महाशिवरात्रि से संबंधित धारणाएं (Beliefs Related to Maha Shivaratri)

belief2 महाशिवरात्रि का पर्व हिन्दु धर्म को मानने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है. भगवान शिव फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आधी रात में शिवलिंग के रुप में प्रकट हुए थे. इसलिए इस रात्रि को महाशिवरात्रि कहा गया है. भगवान शिव के अर्धरात्रि में शिवलिंग रुप में प्रकट होने से महाशिवरात्रि व्रत में जब अर्धरात्रि में चतुर्दशी रहती है उस दिन व्रत रखा जाता है. नारद संहिता में उल्लेख मिलता है कि फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष में जिस तिथि में अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो उस दिन भगवान शिव का व्रत तथा पूजन करने से अश्वमेघ यज्ञ करने के समान फल मिलता है.


जिस महाशिवरात्रि के दिन प्रदोष हो तथा अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो उस शिवरात्रि को बहुत ही पुण्य देने वाली कहा गया है. अन्य धारणा के अनुसार सृष्टि के आरम्भ के दिन इस दिन अर्धरात्रि को भगवान शिव ब्रह्मा से रुद्र के रुप में प्रकट हुए थे. इस दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए अपने तीसरे नेत्र से समस्त ब्रह्मांड को नष्ट कर देते हैं. पूरे ब्रह्माण्ड में प्रलय का वातावरण छा जाता है. इसलिए इस रात्रि को कालरात्रि भी कहा जाता है.


इसके अतिरिक्त ईशान संहिता में भी महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग के रुप में अवतरित होने की बात कही गई है. इसी दिन से महाशक्ति पार्वती द्वारा मानव सृष्टि के लिए द्वार खोले गए. महाशिवरात्रि पर्व के साथ कई धारणाएँ जुडी़ है. जिनमें से एक यह है कि फल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन चन्द्रमा बलहीन अर्थात क्षीण होता है. इस दिन क्षीण चन्द्रमा के माध्यम से धरती पर अलौकिक शक्तियाँ आती है.


यह अलौकिक शक्तियाँ जीवनीशक्ति में वृद्धि करने का कार्य करती हैं. चतुर्दशी का चन्द्रमा क्षीण होता है लेकिन भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान होने से महादेव इस दिन सभी नकारात्मक शक्तियों का नाश करते हैं. सामान्य प्राणियों की कुण्डली में यदि अनिष्ट की आशंका होती है तब उन्हें भगवान शिव की आराधना करने की बात उन्हें बताई जाती है. प्राचीन ग्रंथों में ऎसी मान्यताएँ हैं कि भारतवर्ष में जो बारह ज्योतिर्लिंग हैं उनके केवल दर्शन मात्र से ही प्राणियों के कष्ट दूर हो जाते हैं.


भगवान शिव का रुप वर्णन (Description of Shiva Image)

भगवान शिव को हमेशा सभी स्थानों पर अर्थात मूर्त्तियों में तथा चित्रों में योगी के रुप में चित्रित किया गया है. भगवान शिव गृहस्थ होते हुए भी दुनियादारी से विमुख रहते हैं. हमेशा भूत तथा पिशाचों से घिरे रहते हैं. आडम्बरों से दूर रहते है. जरा सी भक्ति से प्रसन्न हो जाते हैं. यदि कोई अनजाने में भगवान शिव की भक्ति कर रहा है उससे भी वह प्रसन्न होकर मनोवांछित फल देते हैं. इसका उदाहरण प्राचीन ग्रंथों में शिकारी तथा मृग की कहानी से मिलता है. भग्वान शिव भोलेनाथ हैं आडम्बरहीन हैं. इनका रुप अजीब है. शरीर पर शमशान की भस्म लगाते हैं.


साँप इनके गले का हार हैं. समुद्र मंथन के समय जो विष निकला था उसे पीने से इनका कण्ठ नीला हो गया. इस कारण इन्हें नीलकन्ठ कहा जाने लगा. इनकी जटाओं में पावन नदी गंगा बहती है. मस्तक पर, तीसरी आँख, प्रलयकारी ज्वाला है. इनका वाहन बैल है. जिसे नन्दी बैल के नाम से जाना जाता है. शिव का स्वरूप भयंकर और दिखने में अमंगल होने पर भी सभी का कल्याण करने वाले हैं. जरा सी भक्ति पर प्रसन्न होकर भक्तों का मंगल करते हैं. सुख तथा सम्पत्ति प्रदान करते हैं. यह सामान्य प्राणियों की चेतना के अन्तर्यामी भगवान हैं.


अभिषेक का अर्थ (Meaning of Ordination)

रुद्रमंत्रों का विधान वेदों में दिया गया है. रुद्राष्टाध्यायी में भी अन्य मंत्रों के साथ रुद्रमंत्र का वर्णन हैं. जल अभिषेक करने के लिए केवल जल का प्रयोग किया जाता है. विशेष अभिषेक करने के लिए दूध से अभिषेक किया जाता है. शिवरात्रि आदि शिव पर्वों पर दूध, दही, घृत, शहद तथा चीनी सभी को मिलाकर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है.


भगवान शिव को रुद्र के नाम से भी जाना जाता है इसलिए भगवान शिव के अभिषेक को रुद्राभिषेक कहा जाने लगा. शिवलिंग पर मंत्रोंच्चारण के द्वारा भक्तगण अभिषेक करते है. भगवान शिव की आराधना का सबसे सर्वश्रेष्ठ उपाय रुद्राभिषेक है. प्राचीन शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव को जल की धारा बहुत प्रिय है. इसलिए रुद्राभिषेक करने से वह अपने भक्तों पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं.


रुद्रमंत्रों का विधान वेदों में दिया गया है. रुद्राष्टाध्यायी में भी अन्य मंत्रों के साथ रुद्रमंत्र का वर्णन हैं. जल अभिषेक करने के लिए केवल जल का प्रयोग किया जाता है. विशेष अभिषेक करने के लिए दूध से अभिषेक किया जाता है. शिवरात्रि आदि शिव पर्वों पर दूध, दही, घृत, शहद तथा चीनी सभी को मिलाकर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है.


शिव का पहला जल अभिषेक (Shiva's First Water Ordination)

भारत के उत्तराचंल में गंगोत्री(जहाँ से गंगा निकलती है) में सूर्यकुण्ड नामक एक स्थान है. जो बहुत ही खूबसूरत तथा दर्शनीय स्थल है. प्राचीन ग्रंथों के अनुसार ऎसी मान्यता है कि भगवान शिव को पहला जलाभिषेक गंगा सूर्यकुण्ड में करती है. इसके बाद का गंगा का जल रामेश्वरम में अर्पित नहीं किया जाता है. इससे पहले का जल रामेश्वरम में चढा़या जाता है. इस स्थान पर गंगा भागीरथी के नाम से पूरे वेग के साथ सूर्यकुण्ड में गिरती हैं.


यहाँ सूर्यकुण्ड में एक शिवलिंग स्थित है. जब शीतऋतु होती है तब यह शिवलिंग स्पष्ट रुप से दिखाई देता है. इसी स्थान पर गंगा का जल गिरने से शिव का पहला जलाभिषेक यहाँ माना गया है. सूर्य कुण्ड में गिरने के बाद गंगा की लहरें बहुत ही विकराल रुप में आगे बढ़ती हैं. शिव के इस प्रथम जलाभिषेक का वर्णन पुराणों में भी मिलता है. भगवान शिव के प्रथम जलाभिषेक के कारण सूर्यकुण्ड वाला स्थान बहुत अधिक महत्व रखता है.


शास्त्रों के अनुसार परशुराम ऋषि ने सबसे पहले भगवान शिव का जलाभिषेक किया था. उसके बाद से ही भगवान शिव को उनके भक्तों द्वारा जल अर्पित करने की परम्परा आरम्भ हो गई जो आज तक चली आ रही है. भगवान शिव के भक्त बहुत दूर-दूर से गंगा का जल लाकर शिवलिंग पर चढा़ते हैं. भक्तगण काँवड़ भरकर गंगा से जल लाते हैं. सर्वप्रथम परशुराम जी ने शिवलिंग पर जल चढा़या था. इसके पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है.


जलाभिषेक की प्राचीन कथा (Encient Story of Water Ordination)

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि थे. वह अपनी पत्नी रेणुका के साथ कजरी वन में रहते थे. जमदग्नि बहुत ही शांत स्वभाव के थे. हमेशा अपने अतिथियों का सत्कार करते थे. एक बार कजरी वन में सहस्त्रबाहु नाम का राजा आया. जमदग्नि ऋषि ने राजा तथा उसके सैनिकों का बहुत आदर सत्कार किया. सहस्त्रबाहु को पता चला कि जमदग्नि ऋषि के पास एक कामधेनु गाय हैं जिसके कारण वह सहस्त्रबाहु का आदर-सत्कार करने में सक्षम हुए. राजा ने ऋषि से वह गाय माँगी लेकिन ऋषि ने वह गाय देने से मना कर दिया. इस पर राजा ने जमदग्नि ऋषि की हत्या कर दी और कामधेनु गाय को अपने साथ ले गए.


जमदग्नि ऋषि के पुत्र परशुराम को जब सारे वृतांत का पता चला तब उन्होंने क्रोध में आकर राजा सहस्त्रबाहु की हत्या कर दी और अपने पिता को पुन: जीवित कर दिया. परशुराम के पिता जमदग्नि को जब इस बात का पता चला तब उन्होंने अपने पुत्र को गंगा का जल लाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करने की आज्ञा दी. जलाभिषेक करने से प्रायश्चित की सलाह दी. परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया. उन्होंने कजरी वन में ही शिवलिंग की स्थापना की. उसके बाद वह गंगा का जल लेकर आए और शिव का महाजलाभिषेक किया. जिस कजरी वन में परशुराम जी ने जलाभिषेक किया था वह स्थान आज भी वर्तमान मेरठ के पास स्थित है. इस स्थान को "पुरा महादेव" के नाम से जाना जाता है.


परशुराम जी के जलाभिषेक के बाद से ही शिवलिंग पर गंगा का जल चढा़ने की परम्परा आरम्भ हुई. इसके बाद भक्तगण गंगा का जल काँवड़ में लाकर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं. इसके बाद से भगवान शिव के शिवलिंग पर जल से किया जाने वाला अभिषेक जलाभिषेक कहा जाता है और दूध से किया जाने वाला अभिषेक दुग्धाभिषेक कहा जाता है.