गाथाएं दी गई है. इस ग्रन्थ का उल्लेख कल्प, सूत्र, निरुक्त और व्याकरण नामक ग्रन्थों में मिलता है. सोलह संस्कारों में प्रयोग होने वाले मूहुर्तों का भी यहां वर्णन किया गया है.  

ज्योतिष्करण्डक ग्रन्थ में कृ्तिका नक्षत्र, घनिष्ठा, भरणी, श्रवण, अभिजीत आदि नक्षत्रों में गणना का विश्लेषण किया गया है. यह ग्रन्थ विवाह संबन्धी नक्षत्रों में उत्तराफाल्गुणी, हस्त, चित्रा, उत्तराषाढा, श्रवण, घनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, रेवती और अश्चिनी आदि नक्षत्र विवाह के नक्षत्र बताये गये है.  

यह ग्रन्थ ई. पू़ 300 से 400 का है.  इस समय के अन्य ज्योतिष ग्रन्थों में राशियों की विशेषताओं का विस्तृ्त रुप में वर्णन किया गया है. इन ग्रन्थों में दिन-रात्रि,शुक्ल-कृ्ष्ण पक्ष, उत्तरायण, दक्षिणायन का कई स्थानों पर वर्णन किया ग्या है. संवत्सर, अयन, चैत्रादि, मास, दिवस, मुहूर्त, पुष्य, श्रवण, विशाखा आदि नक्षत्रों की व्याखा की गई है.